Saturday 28 September 2019

जिउतिया पर जब छपी थी यह रंगीन खबर तो मचा था तहलका-उपेंद्र कश्यप



पहली बार आयी थी इलेक्ट्रोनिक मीडिया, वह भी इंटरनेशनल
फिर तो तांता लगा रहा कुछ साल इलेक्ट्रोनिक मीडिया का
                        0 उपेंद्र कश्यप 0
"लोक संस्कृति का अनूठा उत्सव" इस शीर्षक से चार पन्ने की यह सामग्री जब 17 सितंबर 2000 को पटना से प्रकाशित पाक्षिक पत्रिका “न्यूज ब्रेक” छपी थी, तो मीडिया जगत में तहलका मच गया था। इसके संपादक थे-(अब स्वर्गीय) चंदेश्वर विद्यार्थी सर, जहां श्री सुरेन्द्र किशोर सर और श्री नवेंदु सर से कई मुलाक़ात/बात हुई। तब इस पत्रिका की करीब 100 कॉपी दाउदनगर में चावल बाजार स्थित ‘छात्र युवा एकता संघ’ द्वारा आयोजित नकल प्रतियोगिता के मंच से बांटी गई थी। यह पहला अवसर था, जब जिउतिया की रंगीन तस्वीर छपी थी, साथ में शोधपरक विस्तृत रिपोर्ट। नतीजा इस रिपोर्ट का व्यापक प्रभाव हुआ और जिउतिया अपने कस्बे, जिले से बाहर व्यापक रूप में जाना गया। इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के दिन ही एएनआई (ANI-एशियन न्यूज इंटरनेशनल) के बिहार ब्यूरो प्रशांत झा जी का कॉल आया। तब लैंड लाइन का जमाना था। विवेकानन्द स्कूल ऑफ एजुकेशन (बाजार समिति के सामने) गया, प्रतीक्षा किया और शाम में आने के कारण उनको चावल बाजार में जगन भाई के लैंड लाइन का नम्बर उनको दे दिया। कार्यक्रम तय हुआ और ANI की टीम आई। पहली बार दाउदनगर में जिउतिया को कवरेज करने के लिए टीवी पत्रकार और फोटोग्राफर आये थे, वह भी इंटरनेशनल ब्रांड के लोगो के साथ। यह एजेंसी है, जिसे आप अक्सर टीवी पर रिपोर्ट के वक्त माइक पर ANI लिखा देखते होंगे। इसने कवरेज किया तो टीवी पर कस्बे से लेकर महानगर तक में लोगों ने "दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव" के विभिन्न पक्षों को जिज्ञासा से देखा, समझा। इसके बाद ही औरंगाबाद से वर्ष 2002 में भाई संजय सिन्हा जी (तब ई टीवी, अब न्यूज18) आये और फिर तो कई साल तक टीवी रिपोर्टर आते रहे। सहारा के लिए संतोष भाई और कई चैनल के लिए भाई प्रियदर्शी किशोर श्रीवास्तव आये। जिउतिया के उत्थान में यह एक मील का पत्थर बना। "न्यूज ब्रेक" ने जो ब्रेक जिउतिया लोकोत्सव को दिया, उसने मेरे संपर्क-क्षेत्र को समृद्ध किया।

अब ज़माना बदल गया है। नया दौर है, आभासी-युग है। डिजिटल ज़माना है। सोशल मीडिया मजबूत हो रहा है। अखबार के पन्ने बढ़ गए हैं, रंगीन हो गये हैं। इस बार काफी कवरेज प्रिंट मीडिया में भी दिखा। कंटेंट अलग मुद्दा है। आशा है-आगे भी कवरेज दिखेगा। कुछ लोग मुगालते में जीते हैं, कुछ अपनी क्षमता का आकलन किये बिना मतिभ्रम के शिकार होते हैं। कुछ पूर्ववर्ती या समकालीन को अपने से बेहतर न मानने की जिद-पालन में गलत लिख देते हैं, गलत बताते हैं। उनकी परवाह क्या करना? समय उनको उस किनारे लगा देगा, जहां जा कर उनको कोइ नहीं परखेगा। ऐसे लोग व्यंग्य करते रहेंगे, क्योंकि वे किये हुए काम को नकारने में जुटे हैं ताकि उनको महत्त्व मिलता रहे। ऐसा नहीं होता, यह भी वे नहीं जानते। 
खैर,

(“श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित आलेख की अविकल प्रस्तुति)

जिउतिया का लोक-उत्सव जैसा आप देख रहे हैं, उससे बहुत बेहतर था साल-2000 तक का जिउतिया। छात्र युवा एकता संघ के बैनर तले चावल बाजार में नकल अभिनय प्रतियोगिता के माध्यम से पुरस्कार का वितरण कराया करता था। तब  अनुमंडल स्तरीय तमाम पदाधिकारी एवं ओबरा के विधायक इस मंच की शोभा बढ़ाते थे। विश्व को प्रभावित करने वाली एक घटना इस बीच घटी। अमेरिका स्थित ट्विन टावर को अल कायदा ने ध्वस्त कर पूरी दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया। ठीक उसी वक्त (9/11) यहां जिउतिया समारोह में दो आयोजकों के बीच मारपीट तीसरे पक्ष के कारण हुई और एक युवक की मौत हो गई। इस पूरे मामले में जहां राजनीति को संस्कृति का ख्याल रखते हुए सकारात्मक कदम उठाना चाहिए था, वहीं घटिया राजनीति की गई। एक शख्स ने मुझे इस हत्या कांड में फंसाने की कोशिश की और भाकपा माले ने इसे- यादवों के गुंडा गिरोह द्वारा की गई हत्या- बता कर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने का अवसर बना लिया। जब कि इस हत्याकान्ड में आरोपी बनाये गये छः में मात्र तीन यादव थे और अन्य तीनों भाकपा माले के वैसे सदस्य जो उसकी गोपनीय बैठक तक में शामिल होते थे। जिस तरह की राजनीति की गई उससे वितृष्णा का जन्म हुआ और फिर खुद को इस लोकोत्सव से अलग कर लिया। अपना दायरा समेट लिया और उसे सिर्फ लेखन तक सीमित कर दिया। नतीजा जिस जिउतिया को चरम तक ले जाने की मैनें कोशिश की उसे ही किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर सिमटते देखता रहा। इससे आत्मिक कष्ट होने लगा। इससे राजनीतिक, सामाजिक जटिलताओं को समझने का अवसर मिला। पुलिस के दलालों (तीन) ने मेरा यह ज्ञानवर्धन किया कि वास्तव में दलाल किसी के नहीं होते। मेरे साथ सच का साथ देने को खडे़ थे कुछ प्रशासनिक अधिकारी और पुलिस अधिकारी। कुछ प्रबुद्ध लोग और अन्य। तब मेरे पास पुख्ता सबूत थे कि मैं घटना के वक्त पटना से आये एशियन न्यूज इंटरनेशनल (एएनआई) के बिहार ब्यूरो प्रशांत झा के साथ था, और घटना की सूचना मैंने ही मध्य रात्रि को जिला प्रशासन को दिया था। खैर, इस दौर में कई रोज भूमिगत जीवन जीना पड़ा। उसकी पीड़ा मेरे इतिहास की थाती है, उसे अभी नहीं छेड़ना। दिल कचोटता था और अंततः खुद को रोक न सका और फिर धीरे-धीरे सक्रिय भूमिका निभाने लगा।
वर्ष- 2000 मील का पत्थर मात्र नहीं वरन, जिउतिया के ऐसा पड़ाव बन गया है, जिसकी चर्चा के बिना जिउतिया लोकोत्सव का इतिहास नहीं लिखा जा सकता। पहली बार पटना से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक न्यूज ब्रेकके 17 सितंबर 2000 के अंक में इस संस्कृति को व्यापक कवरेज मिला। मेरी चार पन्ने की 
स्टोरी दाउदनगर का विशिष्ट जिउतिया त्योहार-लोक संस्कृति का अनुठा उत्सव- प्रकाशित हुई। इससे पहले रंगीन और इस स्तर का कवरेज कभी नहीं मिला था। इसने पटना में इलेक्ट्रोनिक मीडिया को काफी हद तक प्रेरित किया और इसी कारण ए.एन.आई की टीम यहां मेरे पास जिउतिया उत्सव को कवरेज करने आयी। इसके बाद ही ई.टीवी, सहारा जैसे क्षेत्रीय चैनल यहां कई बार कवरेज करने आये। साल 2000 में ए.एन.आई का आना और न्यूज-ब्रेक का कवरेज करना खासा महत्वपूर्ण था। तब इतना सहज और सुलभ उपलब्ध नहीं था मीडिया जितना कि आज है। तब दैनिक जागरण का प्रकाशन बिहार से प्रारंम्भ नहीं हुआ था। इसके आगमन के बाद ही अखबारों का स्थानीयकरण प्रारंभ हुआ, 12 पेज वाले अखबार 16 पेज के हो गये और रंगीन भी। अन्यथा रंगीन सिर्फ साप्ताहिक परिशिष्ट ही हुआ करते थे। आजके ताना-बाना और दृष्टि जैसे रंगीन परिशिष्ट में मेरे कई आलेख प्रकाशित हुए। तब बिहार में हिन्दुस्तान और आज ही प्रमुख अखबार थे, आर्यावर्त की जगह नहीं बन सकी थी, यद्यपि उसने भी मेरे आलेख प्रकाशित किये। इससे यह स्थापित करने में मदद मिली कि जिउतिया भले ही पूरे हिन्दी पट्टी में मनाया जाता है किंतु दाउदनगर का खास है। इसमें सबसे बड़ी भूमिका दैनिक जागरण अखबार की रही। 2001 से प्रकाशन प्रारंभ हुआ और इसी साल इसके परिशिष्ट अपना प्रदेश में करीब आधे पन्ने पर -11 सितंबर 2001 को मेरा आलेख- जिउतिया के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आज भी जीवंत- शीर्षक से प्रकाशित हुआ। पूरे बिहार में। ऐसे कई अवसर इस अखबार के माध्यम से मिला। बाद में तो शायद ही कोई साल रहा होगा जब जिउतिया के अवसर पर दैनिक जागरण से अधिक किसी ने इस संस्कृति को कवरेज दिया हो। निरंतर दस-बारह आलेख, खबरें प्रकाशित होते रही है। एक वाकया बताता हूं। जब 1996 में मैं इस संस्कृति पर आधारित लोकयान के निष्कर्ष पर कसा हुआ एक खोजी आलेख लेकर हिन्दुस्तान के पटना कार्यालय गया था। वहां जिउतिया पर आलेख दिया तो साहित्य संपादक अनिल विभाकर ने कहा कि जिउतिया तो पूरे हिन्दी पट्टी में होती है फिर तुम क्या खास इस पर लिखोगे। उन्होंने नोटिस नहीं ली। हालांकि बाद में मैं लगातार लिखता रहा, और राज्य के तमाम अखबारों में मेरे आलेख हर साल छपते थे। हिन्दुस्तान छोड़कर। हां, यहां यह बता दें कि हिन्दुस्तान में भी मेरे दर्जन भर आलेख प्रकाशित हुए हैं, जिसमें जिउतिया पर केन्द्रित आलेख शामिल नहीं है। दैनिक जागरण की आपत्ति के बाद हिन्दुस्तान के लिए प्रासंगिक या समीचीन विषयों पर लिखना छोड़ दिया था।

यह सब उपलब्धि यूं ही नहीं मिली थी। मेरी पत्रकारिता की यात्रा 1994 अक्टूबर में प्रारंभ हुई थी। जब 1995 में जिउतिया का पर्व आया तो मुझे प्रेरणा मिली कि यह मेरे लिए अवसर हो सकता है। आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्ठमी तिथि को जिउतिया मनाया जाता है। यहां यह पहली तिथि से प्रारंभ हो जाता है। मैं कई सप्ताह पूर्व गलियों में घुमने निकला। जमीन पर जिउतिया खोज रहा था। लोहा जी” ( लोहिया जी) समेत कई बूजूर्गों से मिला। उनसे बात की। इधर रोजाना लोक संस्कृतियों पर साहित्य का अध्ययन करता रहा। जिसमें बडी दृष्टि मिली सापेक्ष के लोक संस्कृति विशेषांक से। इसके बाद पहली बार 1995 में डाल्टनगंज से प्रकाशित दैनिक अखबार राष्ट्रीय नवीन मेलमें आठ कालम में आधे पेज का मेरा विश्लेषण प्रकाशित हुआ। इसके बाद ही इस लोकोत्सव में फोकलोट के सभी चार आयामों की प्रचुरता से उपस्थिति को मान्यता मिली। यह पहला अवसर था जब इस लोक संस्कृति के सभी चार आयामों यथा लोक कला, लोक साहित्य, लोक व्यवहार एवं लोक विज्ञान की विवेचना की गई। इसके बाद हर साल यह काम होता रहा। नई नई बातें सामने लाता। अन्यथा मात्र बम्मा देवी, प्लेग और आयोजन से अधिक गहरे उतरने की कोशिश कभी नहीं दिखी थी।
आज जिउतिया जो है उसे पुनः वर्ष 2000 से बेहतर स्थिति में लाना शायद मुश्किल है, लेकिन इसे लाना होगा। इमली तल विद्यार्थी चेतना परिषद जैसे पुराने संगठन हों या एकदम नया आयोजक बने पुराना शहर का ज्ञान दीप समिति के प्रयास, इसे और आगे ले जाना होगा। जैसे नकल अभिनय प्रतियोगिता के आयोजकों ने इस संस्कृति से फुहड़पन और अश्लीलता को न्यूनतम किया है वैसे ही इसे परिष्कृत करने के साथ और उंचाई तक ले जाने का प्रयास निरंतर जारी रखना होगा। 

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