Sunday 15 June 2014

आओ बचा लें पीढियों के लिए हम कूआं

               संस्कृति और सूचनाओं के आदान प्रदान का केंद्र थे कूएं


फोटो –   शहर के कूएं और उसकी स्थिति

खत्म हो रहा हैं कूओं का वजूद
भूगर्भीय जलस्तर का बढ रहा संकट
उपेन्द्र कश्यप 
 कूआं भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आज भी छठ जैसे पवित्र पर्व के लिए श्रद्धालु कूआं का ही जल पसन्द करते हैं। चापाकल समेत तमाम दूसरे विकल्प को कूआं जितना पवित्र नहीं माना जाता है क्योंकि उसमें चमडा या रबर जैसे तत्व इस्तेमाल किए जाते हैं। कूआं सामाजिक जीवन को भी काफी हद तक प्रभावित करता था। संस्कृति और समझ, पारिवारिक मेल जोल को बढावा देने, के साथ साथ कूआं से जुडे क्षेत्र की सूचना का आदान प्रदान का महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। कूआं के महत्व को विद्या वर्मा का कूआं पर लिखे प्रतिबिंब के एक अंश से समझा जा सकता है- “वही कूआं है यह, जो ठिठुरती ठण्ड हो, या पसीना टपकती गर्मी, या कपडों के साथ शरीर को तर करती वर्षा हो, कभी घडा रखने तक को, जगह नही मिलती थी। कूंए पर पहुंचकर वृद्धा भी अपने को जवान समझती थी, प्रौढ भी खुद को शोख और अल्हड अनुभव करती थी। कौन सी ऐसी बात थी? कूंए पर-पानी खींचती और गागर में डालते समय आधा छलकाते| सीढी से उतरते समय गिरते गिरते बचना, अच्छा लगता था। फ़िर बतियाना-किसकी सगाई हो गई, किसकी सास ने बहु को मारा, किसकी किससे आँख मिचौली चल रही है।“ लेकिन आज शहर हो या गांव पानी भरने का काम कूओं से अब नहीं होता। कूएं देखने को नहीं मिलते। नतीजा स्त्रीयां घरों में कैद हो गईं। उनकी स्वच्छन्दता छिन गई। महल्ले की कौन कहे पास पडोस से दूर हो गईं। इससे संस्कृति और कई तरह के आवश्यक ज्ञान का प्रवाह पीढियों तक रुक गया। कूआं वैज्ञानिक कारणों से भी अन्य जल स्त्रोतों से बेहतर थे। इससे भूगर्भीय जल स्तर को बचाना आसान होता था। कूएं खत्म हुए तो भूगर्भीय जलस्तर भी रोजाना नीचे खिसकता जा रहा है। ऐसे में कूआं बचाने की कोई पहल नहीं होती है तो दुख होता है। आने वाली पीढियों के लिए हम जल संकट से जुझने का अवसर देकर अपराधबोध का बोझ लेकर धरती से जाएंगे। जल संकट धीरे धीरे बढता जा रहा है। यह हर कोई देख समझ और झेल रहा है, मगर कूआं बचाने की पहल कोई नहीं कर रहा।

                       निराशा के बीच उम्मीद की किरण


फोटो-  कूआं बचाने की अपील करता शंभु
निराशा के बीच उम्मीद की किरण
निराशा के बीच एक उम्मीद की किरण दिखाया है शंभु कुमार ने। एक्टिविस्ट बनने की कोशिश में लगा यह युवा इस बारे में सोचता है तो अन्धेरे में प्रकाश की एक टिमटिमाती किरण दिखाई पडती है। उसने नगर पंचायत के कार्यपालक पदाधिकारी को एक पत्र दे कर मांग किया है कि विकास के लिए जब भी योजनाएं बनाई जाए तो कूओं के पुनुरुद्धार की योजना पहली प्राथमिकता में ली जाए। शहर के कूओं की उडाही, मरम्मती और जीर्णोद्धार का कार्य किया जाए ताकि समाज को, आने वाली पीढियों को हम जल संकट से जुझने के लिए छोड देने का अपराधबोध लेकर धरती से न जाएं। कहा है कि इसका धार्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्व है। कूओं की महिमा जगत जानता है। मालुम हो कि शहर के तमाम कूओं की स्थिति दयनीय है। हद यह कि कई कूओं का वजूद खत्म कर उसपर अब घर बना लिए गये हैं। कई कूएं अतिक्रमण की शिकार हैं। कई भरते जा रहे हैं।



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