Sunday 30 April 2017

राजनीति के गलियारे में नीति बनाम राज का चल रहा है भयानक संघर


शहर में क्या हो रहा है? कब और कहां हो रहा है? जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है? पत्रकारिता में इस क्यों, कब, कहां से आगे बढ़ते हैं तो यह प्रश्न भी कौंधता है कि कौन? यह कौन कहां है और कौन है यह? आप पाठक जानिए। मैं बताता हूं आज राजनीति के गलियारे का वह सच, जो दिखता नहीं और जो देखते हैं वह जान बुझकर नहीं देखते हैं। अपनी सुविधा के अनुसार देखते हैं, आजाद भारत में सबको अपने तरीके से देखने की आजादी जो है। बात छोटका से करें की बड़का से, यह दुविधा है किंतु तय करने का अधिकार भी आजादी के अधिकार की तरह सुरक्षित है। राज्य के एक बड़े नेता जी आए। कुछ लोग राजनीति में लग गए। अपने स्वार्थ में अपने अनुकूल का प्रशिक्षण स्थल तय किया कराया गया। बड़का नेता जी के स्वागत में छोटका गो नेता जी माला नहीं जुटा पाए। अपने से थोड़ा बड़का के सहारे इस समस्या का समाधान कर लिया। बेचारे बड़का नेता जब खाने बैठे तो गीला भात, पतली दाल और पनछुछुर तरकारी मिला। खाना पड़ा, अन्यथा इज्जत जाती और भूखे रहना पड़ा सकता था, फिर जहां से आए थे लक्जरी गाड़ी से वापस चले गए। रास्ते में उनको खुबियां का लाई काम आया होगा। इससे पहले एक मैच हो रहा था। यहां उपस्थित में सबसे बड़े कद वाले नेताजी के बारे में दूसरे दल वाले नेता जी लोग बोले कि आप जहां है वहीं रही किंतु सक्रिय रहिए। हम सब अभी नेता विहीन महसूस कर रहे हैं। बेचारे नेता जी को कभी उन्हीं के समाज ने क्या-क्या कह कर खारिज किया था। दो-दो बार खारिज किया। स्वजातीय को जीताया और फिर स्वजातीय को पार्टी के बहाने जीताया। अब काहे नेता विहीन महसूस कर रहे हो भाई? सवाल तो उठने लगा है कि वर्तमान से मन नहीं मिल रहा है या कुछ और बात है? भूत और भूतपूर्व में इस उमड़े प्रेम का अर्थ सब कोई अपनी समझ से लगाने को स्वतंत्र है। एक पार्टी ने अपने को मजबूत करने के लिए एक युवा को बड़ा पद दिया। अब दूसरे गुट को बेचैनी हो गई। कहा गया कि कोई कुछ बना ही नहीं है और खबर छप रही है। काहे भैया? बड़का बनाम छोटका की लड़ाई कब तक जारी रहेगी
...और अंत में
डा. कर्मानंद आर्य को अपनी समझ से पढ़िए -
कविता की कचहरी में
हमारे लिखने से कई लोग
संदेह से भर गए हैं कि तुम लिखने कैसे लगे हो
कमजोर है तुम्हारी भाषा
 मटमैले हैं तुम्हारे शब्द।

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