Saturday 22 April 2023

न सोन में बालू का चौड़ा पाट बचा, न दिखते दीवार की तरह खड़े टीले

 सोन का शोक





बाढ़ को शहर में आने से रोकने में सक्षम थी बालू की दीवार 

सब खत्म हो गया, बन गयी समतल जमीन 

उपेंद्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) : सोन का शोक कई प्रकार का है। सोन में पानी कम होने और बालू खनन अंधाधुंध होने के कारण सोन का डिल्ला समाप्त हो गया और स्थिति यह है कि जहां अब सोन की धार बची हुई है वहां तक पहुंचने में बालू नहीं दिखता। यानी लगभग सोन का तीन किलोमीटर के पाट में अब बमुश्किल एक किलोमीटर धारा से सटा पाट ऐसा होगा जहां बालू दिखता है। एक समय ऐसा था जब महादेव स्थान से थोड़ी दूरी पर ही पश्चिम की ओर जाने पर सोन का बड़ा डिल्ला था। इसे बालू का टीला कह सकते हैं। कई किलोमीटर दक्षिण से उत्तर की तरफ सोन के पूरब दिशा में फैला हुआ था, और इसे शहर में बाढ़ के प्रवेश को रोकने वाली दीवार माना जाता था। अब बाढ़ आना ही नहीं है तो ऐसी दीवारों का काम भी नहीं बचा। धीरे-धीरे यह दीवार भी ढह गई। ध्वस्त होकर समाप्त हो गयी। सब घर मकान व सड़क और अन्य प्रकार के निर्माण में खपत हो गया। समतल मैदान बन गया। सोन का टीला पूरी तरह खत्म हो गया। एक समय था जब इस पर चढ़ने में लोग हांफ जाते थे। युवा और बच्चों को भी सतह से लगातार शीर्ष तक पहुंचना मुश्किल था। बच्चे उस पर चढ़ते थे और फिसलते थे। मजा लेते थे। मौज मस्ती का वह दौर खत्म हो गया। सुबह और शाम टहलने वालों की अच्छी खासी संख्या होती थी जो यहां मस्ती करते थे। 



1980 के दशक में हांफ जाते थे डिल्ला चढ़ने में


पांडेय टोली निवासी एल एन्ड टी कंपनी में चीफ़ हेल्थ, सेफ्टी, ईनवायरमेन्ट डा. विश्व कान्त पाण्डेय कहते हैं कि दाउदनगर के लोग उपमा देते थे कि सोन का बालू ख़तम हो जायेगा तो हो जायेगा किन्तु  फलाने बाबू का धन नहीं ख़तम होगा। किन्तु सोन के बालू का दोहन हो गया और बालू का टीला विलुप्त हो गया। अस्सी के दशक तक बालू के टीला पर चढ़ने में हांफ छूट जाता था। बच्चों को दौड़ कर चढ़ना पड़ता था और कभी कभी हवाई चपल बालू के ढ़ेर में गायब हो जाता था। हम बच्चों की झुण्ड अभिभावकों के साथ घूमने जाते थे। उनके आगे पीछे दौड़ लगाते बाबा भूत नाथ का अर्ध्य परिक्रमा कर लेते थे। फिर शुरू होता डिल्ला अथवा टिल्ला पर चढ़ने का जद्दोजहद। हम चढ़ते और फिसल जाते, हम चढ़ते और बालू के ढ़ेर में फंस जाते। जोरदार ठहाकों के बीच दूसरा धक्का लगाते और ट्रेन चलने की आवाज़ निकालते हुए ऊपर पहुंच जाते।



आम और महुआ का सुगंध अब कहां

अनुमंडल कार्यालय परिसर में टाइपिंग करने वाले सरोज कुमार नीरज बताते हैं कि डिल्ला पर प्रतिदिन जाने की लगभग आदत सी बन गई थी। वहां का आनंद अलग था। युवा होने के बावजूद एक बार में नहीं डिल्ला नहीं चढ़ पाते थे। मौज मस्ती करने के क्रम में आम और महुआ का सुगंध काफी प्रभावित करता था। अब वह सुगंध नसीब कहां है भला। इसके बाद आम का टिकोला और महुआ चुनते थे। अब न डिल्ला बचा न सोन का बालू वाला वितान।

 

खत्म हो गए बाग बागीचे, सोन का पाट भी


पांडेय टोली के अवधेश पांडेय बताते हैं कि काली स्थान व महादेव स्थान के पास काफी बड़ा बाग बगीचा था। आम के पेड़ काफी संख्या में थे। धीरे-धीरे सब कट कर खत्म हो गए। सोन का डिल्ला के साथ बाग बगीचे खत्म हो गए और उसका खामियाजा आम नागरिक को भुगतना पड़ रहा है। सोन का बालू देखने के लिए भी दो दशक पूर्व की अपेक्षा अब तीन किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। अब लंबा चौड़ा बालू से लकदक सोन का पाट भी नहीं दिखता।

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