Saturday 21 September 2019

जिउतिया मतलब दाउदनगर का लोकोत्सव : ऐसा और कहीं नहीं

जिउतिया, जितिया या जीवित्पुत्रिका व्रत यूं तो हिंदी पट्टी का एक पर्व है, जो आश्विन कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि (इस बार 22 सितंबर 2019) को मनाया जाता है किन्तु, बिहार ही नहीं अपितु पुरे भारत में इस पर्व को जिस तरह औरंगाबाद जिले के दाउदनगर शहर में मनाया जाता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं होता है। इस बार इस लोकोत्सव पर शोध करने, किताब लिखने और नयी ऊँचाई-पहचान देने वाले लेखक-उपेंद्र कश्यप-से बातचीत पर आधारित मीडिया दर्शन की विशेष प्रस्तुति-


*जितिया जे अईले मन हुलसईले, नौ दिन कईले बेहाल रे जितिया....*

जिउतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत माताएं अपने संतान की दीर्घायु होने की कामना को लेकर मनाती हैं। बिहार के औरंगाबाद जिला का दाउदनगर शहर इसे लोकोत्सव के रूप में मनाता है, न कि सिर्फ व्रत या पर्व के रूप में। इसका ऐसा स्वरूप और कहीं नहीं मिलता, जैसा दाउदनगर में है। यहाँ इसे नकल, या कहें स्वांग-समारोह के रूप में मनाया जाता है। लगता है जैसे पूरा शहर ही भेष बदलो अभियान पर निकल चुका। क्या बच्चे और क्या बूढ़े, किसी में कोइ फर्क नहीं रह जाता। सब नया रूप धर कर सामने आते हैं। राजस्थान की स्वांग कला को यहाँ के कलाकार मात देते दिखते हैं। ऐसी-ऐसी प्रस्तुतियां जिसे देखकर दर्शक दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। आँखें आधी प्यासी रह जाती हैं, और देखने की ललक बढ़ जाती है। खतरनाक प्रस्तुतियां भी होती हैं। शहर इसीलिए तो गाता है–‘धन भाग रे जिउतिया, तोरा अइले जियरा नेहाल रे जिउतिया, जे अइले मन हुलसइले, नौ दिन कइले बेहाल, रे जिउतिया ...” और जब पर्व खत्म होने को होता है तो लोग विरह की वेदना महसूस करते हैं-“देखे अइली जिउतिया, फटे लागल छतिया, नैना ढरे नदिया समान। जान तोहे बिन घायल हूं पागल समान...।“ यह बताता है कि दाउदनगर वासियों के लिए जिउतिया क्या है? यहाँ गाये जाने वाला झूमर बताता है कि जिउतिया जिउ (ह्रदय) के साथ है-

दाउदनगर के जिउतिया सरेनाम हई गे साजन

दाउदनगर के जिउतिया जिउ के साथ हई गे साजन,

कहाँ के दिवाली, कहाँ के दशहरा गे साजन,

कहवाँ के जिउतिया कइले नाम हई गे साजन

दिल्ली के दिवाली, कलकता के दशहरा गे साजन

दाऊदनगर के जिउतिया कइले नाम हई गे साजन

 बिहार को प्रतिनिधि संस्कृति की खोज: श्रमिक जातियों की श्रमण संस्कृति से परहेज:-
'बिहार के विभाजन के बाद छउ नृत्य झारखंड की प्रतिनिधि संस्कृति बन गई। बिहार अब भी किसी लोक संस्कृति को यह दर्जा नहीं दे सका है। उसे छठ संस्कृति में ही यह क्षमता दिखती है। सरकार को बहुजनों की श्रमण संस्कृति में प्रतिनिधित्व का गुण नहीं दिखता। जबकि बहुजनों की इस लोक संस्कृति में वह क्षमता है।' यह दावा “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में उसके लेखक उपेंद्र कश्यप ने किया है। कहा कि-'चूँकि इस लोकोत्सव में श्रमण संस्कृति से जुड़ी जातियां, अर्थात श्रमजीवी समाज की सहभागिता होती है, शायद इसी कारण इस ओर कोइ ध्यान नहीं देता। दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव को राजकीय दर्जा दिलाने की मांग को लेकर प्रयास जारी है।' स्वयं उपेंद्र कश्यप ने मंत्री, विभागीय सचिव तक को ज्ञापन दिलवाया है। धर्मवीर फिल्म एंड टीवी प्रोडक्शन के निर्देशक धर्मवीर भारती ने कला संस्कृति संसदीय समिति के सदस्य सह सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव (अब पूर्व) से मिलकर क़रीब डेढ़ घंटे की लंबी चर्चा की। उन्हें उपेन्द्र कश्यप लिखित ‘श्रमण संस्कृति का वाहक दाउदनगर' के साथ दो पेज में इस संस्कृति का सिंहावलोकन और राष्ट्रीय स्तर के फ़िल्म फेस्टिवल में स्पेशल ज़्यूरी अवार्ड विजेता डाक्यूमेंट्री फ़िल्म "जिउतिया : द सोल ऑफ कल्चरल सिटी दाउदनगर" की डीवीडी भेंट की। बिहार के मंत्री शिवचंद्र राम को भी ज्ञापन दिया गया था।

नगर पंचायत की कोशिश को नगर परिषद लगा रहा पलीता:-
नगर पंचायत दाउदनगर ने 2016 में “दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव” का आयोजन किया था। उपेंद्र कश्यप की पहल पर तत्कालीन मुख्य पार्षद परमानंद प्रसाद, उप मुख्य पार्षद कौशलेन्द्र कुमार सिंह और कार्यपालक पदाधिकारी विपिन बिहारी सिंह ने यह आयोजन कराया था। जिसमें वार्ड पार्षद बसंत कुमार और (अब स्वर्गीय) मुन्ना नौशाद ने महती भूमिका निभाया था। इसके बाद नगर पालिका का वजूद ख़त्म हो गया। वर्ष 1885 में नगर पालिका बना शहर तब नगर पंचायत था। नगर परिषद् में उत्क्रमित होने के साथ स्थिति बदल गयी। बोर्ड भंग हो गया और चुनाव न होने की स्थिति में अनुमंडल पदाधिकारी अनीश अख्तर ने रूचि नहीं ली। लोक संस्कृति से जुड़े तमाम लोग उनसे आग्रह करते रहे किन्तु वे अपनी जिद पर अड़े रहे, नतीजा 2016 में आगाज परंपरा की गर्भ में ही ह्त्या कर दी गयी और फिर आया 2017 का साल। जून में नगर परिषद् का गठन हुआ, चुनाव हुआ, बोर्ड बना, लेकिन आयोजन से इनकार कर दिया गया। मंच से घोषणा की गयी कि 2019 में आयोजन अवश्य होगा, किन्तु नहीं किया जा रहा। चर्चा तो है कि दो या इससे अधिक लोगों की जिद के कारण आयोजन नहीं हो रहा है। एक तरह से बोर्ड ही हाइजैक हो गया है। दुखद यह है कि जो इस संस्कृति का हिस्सा हैं, उनकी बहुसंख्या उनके आगे नतमस्तक है जिनकी कोइ भागीदारी इस लोकोत्सव में होती ही नहीं है। यदि नगर परिषद लोकोत्सव का आयोजन करते रहता तो एक दिन सरकार को भी आगे आना पड़ता। प्रतिनिधि संस्कृति का दर्जा न भी मिलता तो हम राजकीय समारोह तक की यात्रा पुरी कर सकते थे। किन्तु जब घर के ही लोग विरोध में टांग खींचने को खड़े हों तो बाहर वाले से क्या अपेक्षा कर सकते हैं?

159 साल से अधिक पुराना है दाउदनगर की जिउतिया संस्कृति:-
एक लोक गीत बताता है कि जिउतिया लोक संस्कृति कितनी पुरानी है। किसी भी लोक संस्कृति का प्रारंभ किन लोगों ने कब किया यह ज्ञात शायद ही होता है। मगर जिउतिया संस्कृति के मामले में कुछ अलग और ख़ास है।“ आश्विन अन्धरिया दूज रहे, संबत 1917 के साल रे जिउतिया। जिउतिया जे रोपे ले हरिचरण, तुलसी, दमडी, जुगुल, रंगलाल रे जिउतिया। अरे धनs भाग रे जिउतिया...।“ कसेरा टोली चौक पर गाया जाने वाला यह गीत स्पष्ट बताता है कि पांच लोगों ने इसका प्रारंभ किया था। किन्तु, सवाल यह है कि क्या वास्तव में किसी लोक संस्कृति का ऐसे प्रारंभ होता है? बीज तो कहीं और होगा? स्वयं कसेरा समाज के लोग यह मानते हैं कि उनके पूर्वजों ने इमली तल का नकल किया था। यानी संबत 1917 या इसवी सन 1860 से पहले इमली तल जो होता था उसका देखा देखी कांस्यकार समाज ने अपने मोहल्ले में शुरू किया। तब यह समाज आर्थिक रूप से संपन्न था। स्वाभाविक रूप से यह संभव दिखता है कि तब शिक्षा भी इस समाज में पटवा, तांती समाज के अपेक्षाकृत अधिक होगी। नतीजा यहाँ साहित्य रचा गया और बाद में कभी यह गीत लिखा गया कि-जितिया जे रोप ले हरिचरण, तुलसी, दमड़ी, जुगुल, रंगलाल रे जितिया.. । लोक संस्कृति के रूप में कोइ भी बीज धीरे-धीरे सामूहिक प्रयासों और लोक सहभागिता से विकसित होता है। आज इस संस्कृति ने कई प्रकार के निरंतर प्रयासों से अपनी पहचान स्थापित किया है।

कैसे हुआ संस्कृति का बीजारोपण:-
इस संस्कृति का बीजारोपण कैसे हुआ होगा? लोक स्मृतियों में जो रचा बसा है उसके अनुसार- कभी प्लेग की महामारी को शांत करने की तत्कालीन समाज की चेष्टा से इस संस्कृति का जन्म हुआ। इसमें कामयाबी भी मिली। लेकिन तब एक महीना तक जो जागरण हुआ वह निरंतरता प्राप्त कर संस्कृति बन गई। पूरा वृत्तांत आप “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” पुस्तक में पढ़ सकते हैं। तब तत्कालीन समाज ने दक्षिण या पश्चिम भारत से ओझा, गुणियों को आमंत्रित किया, दैवीय प्रकोप माने गए प्लेग की महामारी को रोकने के लिए। वे आये और इसे शांत किया, जिसमें जादू-टोना, समेत कई कर्म किये गए। एक माह तक चले इस प्रयास ने परंपरा को जन्म दिया जो कालान्तर में संस्कृति बन गयी। बाद में यह नौ दिन और अब मात्र तीन दिवसीय संस्कृति में सिमट गया। यह हर साल आश्विन कृष्णपक्ष अष्ठमी को मनाया जाता है। यहां लकडी या पीतल के बने डमरुनूमा ओखली रखा जाता है। हिन्दी पट्टी में इस तरह सामूहिक जुटान पूजा के लिए कहीं नहीं होता। यहां शहर में बने जीमूतवाहन के मात्र चार चौको (जिउतिया चौक) पर ही तमाम व्रति महिलायें पूजा करती हैं। इस संस्कृति में फोकलोट अर्थात लोकयान के सभी चार तत्व यथा लोक साहित्य, लोक कला, लोक विज्ञान और लोक व्यवहार प्रचुरता में उपलब्ध हैं। तीन दिन तक होने वाली प्रस्तुतियों में इसे देखा जा सकता है। सरकार बहुजनों की इस लोक संस्कृति के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं कर रही है। सिर्फ प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। लोक अपने तंत्र (सरकार) से कुछ नहीं लेती। न सुरक्षा मांगती है न साधन। न तनाव देती है न बवाल। लोग अपने में मस्त रहते हैं, मस्ती करते हैं और दूसरों को इतना मस्त कर देते हैं कि वे मन-मस्तिष्क को तृप्त किये बिना ही लौट जाते हैं। दूर-दूर से लोग यहाँ जिउतिया देखने आते हैं।                                       

कौन थे भगवान जीमुतवाहन ?
दाउदनगर में जिस जीमूतवाहन की पूजा बहुजन करते हैं वास्तव में वे राजा थे। उनके पिता शालीवाहन हैं और माता शैब्या। सूर्यवंशीय राजा शालीवाहन ने ही शक संवत चलाया था। इसका प्रयोग आज भी ज्योतिष शास्त्री करते हैं। इस्वी सन के प्रथम शताब्दी में 78 वे वर्ष में वे राज सिंहासन पर बैठे थे। वे समुद्र तटीय संयुक्त प्रांत (उडीसा) के राजा थे। उसी समय उनके पुत्र जीमूतवाहन की पत्नी से भगवान जगन्नाथ जी एवं इनके वाहन गरुण से आशीर्वाद स्वरुप जीवित्पुत्रिका की उत्पत्ति हुई। इसी का धारण महिलायें अपने गले में करती हैं।

 पटना के उइया रे सूइया, गया के हइ दरजिया इयार:-
दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव एक मामले में काफी समृद्ध है कि इसे अपना अलोक साहित्य उपलब्ध है। जिउतिया के गीत बडे सरस हैं। इसमें स्थानीय इतिहास, भूगोल और विशेषताओं को भी प्रयाप्त जगह मिली है। साहित्य इस्द लोकोत्सव के बारे में बहुत कुछ बता देता है। झूमर में गाते हैं- -दाऊदनगर के जिउतिया सरनाम हई गे साजनदाऊदनगर के जिउतिया जीव के साथ हई गे साजन! कहाँ के दिवाली, कहाँ के दशहरा गे साजन, कहवाँ के जिउतिया कइले नाम हई गे साजन दाऊदनगर..दिल्ली के दिवाली, कलकता के दशहरा गे साजन, दाऊदनगर के जिउतिया कइले नाम हई गे साजन, दाऊदनगर के ..... झूमर में विविधाता होती है, रंगीनी होती है और मधुरता भी- -दूर देसे नोकरिया के रे जइहें के जइहें हाजीपुर, के जइहें पटना, के रे जइहें, दूर देसे नोकरिया के रे जइहें बाबा जइहें हाजीपुर, भइया जइहें पटना, सइयाँ जइहें, दूर देसे नोकरिया सइयाँ जइहे, के लइहें बाजूबंद, के लइहें कंगना, के रे लइहें, छतिया दरपनवा के रे लइहें, बाबा लइहें बाजूबंद, भइया लइहें कंगना, सइयाँ लइहें, छतिया दरपनवा सइयाँ लइहें। यहां का परवर काफी मशहूर है। तब भी था और हाजीपूर तक की मंडियों में इसे बेचने यहां के लोग जाते थे। तब पटना नहर में स्टीमर की यात्रा होती थी। देखिये-- ए राजा जी परवर बेचे जायम हाजीपुर परवर बेच के पायल गढ़ायम, पायल हम पहिरम जरूर, ए राजाजी परवर बेचे जायम हाजीपुर एक रंगीन मिजाज का झूमर देखिये। तब भी समाज किस तरह खूला हुआ था जब प्रेम की बातें भी खूब होती थी। -नैना बिदुल हे कहवाँ से आवेला इयार, कहवाँ से आवेला बारि बियहुआ, बारि बियहुआ नैना बिदुल हे कहवाँ से आवेला इयार, पूरबा से आवेला बारि बियहुआ, बारि बियहुआ, नैना बिदुल हे पछिमा से आवेला इयार, श्यामसून्दर बनिया के जा (बेटी), हई रे मनीजरवा, एहि परि गंगा, ओहि पारे जमुना, के मोरा घइला अलगा, हई रे मनीजरवा, घोड़वा चढ़ल आवे राजाजी के बेटवा, ओहि मोरा घइला अलगा, हई रे मनीजरवा,क हवाँ के उइया रे सूइया, कहवाँ के दरजिया इयार, पटना के उइया रे सूइया गया के हइ दरजिया इयार। अइसन चोलिया सीलिहें दरजिया, दूनो मोरवा करे गोहार, पटना के उइया रे सूइया, गया के हइ दरजिया इयार।

 जातीय पहचान से जुडी है चौकें:-
शहर में जिउतिया के सभी चार चौकें जातीय पहचान से जुडी हुई हैं। सबसे पुराना इमली तल पटवा टोली में है। इससे तांती समाज की पहचान जुडी हुई है। इसई तरह कसेरा टोली चौक से कसेरा जाति की। यहां आयोजक भी यही जातियां हैउं और संरक्षक भी। इसी तरह पुरानी शहर चौक जो पुराना सोनारपट्टी है से इस जाति के लोग जुडे हैं। बाजार चौक व्यवसायिक गतिविधियों का अड्डा है सो इससे वैश्य समाज जुडा हुआ है। पुराना शहर और बाजार चौक से दूसरी जातियों की भी सहभागिता है। दोनों जगह आयोजन में मिश्रित जातियां शामिल हैं।

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