Sunday 15 January 2017

आओ खेलें गांधी-गांधी, चरखा-चरखा !


मेरे बापू की हत्या का वर्षगांठ आने वाला है। इससे पहले कि उनकी बरसी पर लोग मातम मनाते, शहर में हर तरफ उनकी ही चर्चा है। समय से पहले चर्चा में आना बहुत बार अच्छा नहीं होता। भारतीय संस्कृति में गीता में कहा गया है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को नहीं मिलता। शायद इसीलिए जब ऐसा कुछ होता है तो नकारात्मकता का बोध होता है। इस बार बापू की चर्चा सही वजह से नहीं है। हत्या की बरसी पर उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है और कई पहलुओं पर चर्चा होती है। नाथूराम गोडसे, आरएसएस, भाजपा, कांग्रेस और नेहरू की भूमिका और विचार की चर्चा आम होती है। सब एक दूसरे को कोसते हैं। अभी भाजपा के अनिल विज ने ऐसा बीज बोया कि सभी अपने तरीके की फसल काटने में जुट गए। ऐसे बीजों से पूरी खेत खराब हो सकती है। पूरी फसल में कीड़ा लग सकता है। अपने बापू के बारे में कोई भी नकारात्मक टिप्पणी बर्दाश्त नहीं की जा सकती। इसके लिए कोई दूसरा भी विज न बने और गंदा बीजारोपण न करे यह तय होना चाहिए। चरखा काटने वाला कोई भी बापू नहीं बन सकता। ऐसा होता तो लोग सोने के चरखा काटकर कब के बापू को पीछे छोड़ दिए होते। हां, चाय बेचने वाला कुछ भी ठान ले तो बन सकता है। संतरी से मंत्री तक और मुख्य से प्रधानमंत्री तक। इस प्रसंग में एक ‘तुषार पाती’ आई है। कह सकते हैं यह हर उस बार आना चाहिए जब बापू आहत होते हों। ऐसा नहीं कि वे पहली बार आहत हुए है । उनकी पीड़ा का भी राजनीतिकरण नहीं हो इसका ख्याल सबको रखना होगा। नेता और पार्टियां गांधी-गांधी और चरखा-चरखा खेलते रेहेंगे और आम लोग तन ढकने भर सूत के लिए मरते रहेंगे। 10 लक्खा सूट पहनने वाले तो तब भी पहनेंगे, जब चरखा नहीं होगा। और हां, यह सूट सबके पास है। हर खेमे के पास।
अंत में - डॉ. राजीव श्रीवास्तव को पढ़िए - 
बापू के जन्मदिन पर, हम सब शीश नवाते हैं। 
बड़ी-बड़ी बाते करके, सभा में रोब जमाते हैं। 
बापू के आदशरें को, कर याद हम आएं होश में। 
देखो आज क्या हो रहा, बापू तेरे देश में।

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