Saturday 14 September 2019

लोक संस्कृति का प्रतिनिधि जिउतिया उत्सव


 “जिउतिया हिन्दी पट्टी क्षेत्र का एक त्यौहार हैं किन्तु बिहार के दाउदनगर में यह नौ दिवसीय लोकोत्सव है, जिसमें-स्वांग, नकल, अभिनय और झांकी की प्रस्तुति बड़े पैमाने पर होती है। व्यापक स्त्री भागीदारी विमर्श को नया आयाम देती है। फोकलोट के सभी तत्वों की इतनी व्यापक प्रस्तुति और कहीं नहीं----“
अहा जिन्दगी के 15.09.2019 के अंक में प्रकाशित 

लोकयान के सभी तत्वों की प्रतिनिधि संस्कृति : दाउदनगर-जिउतिया लोकोत्सव
० उपेंद्र कश्यप०
‘श्रमण संस्कृति का वाहक : दाउदनगर’ किताब के लेखक एवं स्थानीय इतिहास के जानकार

यूं तो जिउतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत पुरे हिन्दी पट्टी क्षेत्र में मनाया जाता है। किन्तु बिहार के दाउदनगर में इसका अलग स्वरूप और अंदाज है। यहाँ यह नौ दिवसीय लोकोत्सव है, जो न्यूनतम वर्ष 1860 से आयोजित हो रहा है। यह अकेला ऐसा पर्व है जो लोक संस्कृति की संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए बने शब्द “फोकलोट” (इसे लोकायन या लोकयान भी कहते हैं) के सभी चार तत्वों की एक साथ प्रचुरता में प्रस्तुति देखने का अवसर हर वर्ष आश्विन कृष्ण पक्ष में उपलब्ध कराता है। यह पर्व आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को होता है। इस बार यह व्रत 21 सितंबर दिन शनिवार को है। डॉ. अनुज लुगुन- सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया ने इस उत्सव में स्त्री भागीदारी पर लिखा है-आमतौर पर हिंदी पट्टी में स्त्रियों की सार्वजनिक भागीदारी बहुत कम दिखती हैयहां तक कि प्रगतिशील संगठनों के कार्यक्रमों में भीयह हिंदी पट्टी का सामंती और पितृसत्तात्मक लक्षण हैलेकिन, दाउदनगर के जिउतिया त्योहार में स्त्रियों की बराबर की उपस्थिति विचार करने को विवश करती है

लोक और संस्कृति की व्यापक अभिव्यक्ति के लिए एक शब्द है-लोकायन या लोकयान या फोकलोट। नृतत्वशास्त्री लोकयानके अंतर्गत चार खंड बताते हैं। लोक-साहित्य, लोक-व्यवहार, लोक-कला या कलात्मक लोकयान, और चौथा लोक-विज्ञान व औद्योगिकी है। जिउतिया लोक संस्कृति में इन चारों की उपस्थिति प्रचुरता के साथ है। ऐसा बिहार की अन्य संस्कृतियों के साथ नहीं है।
० अपना मौलिक, समृद्ध व मौखिक (कुछ लिखित) लोक साहित्य है। इसमें लोक जीवन का दुख दर्द, हर्ष उल्लास का अनुभव तथा जीवन पर वैचारिक प्रतिक्रियायें मिलती हैं। पर्व-त्योहारों, देवी-देवताओं तथा प्रकृति के विविध रुपों का चित्र मिलता है। साहित्य वाचन परंपरा में झुमर, लावनी, मुहावरे या वीरता के गीत के रूप में जीवित है। चकड़दम्मा, झुमर में विविधता, रंगीनीयत और मधुरता होती है। सरस गीत हैं, जिसमें स्थानीय इतिहास, भूगोल और विशेषताओं को भी प्रयाप्त जगह मिली है।
० लोक-व्यवहार न तो साहित्य है न ही कला, इसमें विश्वास, प्रथा, अन्धविश्वास, कर्मकांड, लोकोत्सव, परिपाटी शामिल है। यहां का समाज इससे गहरे जुडाव रखता है। जिउतिया से जिउ के समान जुडे जमात में यह कुट-कुट कर भरा हुआ है।
० लोक-कला या कलात्मक लोकयान में लोक नृत्य, लोक-नाट्य, लोक-नटन, लोक चित्र, लोक- दस्तकारी, लोक वेषभूषा व लोक-अलंकरण शामिल हैं। यहाँ की मिट्टी के कण-कण में कला है तो हर शख्स कलाकार। उर्वरता इतनी कि भर जिउतिया समारोह सब कलाकार बन जाते हैं। ये अप्रशिक्षित लोक कलाकार मंझे हुए प्रशिक्षित व प्रोफेशनल कलाकारों को चुनौती देते दिखते हैं। बच्चे ही कलाकार, निर्देशक, पटकथा लेखक, स्त्री-पुरुष पात्र सब वही हैं।
० चौथा और अंतिम समावेश लोक-विज्ञान व औद्योगिकी का है, जिसमें लोकोपचार, लोकौषधियां, लोक नुस्खे, लोक भोजन खाद्य, लोक कृषि रुढियां, जादू टोने शामिल हैं। यहां जब लोक कलाकार अपनी खतरनाक प्रस्तुति देते हैं तो उसमें नुस्खे और लोकौषधियों की उपयोगिता होती है। शरीर में चाकू-छूरी घुसाना हो या फिर दममदाड, डाकिनी, ब्रह्म, काली, गर्म लौह पिंड या दहकते जंजीर को दूहने की प्रस्तुति।

1860 से पहले किन्तु, कब से यह परंपरा:- 
कसेरा टोली चौक पर प्रस्तुत होने वाले एक लोक गीत की पंक्ति है- आश्विन अंधरिया दूज रहेसंवत 1917 के साल रे जिउतिया, जिउतिया जे रोपे ले, हरिचरणतुलसी, दमड़ी, जुगुलरंगलाल रे जिउतियाअरे धन भाग रे जिउतिया। तोहरा अहले जिउरा नेहालजे अहले मन हुलसइलेनौ दिन कइले बेहाल... । इससे यह स्पष्ट होता है कि हरिचरण, तुलसी, दमड़ीजुगुल और रंगलाल ने इसका प्रारंभ संवत 1917 अर्थात 1860 .सन में किया था। क्या ऐसे किसी लोक संस्कृति का जन्म होता है? शायद नहीं! इस जाति विशेष के पूर्वज भी मानते हैं कि- इमली तल होने वाले जिउतिया लोकोत्सव का नकल किया गया था। इसी कारण इस उत्सव में ‘नकल’ (अर्थात देख कर उसकी नकल करना) खूब होता है। हालांकि इमली तल कब से हो रहा था, इसका कोइ प्रमाण लोक गीत में भी नहीं मिलता। करीब 60 हजार आबादी वाले नगर निकाय दाउदनगर में जीमूतवाहन भगवान के चार चौक बने हुए हैं और यहीं सार्वजनिक और सामूहिक रूप से स्त्रियाँ व्रत करती हैं। व्रत कथा सुनती हैं।

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