बदलता शहर 14
शहर में थी तीन, बची हैं दो नील कोठियां
नील का काम होने के कारण मुहल्ले का नाम- नीलकोठी
उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) :
जब नहरें बनी तो आवागमन आसान हुआ। स्टीमर चलने लगे और पटना आना जाना सहज हो गया। नतीजा अंग्रेजों ने नील उत्पादन के लिए खेती से निर्माण तक का काम करना शुरू किया। नील उत्पादन को शोषण के रूप में ही देखा माना गया है। निलहे आंदोलन की याद आ जाती है। ये गुलामी की प्रतीक हैं। शहर में तीन नील कोठियां बनाई गई थी। वर्तमान वार्ड संख्या छह में नील कोठी मुहल्ला का नाम है। स्वाभाविक है यहां नील उत्पादन का कार्य होता होगा। भखरूआं में बीआरसी. भवन से पूरब वार्ड संख्या 27 और बुधु बिगहा प्राथमिक स्कूल से पूरब एवं बम रोड देवी मंदिर से पश्चिम वार्ड संख्या 16 में बड़ी पक्की नील कोठियों के दो अवषेश स्मृति के रूप में बचे हुए हैं। गड़ही पर भी कहते हैं, एक नील कोठी हुआ करता था, जिसका वजूद अब नहीं बचा है। जमींदोज हो गया है, स्मृति के लिए भी शेष नहीं बचा। वार्ड संख्या 16 में स्थित खंडहर की मापी इस संवाददाता ने स्वयं की है। साथ दिया था तब अनंत प्रसाद ने। दक्षिण से उत्तर करीब 120 फीट लंबा तथा करीब 35 फीट चौड़ा पक्का निर्माण है यहां। पतली लाल ईंटों और चूना-सुर्खी से निर्मित है। कुल चार हौदा साढ़े सोलह फ़ीट के बने हैं। इसी समान आकार में इस निर्माण से करीब चार फीट नीचे भी चार हौदा बना हुआ है। ऊंचाई वाले हौदों में संभवत: 'हचकल’ लगाने के लिए रिंग की तरह का पक्का निर्माण हैं, जो शायद गाद को हिचकोड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। इन चारों हौदों से सटे करीब पांच फीट ज्यादा ऊंचा 44 गुणा 36 फीट में बड़ा गहरा हौदा है, जो नाले के जरिए अपने से सटे हौदों से जुड़ा हुआ है। बुजूर्ग बताते हैं कि कभी बगल में चार कमरों की छावनी थी। बगल में एक कुंआ था। यहीं से नीलकोठी का संचालन होता था। दाऊदनगर गया रोड से उत्तर बीआरसी भवन से पूरब विशाल नीलकोठी का वजूद है। यहां दो कतार में कुल नौ-नौ हौदा पन्द्रह गुणा पन्द्रह आकार के हैं। यहां उत्तर से दक्षिण की ओर यह निर्माण करीब 220 फीट लंबा एवं 40 फीट चौड़ा है। यहां अमीन विजय स्वर्णकार एवं अवधेष कुमार के साथ इस संवाददाता ने मापी की है। छोटे आकारों के हौदों के माथे पर 16 गुणा 48 फीट का विशाल ऊंचा, गहरा हौदा है। दोनों नील कोठियों की निर्माण शैली में थोड़ा अंतर है। नौ-नौ समानांतर हौदों के बीच बड़ा नाला है। ऊंचे-बड़े हौदे से पूरब करीब 100 फीट दूर बड़ा कूंआ है। इस दूरी को पूलों पर टीका बड़ा नाला पाटता है। एक गढढा बगल में है, जिसमें संभवत: बड़ा हौदा जब ओवरफ्लो होता होगा तो तरल रसायन उसके सहारे बहता होगा।
निलकोठियों का निर्माण काल ज्ञात नहीं
बहुत कोशिश के बावजूद इन नील कोठियों के निर्माण से संबंधित तारीख या अन्य सूचना संबंधित शिलालेख नहीं मिला है। इसलिए यह पक्के तौर पर ज्ञात नहीं है कि ये नीलकोठियां वास्तव में बनी कब हैं। इसके लिए व्यापक शोध की जरूरत है। कहीं यह निर्माण 13 सितम्बर 1872 के बाद का तो नहीं, जब मुख्य पटना कैनाल का उदघाटन हुआ था? क्योकिं गोरों के व्यापार का मुख्य रास्ता इन्द्रपुरी-पटना कैनाल ही था। कब तक ये नील कोठिययां गुलजार रहीं, यह भी ज्ञात नहीं है। संभवत: आजादी से पूर्व ही, जब जर्मनी ने कृत्रिम नील का आविष्कार कर लिया था। तभी ये कोठियां गुलजार रही होंगी, कुछ वर्ष बाद तक भी।
नई पीढ़ी को देखने समझने की जरूरत
शहर में बची हुई दो नील कोठियों के अवशेष को इस रूप में विकसित किया जाना चाहिए कि नई पीढ़ी के लोग उसे देख और समझ सके। नीलहे आंदोलन से लेकर नील की खेती और निर्माण को लेकर अंग्रेज भारतीयों का खूब शोषण करते थे। शहरियों का यह सौभाग्य है कि उन्हें इस नील की उत्पादन की पूरी प्रक्रिया को समझने के लिए उनके पास दो नील कोठियां उपलब्ध है। लेकिन वह खंडहर में तब्दील है। यदि उन्हें इस रूप में विकसित किया जाए कि लोग उसे देख सके तो उन्हें समझने का मौका मिलेगा। इन्हें संरक्षित भी किया जा सकता है और पर्यटन के रूप में भी विकसित किया जा सकता है।
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