Sunday 8 January 2017

यहाँ जाति, पैसा और पैरवी का “लाइसेंस”


शहर में विवाद हो गया| माननीय बनाम साहेब विवाद की वजह बनी लाइसेंस| जी हाँ, लाइसेंस| हिन्दी में जिसे अनुज्ञप्ति कहते है| हिन्दी शब्द से स्मरण हो आया कि कल विश्व हिन्दी दिवस है| और यह कड़वा सत्य है कि लाइसेंस को आम अवाम जितनी आसानी से समझता है उसने आसानी से अनुज्ञप्ति को नहीं समझता| खैर, मुद्दा लाइसेंस और विवाद का है| ताजा विवाद के सच समेत अन्य पहलू तो बंद कमरे के माननीय और साहेब जानें, किन्तु अतीत में भी ऐसे विवाद होते रहे हैं, यह सत्य है| निकट के दशक में दो साहबों के किस्से चर्चा में रहे हैं जबकि एक साहब के किस्से अखबारों की सुर्खियाँ तक बनी| लाइसेंस बहुत सारे कामों के लिए चाहिए, जबकि लाइसेंस राज कभी हुआ करता था और वह अब ख़त्म होने की बात कही जाती है| इसके बावजूद हथियार के लाइसेंस की चर्चा अक्सर सही कारणों से नहीं होती है| जिला में तीन साहब अतीत के महत्वपूर्ण उदाहरण बन गये है| एक साहब की चर्चा रही कि अपनी स्वजातीय बंधुओ को खूब मुक्त हस्त से आग्नेयास्त्र के लाइसेंस बांटे| एक साहब तो ट्रांसफर होने के बाद- रेवड़ियों की तरह बांटी गयी हथियार की अनुज्ञप्तियाँ -शीर्षक अपने नाम कराने में सफल रहे थे| खूब साहब ने चर्चा बटोरी| हद हो गयी इतने मशहूर हुए कि दूसरों को रस्क होने लगा होगा| जिला में चर्चा होती है कि प्राय: हथियारों के लाइसेंस साहब अपने ट्रांसफर होने के बाद बैक डेट में लाइसेंस जारी करते हैं या तब अधिक जारी होता है जब जाने की संभावना तय दिखने लगती है| लाइसेंस जाति, पैसे और पैरवी पर ही मिलते हैं, यह रुढ होता गया है| यह साहब हों या सरकार, दोनों के लिए सही नहीं है|


अंत में दुष्यंत कुमार---
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं|
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं||
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो|
ये कँवल के फूल कुम्हालाने लगे हैं||

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