Saturday 13 September 2014

दो जातियां देती हैं लोकोत्सव को संजीवनी




यहां जिउतिया लोक संस्कृति को जीवंत बनाए रखने का श्रेय दो जातियों को जाता है। पटवा या तांती और कांस्यकार या कसेरा। हलवाई जाति के रामबाबू परिवार को भी इसका श्रेय देना होगा। यह परिवार बाजार चौक की जिम्मेदारी संभालता रहा है। उनके स्वर्गवासी होने के बाद उनके वंशज और खानदान वालों के साथ दूसरी वैश्य जातियां सक्रिय है। साहित्य में जिन पांच नामों आश्विन अंधरिया दूज रहे संवत 1917 के साल रे जिउतिया, जिउतिया जे रोपेलन हरिचरण, तुलसी, दमड़ी जुगुल, रंगलाल रे जिउतिया- को इस संस्कृति की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। वे सभी कांस्यकार जाति के हैं। लेकिन यह समाज भी यह मानता है कि उनके पूर्वजों ने यह संस्कार पटवा समाज से ही सीखा था। इमली तल उनके कार्यक्रम को देखने के प्रतिफल स्वरुप इसे रोपागया। बताया जाता है कि जब कांस्यकार जाति के लोग इमली तल की संस्कृति को देखने जाते थे तो कभी यानी संवत 1917 से पूर्व मारपीट की घटना घटी और प्रतिक्रिया स्वरुप पांचों ने कसेराटोली चौक पर भी जिउतिया का चौक बना कर कार्यक्रम शुरु किया। संभव है तभी इसे नकलकी संज्ञा दी गई हो। दूसरी कथा प्लेग से जुड़ी है, जिस पर चर्चा बाद में। बहरहाल आज भी इन दो जातियों की ही भागीदारी सर्वाधिक होती है। पटवा या तांती समाज मिट्टी कोड़ने की पारंपरिक कार्य से जुड़ा है। तांत से कपड़े बुनना उसकी विशेषता रही है। जब कि कांस्यकार समाज कांसे, पीतल का बर्तन बनाने के पुश्तैनी धंधे से जुड़ा हुआ है। दोनों ही जातियों को दाउदनगर को बसाने वाले दाउद खां ने यहां लाकर बसाया था। वैसे तब लगभग हर उस जाति को दाउद खां ने यहां बुलाकर बसाया था जिसकी जरूरत तत्कालीन समाज को थी।

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