Wednesday 14 May 2014

बुद्ध के महायान मत को मिली थी भावभूमि



फोटो-मनौरा में ध्यानस्थ बुद्ध की प्रतिमा
पर्यटन मंत्री रहते भी मनौरा का नहीं हो सका विकास
बुद्धिष्ट सर्किट में भी नहीं जुड सका
उपेन्द्र कश्यप,
मगध क्षेत्र की भूमि बौद्ध कालीन इतिहास से आवश्यक रूप से संबद्ध रखती है। यह वही भूमि है जिसने बौद्धधर्म की जड़ को जमीन ही नहीं अपितु खाद-पानी भी प्रदान किया तथा इसके महायान मत को भावभूमि प्रदान कर उसे संपूर्ण हिन्दुस्तान से चीन तक विस्तारित एवं प्रतिष्ठापित किया। इस क्षेत्र के कई ऐसे महत्वपूर्ण स्थान इतिहास के पन्नों में स्थान नहीं पा सके जिनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से बौद्धकालीन इतिहास को नये सफाहात मिल सकते थे। ऐसा ही एक स्थान औरंगाबाद जिलांतर्गत ओबरा प्रखण्ड मुख्यालय से मात्र 6 कि.मी. दूर पूर्व दिशा में पुनपुन नदी के तट पर मरोवां के नाम से विख्यात लेकिन उपेक्षित है, जिसे बुद्ध के जीवनकाल से लेकर ईस्वी सन् के प्रारम्भिक सात शताब्दियों तक के इतिहास से विस्मृत हुए तथ्यों की प्रमाणिकता के लिए अन्वेषण दल की प्रतीक्षा है। यहाँ ध्यानस्थ बुद्ध की छह फीट ऊँची काले पत्थर से निर्मित एक प्रतिमा स्थापित है जो कम-से-कम साढ़े तेरह सौ साल प्राचीन है। औरंगाबाद जिला के देव से विधायक रहे राजद नेता (अब भाजपा में) सुरेश पासवान दो बार राज्य के पर्यटन मंत्री रहे, लेकिन इस क्षेत्र पर उनकी नजर नहीं पडी। वे न तो इसे बुद्द्धिष्ट सर्किट से जोडवा सके, न ही पर्यटन स्थल के रुप में विकसित करा सके। यहां आज भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। ऐसे में जिस स्थान को देश के मानचित्र पर स्थापित होना चाहिए था वह इसकी क्षमता रखने के बावजूद भी उपेक्षित है।
       यह ऐतिहासिक तथ्य है कि ईस्वी सन् के प्रथम सदी में हिन्दुस्तान पर कुषाणों का शासन प्रारंभ हुआ। इसी शासनकाल में अर्थात बुद्ध के पाँच सौ साल बाद ही बौद्ध धर्म में दो मत हीनयान और महायान के रूप में सामने आये। महायान मत में ही- जो कि पूरे हिन्दुस्तान एवं चीन में फैला और इसका श्रेय पहली सदी में जन्में नागार्जून को जाता है- बुद्ध को ईश्वर की मान्यता दी गयी और इनकी साकार रूप में पूजा(उपासना) की जाने लगी। चूंकि बौद्ध धर्म हठवादी नहीं था और अपनी नैतिक पृष्ठभूमि की रक्षा करते हुए किसी भी चीज (सिद्धांत रूप में) से समझौता करना इसकी प्रवृत्ति रही है, फलतः यह धर्म हिन्दुओं के बहुत करीब होता गया। आज इस तथ्य का स्पष्ट साक्ष्य मरोवां प्रस्तुत करता है जहाँ कि बुद्ध प्रतिमा की उपासना हिन्दू धर्म नीतियों के अनुसार की जाती रही है।
मनौरा नहीं मरोंवां
ओबरा के इस गांव का नाम मनौरा नहीं मरोंवां है। कालांतर में अपभ्रंस हो कर वर्त्मान नाम प्रचलित हो गया। यह क्षेत्र मुगल काल में परगना रहा है। यानी प्रशासनिक इकाई। जब दाउदनगर का वजूद नहीं था तब यह अंछा, गोह के साथ इनके समतुल्य ही एक परगना था। इसके नामकरण के पीछे मौर्य वंश से जुडाव भी रहा है। मोर पंख मौर्य वंश का प्रतिक चिन्ह रहा है। यह ऐतिहासिक तथ्य है। मरोवां में कुमारी कन्याएं मोर पहनाव की एक प्रथा का अनुशरण न जाने कब से चली आ रही है। शादी के समय यह प्रथा होती है। मरोंवां का इतिहास सुउफी संत से भी जुडा है। इस पर चर्चा फिर कभी।

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