Wednesday 27 January 2016

सिलौटा बखौरा से दाउदनगर भाया सोन नद की यात्रा


---उपेन्द्र कश्यप---9931852301
सिलौटा बखौरा। जी हां! सतरहवीं सदी में औरंगजेब के शासन काल में बसाये गये दाउदनगर का पूर्व नाम। शहर का नाम महाभारत कालीन श्री कृष्ण के अग्रज बलदाउ से जोड कर “दाउनगर” बताने की कोशिश की जाती है, जिसका कोई प्रमाण नहीं है। तर्क दिया जाता है कि बलदाउ मगध नरेश जरासंध के पास इसी रास्ते से गये थे। क्या वास्तव में ऐसा कोई मार्ग था, जो सिलौटा बखौरा से गुजरता था? माना जाता है कि भगवान बुद्ध बोधगया से सारनाथ जाने के क्रम में मनौरा में विश्राम किये थे। उस मार्ग में गोह, मनौरा और अन्छा परगना के गांव पडे होंगें। कौन जानता है? मनौरा क्षेत्र में इसी कारण बुद्ध का महत्व दिखता है। सोन के पानी का रंगएक रास्ता बताता हैं- जो राजगृह से सीधे पश्चिम चलकर वर्तमान सोनपुर गांव (जिला-गया) होते हुए उत्तर पश्चिम काशी की ओर चला जाता है। राज प्दच्युत होकर कोशल नरेश प्रसेनजित मगध नरेश अजातशत्रु से सहायता मांगने इसी मार्ग से राजगृह आया था। अजातशत्रु बिंबिसार का पुत्र था जिसने अपने पिता के बाद 492 ईसा पूर्व से 462 ई.पू. तक मगध पर शासन किया था। सोनपुर के निकट ही गया से एक और मार्ग आकर मिलता था। यह सम्मिलित मार्ग सोन पार कर कारुष के जंगलों से होकर काशी को चला जाता था। बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद गौतम इसी मार्ग से बोधगया से सारनाथ की ओर गये थे। जब मगध की राजधानी राजगृह से उठकर पाटलीपुत्र चली गई तब यह मार्ग बंद हुआ। ललित विस्तरसे अनुमान होता है कि पहली ईसा सदी तक यह मैदानी मार्ग लोगों की नजरों से पूरी तरह ओझल हो गया था। यानी दाउदनगर बनने के करीब साढे सोलह सौ साल पहले ही यह मार्ग बंद हो गया था। बाद में सतरहवीं सदी में जब फ्रांसीसी यात्री तावर्निये पश्चिमी काशी से रोहतास गढ के पास सोन पार कर पटना गया था तब वह सोन के किनारे किनारे दाउदनगर-अरवल होते हुए पटना पहुंचा था। यह इलाका (अंछा परगना) उस मार्ग में पडता था जिससे औरंगजेब कालीन भारत के पूर्वी इलाके (कोलकाता, मगध समेत बडा क्षेत्र) से राजस्व की वसूली कर दिल्ली दरबार को पहुंचाया जाता था। जब यह कहा जाता है कि अंछा पार जब गए भदोही तब जानो घर आये बटोहीतो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस परगना के घनघोर जंगली क्षेत्र में राजस्व लूट लिया जाता था। तभी दाउद खां ने इस इलाके की किलाबन्दी की। हम जानते हैं कि सोनघाटी का विकासमान यातायात भी प्राकृतिक महत्व के कारण है, मानवीय महत्व के कारण नहीं। पाटलीपुत्रा (पटना) को छोडकर इस घाटी के प्राचीनतम ज्ञात नगर हैं धनपुर, सोहागपुर और बिलहरी। इनके बाद के मध्यकालीन नगर हैं- अगोरी, पलामू, रोहतासगढ, दाउदनगर तथा मनेर। इस कारण यह स्पष्ट है कि दाउदनगर मध्यकालीन (मुगलकालीन) नगर है। महत्वपूर्ण है कि सिलौटा बखोरा या दाउदनगर परगना अंछा का एक इलाका है। जमीन खरीद फरोख्त के दस्तावेजों में हाल तक हाल-मोकाम के बाद परगना अंछा ही लिखा जाता रहा है। अंछा, गोह और मनौरा तीन महत्वपूर्ण परगना मुगलकाल में थे। इन तीनों परगनाओं को औरंगजेब ने दाउद खां को पलामु फतह के बाद भेंट किया था। औरंगजेब ने सिपहसिलार दाउद खां को बिहार का नया सुबेदार नियुक्त किया था। उसने इलाका विस्तार का अभियान 1660 में प्रारंभ किया और जिला गया का कोठी, औरंगाबाद जिला का कुंडा, और देवगन राज को फतह कर पलामु भी फतह कर लिया था। इसके बाद ही दाउद खां ने सिलौटा बखौरा को आबाद किया और नगर बसाया। यहां 1662 में दाउद खां ने अपना किला बनाना प्रारंभ किया था जो 1672 में पूर्ण हो सका था।

दाउदनगर और उसके दक्षिण बारुण तक का इलाका घने जंगल से भरा हुआ था। 1766 में फ्रांसीसी अभियंता लुई फेलिक्स द ग्लास ने लिखा है कि इस इलाके में सर्वेक्षण करना नितांत असंभव है। अभेद्य वनाच्छादित प्रदेश है। न सडक है न पगडंडी ही। यानी यह इलाका तब भी दाउदनगर ही था घनघोर जंगल के बीच विकास के लिए संघर्ष करता हुआ एक कस्बा। जब बलदाउ (महाभारत काल) और बुद्ध (ढाई हजार साल पूर्व) थे तो यह इलाका था ही नहीं। ऐसे में बलदाउ से दाउग्राम होने की कोई संभावना बचती ही नहीं है। मगध के इस क्षेत्र में पिछले ढाई हजार सालों में मह्त्वपूर्ण भौगोलिक भूगर्भीय घटना रही है सोन भद्र नद के प्रवाह में परिवर्तन। विशेषज्ञ कहते हैं कि पुनपुन नदी जो  वर्तमान में फतुहा में गंगा में मिलती है वह नौबत पुर (पटना के दक्षिण-पश्चिम में) के आगे फतुहा में गंगा में मिलने तक बाल्मिकी कृत रामायणकालीन सोन के पाट का अनुसरण करती है। फल्गु जब गंगा के समानांतर बहना शुरु करती है तो धोवा नाम धारण करती है। सोन की धोवन होने की वजह से ही। सोन जो आज कोइलवर में गंगा में मिलता है उसका प्राचीन प्रवाह और पूरब दिशा से होता था और वर्तमान पटना शहर के बीच से होते हुए गंगा में मिलता था। पूरब में सोनउरा-सोनपुर-मोरहर-दरघा-धोवा-हरोहर से आगे पूरब को सोन कभी नहीं गया। इसी तरह वह पश्चिम में अपने वर्तमान पाट से कुछ पश्चिम तक जा कर रुक गया। बाणभटट की कादम्बरी की रचना सोन नद के किनारे स्थित प्रीतिकूट में की गयी थी। इसे स्वयं बाण ने अपना गृह बताया है। यह प्रीतिकूट कोई दूसरा नहीं बल्कि औरंगाबाद जिले के हसपुरा का पीरू गाँव ही है। ध्यान दें, हर्षवर्धन काल में सोन वर्तमान देवकुण्ड-रामपुर चाय होते हुए प्रवाहित होता था, जिसे दाउदनगर में बहकहा जाता है। हर्षवर्धन-वाणभट्ट काल (सातवीं सदी का पूर्वार्ध) में सोन का मार्ग हुआ करता था बह, जहां निरंतर पानी बहा करे। यहां इसे सोन का छाडन कहा जाता है। जे.डी.बेल्गर ने इसका उल्लेख किया है। उसके शब्दों में-अधिकारियों द्वारा प्राप्त सूचनाओं और अपने व्यक्तिगत अवलोकन निरुपण के आधार पर मेरा विचार है कि सुदूर अतीत में दाउदनगर के पास तराढ (तराड) गांव के निकट से सोन दक्षिण-पूरब को बहता था। देवकुंड या देवकुढ के टांड की बिल्कुल बगल से होता हुआ रामपुर चाइ और केयाल के सटे आगे बहता था। तराढ या तरार (आर तर या आर पर) का हिन्दुस्तानी में अर्थ होता है नदी की उंची कगार पर बसा हुआ। नाम से ही स्पष्ट है कि यह गांव पहले किसी नदी के उंचे तीर या तट पर बसा हुआ था। तराढ से बिल्कुल सटे और इसके तथा दाउदनगर के बीच में सोन नहर के लिए हाल की खुदाई से बिल्कुल साफ हो गया है कि यह इलाका पहले की किसी बडी नदी का पाट था। चाइ और केयाल में पानी के बडे-बडे गड्ढे आज भी मौजूद हैं-संभवत: वे प्राचीन सोन के अवशिष्ट हैं। देवकुंड में हर साल एक मेला लगता है। मैं समझता हूं कि केयाल से सोन उत्तर-पूरब को लगातार बहते उए सोनभदर गांव के पास पुनपुन का वर्तमान पाट धर लेता था।बेल्गर आगे लिखता है- यह स्पष्ट है कि सुदूर अतीत से बुद्ध के निर्वाणकाल तक मेरे इंगित किए हुए रास्ते से बहता हुआ सोन फतुहा के पास गंगा में मिल जाता था।बेल्गर के इस मत में भी संशोधन की गुंजाईश है। उन्नीसवीं सदी में पटना प्रमंडल का अभियंता रह चुका और सडकें बनवाने के सिलसिले में पटना- गया इलाकों के आभियांत्रिक लक्षणों का पूरा ज्ञान हासिल करने वाले एम.पी.बी.डुएल का मत है कि-सोन अरवल और दाउदनगर के बीच से अपना पाट छोडकर पटनावाली सडक पार करने के बाद मसौढी के उत्तर पुनपुन का पाट धर लेता था। वहां से उसका कुछ पानी फतुहा के निकट गंगा में मिल जाता था और कुछ पानी मैथवान (वर्तमान नाम-महतमैन) नदी से होकर मुंगेर की ओर बढा जाता था।कौल के मत को ध्यान रखते हुए डुएल के मत में इतना सुधार किया जा सकता है कि फतुहा के निकट का पानी गिरने (या, बेल्गर के मतानुसार, सोन-गंगा-संगम) की स्थिति बुद्धकालीन हो सकती है, बाल्मीकि कालीन नहीं। उनदिनों फतुहा के उत्तर का राघोपुर-दियारा टापू नहीं , मगध की तत्कालीन भूमि का एक खंड था। सोन के पाट परिवर्तन के इस विशद विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत और बुद्ध काल में सिलौटा बखौरा के अस्तित्व में होने की धारणा उचित नहीं जान पडता है।

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