Sunday 25 June 2017

बदल गयी बिहार की बेटी, बदलेगी प्रदेश की राजनीति?

शहरनामा- उपेंद्र कश्यप।
ह्वाट्सएप, ट्वीटर और फेसबुक ऐसे सोशल प्लेटफॉर्म बन गए हैं जहां आदमी अपने मन की बात खुलकर लिख जाता है। उसका क्या भाव है, क्या क्या अर्थ लगाए जाएंगे, क्या सामाजिक प्रभाव पड़ेगा, इसकी चिंता लिखने वाले को  कतई नहीं होती है। हालांकि बहुतेरे ऐसे हैं जो सोच समझ कर लिखते हैं। लेकिन बिना सोचे समझे लिखने वालों की संख्या अधिक दिखती है। देश में राष्ट्रपति चुनाव का माहौल है। स्वाभाविक है हर तरफ इसकी चर्चा है। औरंगाबाद और दाउदनगर इससे भला अछूता कैसे रह सकता है? इनबॉक्स में इसी संदर्भ में एक मैसेज टपका। 'बिहार की बेटी तो इशरत जहां होती थी, मीरा कुमार कैसे हो गई?' सवाल मौजू था। सवाल पूछना चाहिए, यह लोकतंत्र की ताकत है। सवाल पूछने पर रोक ही आपातकाल की घोषणा है। चाहे कोई भी राजनीतिक दल ऐसा करे। दुर्योग से जब शहरनामा लिख रहा हूँ तो यह याद भी आ गया कि आपातकाल की बरसी भी है। खैर, सवाल ने चौंकाया नहीं। इसी सुशासन बाबू ने इशरत जहां को वोट लाभ के लिए बिहार की बेटी बताया था। बड़े गर्व कब साथ। अब इनके सहयात्री समाजवादी धड़े वाले मीरा कुमार को बिहार की बेटी बता रहे हैं। तब एक धर्म विशेष के वोट के लिए ऐसा कहा गया था आज भी ऐसा ही कुछ है। वोट बैंक बनाम पावर व प्रेशर पॉलटिक्स है यह सब भाई। चर्चा बहुत कुछ है। लोग पूछ रहे और सवाल उठाने का अवसर नेता दे रहे हैं। सवाल उठ रहा है कि बिहार की बेटी बदल गयी तो क्या प्रदेश का सियासत भी बदलेगा? समीकरण बदलेंगे? या फिर जैसा एक नेता कहते हैं- गाछे कटहल, होठे तेल। वैसा ही होगा। क्योंकि डूब रहा शख्स कभी नौका नहीं छोड़ता। एक के पास विकल्प है दूसरे के पास तिनके का सहारा। जिसके जरिए वह स्थापित हो रहा है। इसलिए सौ चूहे खाकर भी जैसे बिल्ली हज को चली गयी थी वैसे ही नेता जी सबकुछ सहते हुए साथ रहेंगे। कहते हैं न- मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। अब देखिए, समय का इंतजार करिए। क्या क्या बदलता है? बेटी बदली, सियासत बदलती दिख रही है। किंतु कब क्या बदल जाएगा, यह कोई नहीं जानता, क्योंकि पॉलटिक्स है भाई ।


और अंत में डा. अजय जनमेजय को पढ़िए-

वो भी चतुर था, उसने सियासत सीख ही ली।
धोखा देना, हाथ मिलाना सीख गया।
उसको दे दो नेता पद की कुर्सी, वो।
वादे करना और भुलाना सीख गया।


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