Sunday 21 May 2017

सामाजिक न्याय वाले अन्याय नहीं करते

बिहार बदल रहा है से अब अधिक समीचीन यह कहना होगा कि सामाजिक न्याय की शक्तियों के हाथ में बिहार बदल गया है| पूरी तरह बदल गया है| इसलिए कि समाजवादी भी बदल गये हैं| उनके संस्कार बदल गए हैं| चीजों को देखने का नजरिया बदल गया है| आगे बढ़ाते हुए नए समाजवादी पौध ने परिभाषा भी बदल दी है| नयी परिभाषा गढ़ने वाले यह मान कर चल रहे हैं कि समाजवादी न गलत थे, न गलत हैं न गलत होंगे| जिनके नाम के आगे पीछे समाजवादी शब्द लग गया है वे भला गलत कैसे कर सकते हैं? वैचारिक लड़ाई लड़ने का दावा करते हुए आदमी भले ही वैचारिक रूप से कंगाल हो गया हो, लेकिन आप ऐसा कह नहीं सकते| वैचारिक विरोध करने वाले दिवालियापन के शिकार बताये जायेंगे| वे सामाजिक न्याय की विरोधी ताकतों के हाथ की कठपुतली बताये जायेंगे| दलाल जैसी उपमाएं दी जायेंगी उन्हें| भला ऐसा कैसे हो सकता है कि कोइ वैचारिक स्तर पर विरोध कर दे| यदि सामाजिक न्याय के झंडाबरदार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को या किसी विचार को दबाएँ, तो यह उनका जन्मना अधिकार है| हा, दूसरे ऐसा नहीं करा सकते| यदि दूसरे करेंगे तो संघी कहे जायेंगे| उन्हें गालियाँ पड़ेंगी, पीटे जायेंगे और हो सके तो वध किए जायेंगे| हाँ, नए समाजवादी संघ के तीखे विरोधी हैं भले ही वे उसी के तर्ज पर ह्त्या को वध बताते हों| पोथी पतरा फाड़ कर फेंकने वाले सोने के सूप से छठ करें तो ढोंग कतई नहीं कहिए अन्यथा यह वैचारिक विरोध आपकी ह्त्या, सो शौरी, वध कका देगा| नए समाजवादी पौध खुद को सर्वाधिक बड़ा झंडाबरदार मानने की ब्राह्मणी जातीय श्रेष्ठता वाली ग्रंथी का शिकार है| कहते हैं न, आदमी किसी व्यक्ति या विचारधारा का अंध विरोध करते करते उसी की तरह का बन जाता है| परिवारवाद, वंशवाद और सघन जातिवाद समाजवाद के नए संस्करण हैं| मरते इंसान की भी पूछ तभी संभव है जब वह जातीय खांचे में फिट बैठे| चाहे पूर्व हो या वर्तमान, प्रतिनिधि इसी नजरिये से मौत को, जानलेवा हमले को देखते हैं|

गोरख पाण्डेय की कविता 'स्वर्ग से विदाई' याद आ रही है-समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई, हाथी से आई, घोड़ा से आई, अँगरेजी बाजा बजाई, नोटवा से आई, बोटवा से आई, बिड़ला के घर में समाई, गाँधी से आई, आँधी से आई, टुटही मड़इयो उड़ाई, डालर से आई, रूबल से आई, देसवा के बाहें धराई, वादा से आई, लबादा से आई, लाठी से आई, गोली से आई, लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई|

खैर, अंत में
डा. कर्मानंद आर्य की ताजा कविता – साहित्य (यहाँ राजनीति पढ़ें) में मैला प्रथा- का अंश पढ़िए और सीख सकें तो सीख लीजिए-

लोगों ने कहा-तुम क्यों लिखते हो, उन जालिमों के खिलाफ जो मनुष्यता के विरोधी हैं| लोगों ने कहा-तुम ऐसा रास्ता क्यों चुनते हो, जो विरोध की तरफ जाता है| लोगों ने कहा- जब तुम एक अंगुली दूसरे की तरफ उठाते हो, कई उँगलियाँ तुम्हारी तरफ उठ चुकी होती हैं| यही करोगे-मरुथल के पेड़ की तरह हो जाओगे| न हरे रहोगे न सूख पाओगे| कवियों (यहाँ राजनीति पढ़ें) के इस चक्रव्यूह में, अभिमन्यु की तरह लड़ रहा हूँ| लड़ रहा हूँ, भिड रहा हूँ| मुझे अपनी हद पता है, एक दिन मारा जाऊँगा| मरने के बाद विद्रोही कहलाऊँगा| पर आवाज लगाऊंगा| 

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