Thursday 27 April 2023

सोन का शोक 8 : 1400 वर्षों में 25 किलोमीटर तक पश्चिम खिसका सोन

 




मुख्य धारा का सिमटता जा रहा पाट

1766 में दाउदनगर से बारूण तक 30 किलोमीटर तक था घना जंगल

 18 वीं सदी में दाऊद नगर से बारुण तक था घना जंगल 

250 वर्ष लगभग में 90 वर्ग किलोमीटर का जंगल हो गया खत्म

फ्रांसीसी अभियंता लुई फेलिक्स व बेल्गर ने की थी यात्रा

उपेंद्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) :

करीब 1400 बरस में सोन 10 से 25 किलोमीटर पश्चिम खिसक गया। लेकिन बीते तीन से चार दशक में ही करीब दो से तीन किलोमीटर पश्चिम खिसक गयी सोन की धारा। खिसकने के क्रम में सोन जो जमीन छोड़ रहा है उस पर भले खेती हो रही है, लेकिन आने वाले समय में यह नाला से अधिक नहीं रह पाएगा। जबकि कभी विकराल रूप सोन का हुआ करता था। उसका बाढ़ हुल्लड़ कहलाता था और दाउदनगर में महादेव स्थान के बाद डिल्ला शुरू होता था और उसके बाद जलधारा। जहां आज धोबी घाट बन गया है और पानी घुटने भर भी नहीं रहता। अब सोन में स्नान करना हो या सूर्य को अर्घ्य देना हो दो से तीन किलोमीटर अधिक पश्चिम की दिशा में यात्रा करनी पड़ती है। 

दाउदनगर और उसके दक्षिण बारुण तक का इलाका घने जंगल से भरा हुआ था। 1766 में फ्रांसीसी अभियंता लुई फेलिक्स द ग्लास ने लिखा है कि “इस इलाके में सर्वेक्षण करना नितांत असंभव है। अभेद्य वनाच्छादित प्रदेश है। न सडक है न पगडंडी ही”। यानी इस इलाका में तब घनघोर जंगल हुआ करता था। बारूण से दाउदनगर करीब तीस किलोमीटर है, और पूर्व से पश्चिम सोन का इलाका में तीन किलोमीटर मान लें तो करीब 90 वर्ग किलोमीटर में फैला घनघोर जंगल था। तब दाउदनगर का वजूद नहीं था। यह सब जंगल कट गए। खत्म हो गए सब पेड़। आज या तो खेती होती है या आबादी बस गयी है। विशेषज्ञ कहते हैं कि पुनपुन नदी जो वर्तमान में फतुहा में गंगा में मिलती है वह नौबतपुर (पटना के दक्षिण-पश्चिम में) के आगे फतुहा में गंगा में मिलने तक बाल्मिकी कृत रामायणकालीन सोन के पाट का अनुसरण करती है। फल्गु जब गंगा के समानांतर बहना शुरु करती है तो धोवा नाम धारण करती है। सोन की धोवन होने की वजह से ही। सोन जो आज कोइलवर में गंगा में मिलता है उसका प्राचीन प्रवाह और पूरब दिशा से होता था और वर्तमान पटना शहर के बीच से होते हुए गंगा में मिलता था। पूरब में सोनउरा-सोनपुर-मोरहर-दरघा-धोवा-हरोहर से आगे पूरब को सोन कभी नहीं गया। इसी तरह वह पश्चिम में अपने वर्तमान पाट से कुछ पश्चिम तक जा कर रुक गया। 


'बह' और 'तरार' सोन के बहाव के प्रमाण


बाणभटट की कादम्बरी की रचना सोन नद के किनारे स्थित प्रीतिकूट में की गयी थी। इसे स्वयं बाण ने अपना गृह बताया है। यह प्रीतिकूट कोई दूसरा नहीं बल्कि औरंगाबाद जिले के हसपुरा का पीरू गांव ही माना जाता है। ध्यान दें, हर्षवर्धन काल में सोन वर्तमान देवकुण्ड-रामपुर चाय होते हुए प्रवाहित होता था, जिसे दाउदनगर में ‘बह’ कहा जाता है। हर्षवर्धन-वाणभट्ट काल (सातवीं सदी का पूर्वार्ध) में सोन का मार्ग हुआ करता था। वाण के काल का लगभग 1400 वर्ष हो गया। ‘बह’, जहां निरंतर पानी बहा करे। यहां इसे सोन का छाडन कहा जाता है। यानी सोन का बहाव छठी-सातवीं सदी में देवकुंड के निकट था। वहां से लगभग 1400 वर्ष में यह दस से 15 किलोमीटर दाउदनगर के पश्चिम खिसक गया। जे.डी.बेल्गर ने बह का उल्लेख किया है। उसके शब्दों में-‘अधिकारियों द्वारा प्राप्त सूचनाओं और अपने व्यक्तिगत अवलोकन निरुपण के आधार पर मेरा विचार है कि सुदूर अतीत में दाउदनगर के पास तराढ (तराड) गांव के निकट से सोन दक्षिण-पूरब को बहता था। देवकुंड या देवकुढ के टांड की बिल्कुल बगल से होता हुआ रामपुर चाइ और केयाल के सटे आगे बहता था। तराढ या तरार (आर तर या आर पर) का हिन्दुस्तानी में अर्थ होता है नदी की उंची कगार पर बसा हुआ। नाम से ही स्पष्ट है कि यह गांव पहले किसी नदी के उंचे तीर या तट पर बसा हुआ था।


नहर की खोदाई में मिला सोन का पाट 

तराढ से बिल्कुल सटे और इसके तथा दाउदनगर के बीच में सोन नहर के लिए हाल की खुदाई से बिल्कुल साफ हो गया है कि यह इलाका पहले की किसी बडी नदी का पाट था। चाइ और केयाल में पानी के बडे-बडे गड्ढे आज भी मौजूद हैं-संभवतः वे प्राचीन सोन के अवशिष्ट हैं। देवकुंड में हर साल एक मेला लगता है। मैं समझता हूं कि केयाल से सोन उत्तर-पूरब को लगातार बहते हुए सोनभदर गांव के पास पुनपुन का वर्तमान पाट धर लेता था।“ बेल्गर आगे लिखता है- ‘यह स्पष्ट है कि सुदूर अतीत से बुद्ध के निर्वाणकाल तक मेरे इंगित किए हुए रास्ते से बहता हुआ सोन फतुहा के पास गंगा में मिल जाता था।‘ 



फतुआ के निकट गंगा में गिरता था सोन का पानी


उन्नीसवीं सदी में पटना प्रमंडल का अभियंता रह चुका और सडकें बनवाने के सिलसिले में पटना- गया इलाकों के आभियांत्रिक लक्षणों का पूरा ज्ञान हासिल करने वाले एम.पी.बी.डुएल का मत है कि-‘सोन अरवल और दाउदनगर के बीच से अपना पाट छोडकर पटनावाली सडक पार करने के बाद मसौढी के उत्तर पुनपुन का पाट धर लेता था। वहां से उसका कुछ पानी फतुहा के निकट गंगा में मिल जाता था और कुछ पानी मैथवान (वर्तमान नाम-महतमैन) नदी से होकर मुंगेर की ओर बढा जाता था।‘ कौल के मत को ध्यान रखते हुए डुएल के मत में इतना सुधार किया जा सकता है कि फतुहा के निकट का पानी गिरने (या, बेल्गर के मतानुसार, सोन-गंगा-संगम) की स्थिति बुद्धकालीन हो सकती है, बाल्मीकि कालीन नहीं। उनदिनों फतुहा के उत्तर का राघोपुर-दियारा टापू नहीं, मगध की तत्कालीन भूमि का एक खंड था। 




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