Monday 21 July 2014

छ: दशक में भी नहीं बदला पुलिसिया चरित्र


                     ब्रिटिश पुलिस की मानसिकता से मुक्ति नहीं
निर्दोष को उग्रवादी बताने की पुरानी लत
उपेन्द्र कश्यप
भारतीय पुलिस का चाल, चरित्र और चेहरा आजादी के छ: दशक बीत जाने पर भी नहीं बदल सका है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है मदनपुर और अकबरपुर गोली कांड। भारतीय पुलिस प्रणाली ब्रिटिश राज की देन है। पीडी मैथ्यू ने अपनी किताब में लिखा है कि –‘अंग्रेजों ने पुलिस का भारत में अपने शासन को कायम रखने के लिए जनता को सताने की नियत से इस्तेमाल किया था। कानून और व्यवस्था कायम रखने से अधिक राष्ट्रवादी आन्दोलनों को कुचलने का काम करने में पुलिस का इस्तेमाल किया गया।‘ यह हम आज भी देखते हैं। गुलाम भारत में रोजाना हुए अभ्यास के कारण पुलिस का चरित्र जो बना वह इस संस्था की आदत बन गई। वह छ: दशक में भी नहीं बदल सका। उसको लेकर जनता में सन्देह, डर और अविश्वास आज भी बना हुआ है। कारण साफ है कि पुलिस अंग्रेजों के जाने के बाद जमींदारों और रईसों की चाकरी करती रही और आम आबादी के प्रति उसका रवैया सकारात्मक नहीं बन सका। पुलिस को जनता का मित्र बनाने का हर संभव प्रयास विफल होता रहा। यह प्रमाणित तथ्य है खासकर औरंगाबाद जिला के सन्दर्भ में। औरंगाबाद की घटना ने तो पुलिस का पुराना बर्बर चेहरा ही उद्घाटित किया है। अस्सी के दशक में यहां एसपी रहे विमल किशोर सिन्हा ने जिला स्मारिका “कादंबरी” में लिखा था कि-“थानों से दूर उनकी नियंत्रण से बाहर पुलिस पिकेटों पर नजर आए मस्ती से खाते पीते जिन्दगी जीते पुलिस के जवान। जिनका उद्देश्य पीकेट की रक्षा करना था वे ग्रामीणों को पकडते, उसका दोहन करते और उग्रवादी की संज्ञा दे देते।“ उनका यह अनुभव आज भी अपने मूल रुप में ही जिंदा है। इस घटना क्रम के मूल में यही बात है कि पुलिस जवान आम आदमी को नक्सली बता कर उसे गाली गलौज कर रहे थे। उसका मुर्गा खा रहे थे। जब इसका विरोध शुरु हुआ तो आला अधिकारियों ने नोटिस नहीं ली। समस्या के समाधान की पहल नहीं की। जब भीड आक्रोशित होकर सडक पर उतर गई तो गोली चला कर हत्या कर दी गई।
हत्या के शिकार क्या कलावती देवी और बारह वर्षीय सातवीं का छात्र रामध्यान रिकियासन नक्सली थे? पुलिस यह समझती है कि उसकी गोली का डर ही आन्दोलनों को कुचल सकती है। ठीक इसी समय वह यह भूल जाती है कि आन्दोलनकारी भारतीय हैं, अंग्रेज नहीं जो देश छोडकर चले जायेंगे। वे जितना शोषित होंगे उतना ही संगठित होंगे। पुलिस मैनुअल नहीं पढती। हर नागरिक को पुलिस कारर्वाई के खिलाफ तब आत्मरक्षा का अधिकार प्राप्त हो जाता है जब उसे लगे कि पुलिस अधिकारी की कारर्वाई से मृत्यू या गंभीर चोट की समुचित आशंका हो। क्या नाबालिग लडकों बिट्टु, पप्पु और रितेश को हथकडी लगाने वाली पुलिस के खिलाफ भी प्राथमिकी दर्ज की जाएगी? उच्चतम न्यायालय ने 23 मार्च 1990 के युपी के अलीगंज थाने के एक मामले में दिए गए अपने फैसले में असलम को हथकडी लगाने के कारण पुलिस पर 20 हजार का जुर्माना किया था। 

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