Thursday 8 October 2015

श्रमण संस्कृति का वाहक दाउदनगर-क्यों?

(अपनी बात)
श्रमण संस्कृति का वाहक दाउदनगर- क्यों?

   विश्व के बडे भू-क्षेत्र का राष्ट्र एवं राज्यों का इतिहास लिखित है। किसी कस्बे का लिखित इतिहास शायद ही मिलता है। दाउदनगर थोडा भाग्यशाली है। मुगलकालीन शहर का इतिहास बताने के लिए इसके पास तारीख-ए-दाउदियाहै। अरबी, फारसी मिश्रित कठिन उर्दू में लिखी हुई।  इसके अनुवाद पर विगत तीन साल से काम कर रहा हूं। इस पुस्तक में मैंने इसी कारण ‘तारीख-ए-दाउदिया’ से कुछ प्रसंग ही लिया है जिससे इतिहास के कुछ सन्दर्भ हासिल हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ विद्वानों ने भी भूगोल के इस हिस्से का अध्ययन किया है। मगध का इतिहास ही भारत का इतिहास है। इसी गौरवशाली मगध के पश्चिमी किनारे और शाहाबाद (रोहतास) के पूर्वी किनारे सोन के तट से सटा शहर दाउदनगर 23 वार्डों का नगरपंचयत है। इसके साथ ही भखरुआं जुडा हुआ है लेकिन शहरी क्षेत्र से फिलहाल बाहर ही है। शहर आक्षांश 25.03 डिग्री (उत्तर) और देशांतर 84.4 डिग्री (पूरब) में स्थित है। समुद्रतल से यह शहर 84 मीटर यानी 275 फुट की औसत उंचाई पर बसा हुआ है। टाईम जोन है- आईएसटी (यूटीसी+5:30)। राष्ट्रीय राजमार्ग 98 शहर से होकर गुजरता है। 2011 की जनगणना के अनुसार शहर की आबादी 52364 है। पुरुष की आबादी 52 फीसदी 27229 और महिला आबादी 48 प्रतिशत 25134 है। 71 प्रतिशत पुरुष साक्षरता और 61 प्रतिशत महिला साक्षरता के साथ 66 फीसदी  की औसत साक्षरता दर है। कुल  जनसंख्या के 18 फीसदी आबादी की उम्र छ: वर्ष से कम है। यहां 86 प्रतिशत  हिन्दू और 14 प्रतिशत  मुस्लिम आबादी है।
मैं इसमें इत्तेफाक नहीं रखता कि सिलौटा बखौरा महाभारत काल में श्री कृष्ण के अग्रज बलराम (इनका एक नाम-बलदाउ है) के आगमन से दाउग्राम बन गया, जो कालांतर में दाउदनगर हो गया। कुछ लोगों ने इस नाम को ही प्रचलित बना देने की कोशिश जरुर की, मगर सफलता न तो मिलनी थी, न मिली। सच्चाई को झुठलाना असंभव है। मैं यही मानता हूं कि औरंगजेब के सिपहसालार दाउद खां ने इस शहर को बसाया था, इसलिए इसका नाम दाउदनगर है। पहले आपने उत्कर्ष (2007) और उत्कर्ष दो (2011) में मेरी कोशिश को देखा परखा है। पूरे अनुमडल क्षेत्र की कई नई एवं खोजपरक बातें सामने लाया था। उत्कर्ष 2007 में मैंने दाउदनगर का इतिहास और दाउद खां की जीवनी बताया था। इस बार भागौलिक दायरा कम किया है मगर अध्ययन व्यापक और गहराइपूर्ण है।
 1994 में जब मैंने पत्रकारिता प्रारंभ किया तो एक मिशन के साथ किया। मस्तिष्क के एक कोने में यह बात बैठ गई थी- “जो रचता है वही बचता है।“ हर बार कुछ नया करने, नया खोजने को प्रेरित करता रहा। मूलरूप से दो क्षेत्रों में गहरे अनुसन्धान से मैंने पत्रकारिता की शुरुआत की। अद्भूत पर्व जिउतिया और दूसरा नक्सली गतिविधियां। इक्कीस साल की पत्रकारिता में मैंने क्षेत्रीय राजनीति के बाद सर्वाधिक खोजी खबरें इन्हीं दो विषयों पर लिखा है। पहली बार हथियारबंद दस्ता के बीच जाने का बेखौफ कार्य हो या जिउतिया को राज्यस्तरीय या राष्ट्रीय प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में महत्वपूर्ण स्थान दिलाने का काम। साल 1995 का जिउतिया मेरे लिए एक अवसर के रुप में सामने आया। मैं इसकी पूर्ण जानकारी के लिए कई सप्ताह पूर्व गलियों में बुजूर्गों के पास जानकारी लेने गया। यह देखा, यहां की पूरी संस्कृति ही श्रमण है यानी श्रमिकों की संस्कृति है। हर गली, मुहल्ले की हालत एक सी है। यहां की बसावट, उनका पेशा, उनकी जीवन शैली, उनके व्यवहार पूरी तरह श्रमिकों की है। यहां की आबादी मूल नहीं है। या तो सतरहवीं सदी में दाउद खां ने बुलाकर बसाया है या फिर रोजगार की तलाश में कहीं से आये और फिर यहीं के हो कर रह गए। जितनी जातियां, और जातियों के नाम पर मुहल्लों के नाम हैं, उतना शायद ही किसी दूसरे कस्बे में आपको मिलेगा। शहरी क्षेत्र में न्यूनतम 44 मुहल्ले हैं। उमरचक, पटेलनगर, शीतल बिगहा, गौ घाट, बुधन बिगहा, पिलछी, मौलाबाग, ब्लौक कालोनी, न्यू एरिया, अफीम कोठी, चुडी बाजार, कान्दु राम की गडही, पांडेय टोली, गडेरी टोली, अफीम कोठी, खत्री टोला, मल्लाह टोली, चमर टोली, पटवा टोली, दबगर टोली, ब्राहम्ण टोली, कुम्हार टोली, नाई टोली, लोहार टोली, महाबीर चबुतरा, थाना कालोनी, हास्पिटल कालोनी, यादव टोली, डोम टोली, कसाई मुहल्ला, नालबन्द टोली, कुर्मी टोला, दुसाध टोली, इमृत बिगहा, बुधु बिगहा, रामनगर, अनुप बिगहा, रामनगर, नोनिया बिगहा, माली टोला, जाट टोली, यादव टोली, ब्राह्मण टोली और बालु गंज। इन मुहल्लों में शामिल सभी जाति सूचक मुहल्ले पुरातन हैं। एक ही नाम के दो-दो, तीन-तीन मुहल्ले भी हैं। व्यक्ति के नाम सूचक और अन्य नाम नगरपालिका के विस्तार के साथ जुडे इलाकों के नाम हैं। जिन जातियों का ज्ञान इन मुहल्ला नामों से होता है, उसके अलावा भी कई श्रमिक जातियां यहां रहती हैं। रंगरेज, डफाली, कुंजडा, अंसारी, मुकेरी, सुडी, सौंडिक, तेली, धुनिया, रोनियार, अग्रवाल समेत तमाम तरह की श्रमिक जातियां यहां हैं। सोनार पट्टी जैसे नाम तारीख-ए-दाउदिया में हैं, जो अब लापता हो गए। यहां श्रम करने वाली जातियों ने अपना समाज गढा। अपनी साझा संस्कृति बनाई। इस लोक संस्कृति के मूल में है जिउतिया- ‘दाउदनगर के जिउतिया जिउ (ह्र्दय) के साथ हई गे साजन’। यह श्रम से उपजी हुई संस्कृति है। संस्कृति का दायरा संकुचित नहीं होता। उसमें नये विचारों और प्रवृतियों का समावेश होता रहता है। जिन संस्कृतियों में नये विचारों और नये समाज का प्रवेश निषेध हो या सबकी सहभागिता वर्जित हो, या उनका प्रवेश कठिन हो, वैसी संस्कृतियां जड बन जाती हैं। उनके खत्म होने का खतरा रहता है। जिउतिया की व्यापकता की कई मिशालें हैं। हिन्दु-मुस्लिम, उंच-नीच, बडा-छोटा, सवर्ण-अवर्ण की दूरी नहीं है। संस्कृतियों की शक्ति बडी होती है। यही वजह है कि वह अपने साथ सबको जोड लेती है। कभी जिउतिया देखिए-चकित रह जाइयेगा, इस शक्ति का दर्शन करके। पूरा शहर ही इस लोकोत्सव में भींगा-भींगा सा दिखता है। इसके प्रभाव से शहर का कोना-कोना, प्रभावित होता है। व्यक्ति-व्यक्ति इससे आत्मिक जुडाव का आनंद लेता है। खैर.. 
 इनमें से चुनिन्दा श्रमिक जातियों के आगमन, इनके पूर्वजों के आने का उद्देश्य, जिउतिया–समारोह के जन्मने की कहानी सब श्रमिक संस्कृति का ही वाहक हैं। श्रमिकों की संस्कृति ही श्रमण संस्कृति है। इस देश समाज में सदियों से दो विचार परंपराएं चल रही हैं- एक श्रमण परंपरा दूसरा अभिजन परंपरा। शब्दकोष श्रमण का अर्थ बताते हैं- परिश्रमी, मेहनती। सन्यासी और अभिजन का अर्थ है चैतन्य, सभ्य। अभिजन चिंतन का मूल सूत्र है-शारीरिक श्रम से दूरी। शारीरिक श्रम से जो जितना दूर है उतना श्रेष्ठ है। इस विभाजन की झलक यहां की संस्कृति में भी देख सकते हैं। इसी सन्दर्भ में मैंने इस पुस्तक का नाम “श्रमण संस्कृति का वाहक दाउदनगर” रखा है। जिसे व्यापक सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए। 
आपको इस बार बतायेंगे 130 साल पूरा कर चूके नगरपालिका के सभी चेयरमैनों का इतिहास, उनका जीवन चरित्र, उनकी उपलब्धियां और राजनीति का उतार चढाव। इस पुस्तक के लिए जो आवश्यक तथ्य चाहिए वह दुर्भाग्यवश नगर पंचायत के पास उपलब्ध नहीं है। यथा 1885 से लेकर 1971 तक की जनगणना उपलब्ध नहीं है। क्षेत्रफल का ज्ञान चौहद्दी से आगे निकल कर रकबा में नहीं है। अचल संपत्ति का ब्योरा उपलब्ध नहीं है। आपको बतायेंगे 155 साल से अधिक पुरानी जिउतिया संस्कृति के विविध आयामों पर व्यापक शोध। भूगोल, समाज, अर्थ, जाति बसावट, निर्माण, प्रारंभ और वर्तमान के साथ संभावनाओं का अध्ययन। सामाजिक बदलाव की प्रवृतियों और जमीनी राजनीति की टेढी –मेढी पगडंडियों को भी रेखांकित कर रहा हूं। हां, याद रखिये “तारीखें इतिहास नहीं होतीं”। हो सकता है एकाधिक तारीखें गलत हों। लेकिन घटना, प्रवृति और विचार को इससे फर्क नहीं पडता।
                           उपेन्द्र कश्यप
                         (जिउतिया-2015)              

1 comment:

  1. उत्कर्ष 2007 भी हम तक पहुचाने में मदद कर सकते हैं तो आपकी बड़ी कृपा होगी। संभव हो तो ऑनलाइन अपडेट कर हमें लिंक प्रदान करें।

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