Saturday 18 March 2017

सवर्णवादी मीडिया बनाम अवर्ण नेतृत्व की संकुचित मानसिकता

मीडिया को अपना विरोधी मानने वालों के लिए-------
मैं मीडिया का आदमी हूँ| गत ढाई दशक से गैर सवर्ण चेहरा| यह बात काफी सालों से कचोट रही थी तो खुद को लिखने से नहीं रोक पाया| ख़ास कर उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद मीडिया पर काफी सवाल उठाये गए| हिन्दी पट्टी क्षेत्र में मीडिया को स्वयंभू समाजवादी राजनीतिक दल, राजनीतिक कार्यकर्ता सवर्णवादी, सवर्ण वर्चस्व वाली और यहाँ तक कि पिछड़ा, अति पिछड़ा और दलित विरोधी बताते हैं| यह एक फैशन सा बन गया है कि अपनी खामी को छुपाने के लिए मीडिया को अपना विरोधी बताओ| ऐसा भी नहीं है कि मीडिया पर ऐसे आरोप एकदम से खालिस झूठे हैं, किन्तु यह अकाट्य सत्य है कि जितना और जिस तरह आरोप लगाये जाते हैं वह भी पूर्ण सत्य नहीं है|
मैं जितने भी मीडिया हाउस में काम किया और कर रहा हूँ, उसमें एक मात्र “फारवर्ड प्रेस” छोड़ कर (जिसके भी संपादकों में एक ब्राह्मण मित्र शामिल हैं) सभी पर सवर्णवादी होने का आरोप लगता है| (बिहार से प्रकाशित व बंद हो चुके प्राय: सभी  अखबार, पत्रिका व दिल्ली से प्रकाशित कई प्रतिष्ठित पत्रिका में लिखा है मैंने) इसके बावजूद मुझ पर कभी यह दबाव नहीं डाला गया कि अमुक सवर्ण के बारे में लिखे, उसे हाई लाईट करें या उसे तवज्जो दें| खबरों को सवर्णवादी नजरिए से लिखें| दैनिक जागरण के साथ बिहार में उसके आगमन के साथ से काम कर रहा हूँ| आज तक जितने आलेख, व्यक्ति विशेष पर भी गैर सवर्णों पर लिखा वह छपा| दर्जनों उदाहरण बता सकता हूँ| बल्कि गैर सवर्ण संस्कृति हो या ‘व्यक्ति विशेष’ स्थापित ही दैनिक जागरण ने किया है उन्हें|  
सवाल है कि क्या जिस तरह सवर्णवाद करने वालों की मानसिकता होती है उस स्तर तक अवर्ण समुदाय में परिपक्वता है?
यह समुदाय तो थोड़ा ही मिलने पर अपनों के खिलाफ सक्रीय होता है| दावे से कह सकता हूँ कि अवर्ण को अपने और गैर की पहचान ही नहीं होती| अपनो के ही खिलाफ ईर्ष्या भाव से कलम चलाता है? अपनो पर वार करना फितरत होती है और जिसे गलियाता है उसके खिलाफ खडा होने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है अवर्ण|
गैर सवर्ण समुदाय के नेताओं ने क्या कभी कोशिश की कि सवर्णवादी मीडिया के खिलाफ गलियाने के अलावा किसी अन्य विकल्प पर विचार करें? अपना बनाने की कोशिश करे? किसी को गाली देकर अपने अनुकूल तो आप कतई नहीं बना सकते है। समानांतर भी खड़ा होना एक विकल्प है।
बिहार पर ही विचार करें- 1990 से लालू प्रसाद यादव, राबडी देवी और नीतीश कुमार की सरकार निरंतर और पूरी शक्ति के साथ चल रही है| बिहार में इनके अलावा जो नेता अग्रिम कतार में है उसमें शामिल सुशील मोदी व राम विलास पासवान ने क्या कभी कोशिश की कि समानांतर मीडिया हाउस खडा किया जाए?
किसी को अपने हित साधन से रोका नहीं जा सकता| हाँ, सबसे बेहतर विकल्प है खुद को समानांतर खडा किया जाए| हिन्दी पट्टी क्षेत्र में उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा प्रांत है| यहाँ भी लगभग बिहार जैसी ही स्थिति है| 1990 से मुलायम सिंह, कल्याण सिंह, मायावती और अखिलेश यादव की सरकार रही है| सभी पिछड़े, दलित और स्वयंभू लोहियावादी, जयप्रकाश नारायणवादी हैं| बीच में बमुश्किल 17 महीन सवर्ण राजनाथ सिंह की सरकार रही है| क्या कभी इन सबने समानंतर मीडिया हाउस खडी करने के लिए प्रयास किया? यदि चाहते तो अपनी ही सरकार के विज्ञापन से खडा कर सकते थे? किन्तु ऐसा नहीं किया| किसने रोका था इन्हें? क्यों नही खड़ा कर सके? इसके पीछे बहुत दिमाग खपाने की आवश्यकता नहीं है|
सभी स्वार्थी जातिवादी और उससे पहले परिवारवादी राजनीति से बाहर निकल ही नहीं सके| अपनी ही पार्टी में लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, मायावती और नीतीश कुमार दूसरी पंक्ति तैयार नही कर सके| कारण साफ़ है कि उन्हें अपने या अपने खानदान से बाहर के व्यक्ति के उभरने से खतरा महसूस होता है| सभी सिर्फ अपने तई सिमटे रहे, सोचते रहे| न व्यापक सोच न व्यापक समाज की चिंता? इनका समाज सबसे पहले स्वयं फिर परिवार तक सिमटा रहा है|
मेरे भाई| सिर्फ विरोध कारने से कुछ नही होता| कुछ करने से ही कुछ होता है| समाज के लिए वह कुछ करता है जो व्यापक सोचता है| स्वयं से, परिवार से बाहर समाज बसता है और उसकी चिंता ये नहीं करते| सभी सक्षम थे- समानांतर मीडिया हाउस खड़ा करने में| ये भी अलिखित नियम बनाते कि अपने मीडिया हाउस में सभी पदों पर सिर्फ गैर सवर्ण को नियुक्त करेंगे| क्या तब कोइ सवर्ण सडक पर खिलाफत को उतरता? नहीं| दूसरे को अपना हित साधने से रोक नहीं सकते| और ऐसा करना उचित भी नहीं है| अपना हित साधन, किन्तु तात्कालिक ही राजनीति से तो कर सकते हैं किन्तु समाज का हित बिना साहित्य के नहीं हो सकता| बिना मीडिया के नहीं हो सकता| यह आज की आवश्यकता है|

उदाहरण- मीडिया के सन्दर्भ में दक्षिण के राज्य है|
और दूसरा दवा क्षेत्र से दे रहा हूँ-
एक दवा कंपनी (नाम जान बुझ कर नहीं दे रहा हूँ) में यह अलिखित नियम है कि यहाँ गैर सवर्ण ही सभी तरह के पदों पर नियुक्त होगा| इसकी वजह है| इसके मालिक एक दवा कंपनी में गए| वहा सवर्णों के बीच कुंठित रहने लगे| इन्होने गलियाने की जगह समानांतर खडा होने की कोशिश की| अलग कंपनी खडा की और आज यह देश के प्रथम दस में स्थान बना सका है|       
   

3 comments:

  1. आपने यथार्थ लिखा है। व्यक्तिगत नजरिए पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है।

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