Friday 17 April 2015

मानसिक स्थिति बदलेगी तभी होगा बड़ा बदलाव
चीन के मुकाबले कभी खडा नहीं हो सकते
नयी सोच के लिए भारत में दरवाजे हैं बंद
लकीर का फकीर बने रहते हैं एशियायी
वहां सेवा फर्ज है तो यहां अहसान
उपेन्द्र कश्यप,  दाउदनगर (औरंगाबाद) : आज प्रवासी भारतीय दिवस है। हम विदेशों के बारे में काफी कुछ सुनते, देखते और जानते हैं। अपने देश के बारे में भी। ज्ञान की इस प्राप्ति के क्रम में कभी आत्महीनता का बोध होता है, तो कभी खुद पर खीझ आती है। खुद से सवाल पूछना पड़ता है कि हम मानव विकास सूचकांक के किस पायदान पर खड़े हैं? कई सवाल आपके जेहन में उठते होंगे। कई पहलुओं पर हमने दो प्रवासी भारतीयों से बात की तो बहुत कुछ फर्क समझ में आया। हमारी और उनकी मिट्टी में ही भिन्नता है।
प्रवासी भारतीय अमरेश मोहन का मानना है कि भारत में नई सोच के आगमन के लिए दरवाजे लगभग बंद रहते हैं। खुलते भी हैं तो देर से, बडी मुश्किल से। सेवा निवृत प्रो.बीके गुप्ता और शिक्षिका निर्मला गुप्ता के पुत्र सिंगापुर में पेपाल के रिस्क मैनेजमेंट एशिया पेसेफिक के निदेशक हैं। यह कंपनी 120 देशों में नेट पर खरीद बिक्री करने वालों के बीच विश्वास कायम करता है। सुरक्षा और सहुलियत के लिए जाना जाता है। विश्व में ऐसा काम करने वाली मात्र दो कंपनी है। इन्होंने विद्या निकेतन से प्राथमिक शिक्षा ग्रहण किया है। बताया कि भारत में समस्या यह है कि नयी सोच के लिए दरवाजे बंद है। आरबीआई का हवाला दिया कि जब भारत में इस तरह के व्यवसाय हेतू बात के लिए गया तो अधिकारी ने कहा मुझे पता है क्या करना है, मेरे कनिष्ठ से बात करिए। जबकि तमाम देशों के अधिकारी पेपाल में सीखने आते हैं। कहा कि हम चीन के मुकाबले कभी खडा नहीं हो सकते। यह संभव नहीं है। काफी फासला है। सिंगापुर हमसे बहुत बाद आजाद हुआ लेकिन आज अपने परिश्रम और अनुशासन के कारण हमसे आगे है। भारत की शिक्षा व्यवस्था में खामिया है। जब विदेशों में शिक्षक को स्टुडेंट अच्छे नहीं बताते तो उन्हें पढाने के कार्य से अलग कर दिया जाता है। पश्चिमी देशों में यह महत्वपूर्ण है कि क्या नया किया जा रहा है। नयी सोच को बढाया जाता है, जबकि एशिया में लकीर का फकीर बने रहने को महत्वपूर्ण माना जाता है। 

स्वीटजरलैंड के ज्यूरिक शहर में विप्रो के सेंट्रल यूरोप मानव संसाधन विभाग के प्रमुख कीर्ति आजाद ने ने फोन पर बताया कि हम कानून, नियम, तरीके तोड़ने में गर्व महसूस करते हैं। बड़ा बदलाव तभी आएगा जब मानसिक स्थिति बदलेगी। सरकार सब कुछ नहीं सुधार सकती। कहा कि यहां विरोधाभासी विकास है, समुचित नहीं। यूरोपीय कंट्री में एक सिस्टम है जो काम करता है। भारत में ऐसा नहीं है। डिलवरी सिस्टम सही ढंग से कार्य नहीं करता। हर जगह भीड़ है, समय की बाध्यता नहीं है। वरिष्ठ चिकित्सक डा. बीके प्रसाद के छोटे पुत्र और विद्या निकेतन के छात्र रहे कीर्ति बताते हैं कि पोलैंड जैसे गरीब और छोटे देश में भी भारत से बेहतर सिस्टम है। ट्रेन-बसें समय से चलती है। वहीं भारत विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है, अंतरिक्ष विज्ञान समेत कई क्षेत्र में तरक्की हुई है लेकिन एक इंडिया है तो दूसरा भारत। जहां न पर्याप्त स्कूल है, न भोजन भर आय का साधन। यहां विरोधाभास है। वहां सेवा बेहतर है क्योंकि इसे फर्ज समझा जाता है और भारत में एहसान का अहसास कराया जाता है। 

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