Tuesday 11 June 2019

नहीं रहे ओबरा का राजनीतिक चरित्र बदलने वाले सरदार लक्षमणधारी सिंह


मतदाताओं को बूथ तक जाने से रोक दिया जाता था कभी या साहस नहीं कर पाते थे

दाऊदनगरियों को बूथ तक जाने का साहस दिया था

उपेन्द्र कश्यप 0
(उनकी कमियां अपनी जगह, क्योंकि उनकी कमियों का कोई  दुष्प्रभाव ओबरा-विधान सभा क्षेत्र में नहीं था, इसलिए वे क्या थे, कैसे थे, इससे महत्वपूर्ण हमारे लिए यह है कि ओबरा विधान सभा चुनाव में उनका क्या योगदान था, कि मैं लिख रहा हूँ। उनका इस इलाके से संबन्ध बस भर चुनाव तक था। वे हैबस पुर नरसंहार के आरोपी थे। राजबाला वर्मा ने उनके घर कुर्क किया था। वे बर्बाद हो गए थे बाद के दिनों में और अंततः गरीबी में बीमारी से मर गए।)

खैर, पढ़िए इतिहास को, जानिए क्या था दाउदनगर-ओबरा। इस बहाने चुनावी गतिविधियों का इतिहास....

ओबरा विधान सभा क्षेत्र समाजवादियों का गढ़ रहा था। ओबरा और दाउदनगर प्रखंड को मिलाकर इसका परिसीमन किया गया था। बीच में वर्ष 1995 और 2000 में राजाराम सिंह के जरिये वामपंथ का झंडा बुलंद हुआ था। यह क्यों और कैसे हुआ था? इस राजनीतिक चरित्र बदलाव में एक अहम भूमिका सरदार लक्षमण धारी सिंह की रही थी। कोई माने या ना माने। तब बड़ी आबादी उनकी थी जो यह मानते हैं कि यदि सरदार नहीं होते तो राजाराम सिंह नहीं जीतते। हालांकि जितने अंतर से वर्ष 1995 के चुनाव में जीते थे, उस गैप में यह बात बहुतों ने खारिज भी की थी। तब करीब 45 हजार वोट राजाराम को मिले थे और करीब 20 हजार से अधिक वोट के अंतर से जीते थे। तब दाउदनगर की परिस्थिति भयावह थी। दबंगता थी। शांति से रहना, अपना व्यवसाय करना और यहां तक की अपना मतदान करना भी मुश्किल का काम था। बाबा बिहारी दास के संगत में तब व्यवसायियों ने बैठक की थी। गुण्डई के खिलाफ एकजुटता का आह्वाहन किया था। बाजार की स्थिति यह थी कि भय व्यापत हो जाता था, चुनाव के वक्त। बनिया चरित्र के इस शहर में बनिया वोट देने से डरता था। एक राजनीतिक विचारधारा वालों का तब इतना खौफ़ हुआ करता था। उंगली पर गिने जा सकने वालों की प्रॉक्सी हुकूमत शहर पर चलती थी। एक-दो की इच्छा ही आदेश मान लिया जाता था। खास कर शहर में। कहते हैं तब यह कहावत चली थी-लाश पर टैक्स। इसके व्यापक संदर्भ और मायने हैं। जो मेरी पत्रकारिता-इतिहास के चिप्स में कैद है। एक ही केंद्र विंदु हुआ करता था। जिसके इर्द-गिर्द सत्ता और प्रशासन घुमा करता था। समाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियां एक विंदु से संचालित या प्रभावित होती थीं। कोई चुनौती देने वाला तब नहीं था। इस बीच 1995 को आना था, वह आया। विधान सभा चुनाव की घोषणा हुई। कई बार चुनाव हार चुके आईपीएफ़ (तब यह भाकपा माले का खुला मंच था और भाकपा माले प्रतिबंधित संगठन) जिसे आम लोग नक्सली पार्टी या लाल सलाम वाली पार्टी कहा करते थे, से राजाराम सिंह चुनाव लड़ रहे थे। उनका चुनाव चिन्ह था-सीढ़ी। पहले से स्थापित के विरुद्ध राजाराम खड़ा हुए। दो खेमे बने, दोनों ने हरवे हथियार जमा किये। बाजार में कुछ स्थान आईपीएफ के सेल्टर बने। कारण था मतदान से वंचित किये जाने की कोशिश होने की आशंका। बिहार पीपुल्स पार्टी (बीपीपा या बीपीपी) के आनंद मोहन बिहार में हीरो बन चुके थे। आरोप तो यह तक लग रहा था कि इनको हेलीकॉप्टर से लालू यादव ही बिहार भ्रमण करा रहे हैं। राजनीतिक उद्देश्य था-सवर्णों का वोट कटवाना ताकि वैलेट बॉक्स से उनके दावे मुताबिक जिन्न निकल सके। हालांकि बिहार में तो निकला, ओबरा में जिन्न दूसरे के कंधे से ऐसा लटका कि तीसरा बाजी मार ले गया।

बाजार में हरवे हथियार के जमावड़े और मतदाताओं में भय (सिर्फ बनिया, वैश्य समुदाय ही नहीं बल्कि अन्य कमजोर जातियों के मतदाता जो डर से वोट नहीं करते थे) को दूर करने के लिए आगे आये थे सरदार लक्षमण धारी सिंह। उनके साथ युवाओं की फौज थी। खास कर स्वजातीय युवाओं की कतार उनके साथ लगी रहती थी। पक्की जीत सबको लगती है, चाहे वह कोई भी प्रत्याशी हो। यदि वह डमी कैंडिडेट नहीं हो। सरदार को भी लगता होगा कि वे जीतेंगे। उनके प्रचार का स्टाइल आकर्षक हुआ करता था। दबंगता साफ साफ झलकती थी। हरवे हथियार लेकर चलना उन दिनों बिहार में स्टेटस सिंबल हुआ करता था। जिसके पास जितने हथियार और आदमी, वह उतना ही ताकतवर माना जाता था। पहली बार दाउदनगर में हथियारों की आवाजाही की स्थिति तीन तरफा हुई। एकदम से ओपन सीक्रेट। कौन कौन किसके पक्ष में, हथियार लेकर चल रहा है, यह काफी लोग जानते थे। सरदार बड़ी ताकत की पृष्ठभूमि के साथ दबंग छवि के आनन्द मोहन का टिकट लेकर आये थे। यह इलाके के लिए पहला अनुभव था।खुलेआम चुनौती, धमकी और प्रदर्शन।

कमजोर वोटरों को दबंग डराया करते थे, बूथ लूटे जाते थे, वोटरों को बूथ तक पहुँचने से रोका जाता था। उनकी उनके इलाके में तूती बोलती थी। हठा कट्ठा रौबदार छवि। उन्हें यह अहसास हो गया होगा कि उनकी जीत लगभग असंभव है। ऊपर से सत्ता संरक्षित लोगों ने उनके अहं को ठेस पहुंचाया। चुनौती दी। सरदार जो अपना धर्म हिन्दू और अपनी जाति भूमिहार छोड़कर सिक्ख बन गये थे, अहम के टकराव ने शायद उनको मतदान से वंचित किये जाते रहे लोगों का रहनुमा बना दिया। सबको मतदान करने का संबल मिला, लोग घरों से निकले और मतदान केंद्र तक पहुंचे। बूथ लूटने वाले, बूथ तक मतदाताओं को पहुंचने से रोकने वाले सब के सब अपने बिल में घुस गए थे। उनकी लाठियां रखी रह गई थी। हरवे हथियार तो निकालने का साहस तक तत्कालीन सुरमा नहीं कर सके थे, कारण बस सरदार थे। हालांकि आईपीएफ भी ताकतवर थी। उसके अपने भूमिगत संगठन भाकपा माले का हथियारबंद दस्ता हुआ करता था। लेकिन यह शहरियों के आंख से ओझल था। ग्रामीण इलाकों में तो लोगों ने दस्ता को देखा था, किन्तु शहरियों के लिए यह सिर्फ सुनने और अखबारों में पढ़ने भर तक का मामला तब था। खैर, शहरियों में मतदान केंद्र तक पहुंचने का साहस सरदार के कारण ही बना। वरना तो कहा जाता था-बनिया सार वोट देवे जतथु सो, एगो बम पटक देबे तो सब भाग जटथु सो। इस धारणा को लोगों ने बदला। कोई राजाराम सिंह को वोट नहीं दिया था तब, सबने (शहर के संदर्भ में) नकारात्मक वोटिंग उनके पक्ष में सत्ता के रसूखदार को हराने के लिए किया था। हर कोई बस यही कहता था-जो, सीढ़ी चढ़ जो। यानी सीढ़ी छाप पर वोट देना है। वोट देने की होड़ मची थी, सीढ़ी चढ़ने की होड़। नतीजा इस होड़ ने कमाल कर दिया। ऐसी सीढ़ी मतदाताओं ने चढ़ी कि समाजवादी किला ढह गया। वह भी रिकार्ड मतों के अंतर से। आज तक वह रिकॉर्ड नहीं टूट सका है। और उतना वोट आज तक राजाराम सिंह को नहीं मिला सका है। इसके पहले 1985 में भाजपा के बीरेंद्र सिंह ने ओबरा में दक्षिणपंथ का झंडा लहराया था। इन चुनावों से पहले कांग्रेसी वर्चस्व वाले आजादी की खुमार में लिपटे भारत में भी यहां बैलों की जोड़ी, और छोकरी पर टोकरी की जीत होती रही थी। सरदार ने ऐसा असर किया कि फिर बाजार के बनियों को बम पटक कर बूथ तक जाने से रोकने की सोच भी मर गयी। अब तो युवाओं की ऐसी फौज शहर में है जो रोकी नहीं जा सकती। बाजार के युवा वोटरों को या उनको जो 1995 के बाद वोटर बने हैं, उनको सरदार का योगदान समझ में नहीं आएगा।
सरदार क्या थे, क्या हो गए यह और बात है। असली बात ओबरा के संदर्भ में यही है कि वे आये थे विधायक बनने और हर मतदाता को साहसी बना गए। यह साहस बड़ी अजीब शै है। इसके बिना इंसान कोई काम नहीं कर सकता। न सीढ़ी चढ़ सकता है, न चक्र तोड़ सकता है, न ताला-चाभी लगा सकता है।

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