Saturday 18 February 2017

साहित्याकाश पर चमका नया सितारा निर्भय मिश्र

बताया-‘मगही संस्कार गीतों में झांकता स्त्री का सच’
राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध पत्र पढ रचा इतिहास
जिला के लिए साहित्यिक क्षेत्र में बड़ी उपलब्धि 
 ओबरा के सुरखी आरके आदर्श इंटर स्कूल में पदस्थापित शिक्षक निर्भय कुमार मिश्र जिला के साहित्याकाश पर नया चमकता सितारा बन गए है| उन्हें अपना शोध पत्र भारतीय भाषा केंद्र दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय द्वारा गया में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ने का अवसर मिला| अस्मितामूलक साहित्य का सौन्दर्य विषय पर आयोजित संगोष्ठी के दूसरे दिन शनिवार को उन्होंने जिला के लिए यह बड़ी उपलब्धि हासिल की| इस संगोष्ठी में देश के नामचीन साहित्यकार, कलमकार उपस्थित हुए| उनका चयन इसलिए भे एमाहत्वपूर्ण है की जिला में अभी साहित्य साधना का काम अपेक्षित गति में नहीं है| करीब –करीब ठहरा हुआ सा है ऐसे में यह हलचल मायने रखती है| उम्मीद जगाटी है कि कामता सिंह काम, शंकर दयाल सिंह, जवाहिर मल, शिशिर कुमार लाल उर्फ़ लाल गयावी, श्रीशचन्द्र मिश्र सोम, संजय शांडिल्य जैसे साहित्यसेवी समाज को एक नया साहित्यशोधक मिला है| श्री मिश्र ने ‘मगही संस्कार गीतों में झांकता स्त्री का सच’ विषय चुना और शोधकर आलेख लिखा अजिसका चयन इस संगोष्ठी के लिए किया गया| आयोजन समिति के संयोजंक सह प्राध्यापक भारतीय भाषा केंद्र डा.अनुज लुगुन व सहा संयोजक सह प्राध्यापक डा.कर्मानंद आर्य ने बताया कि शोधपत्र की सराहना की गयी| 

लोक गीतों में मिलाती है समाज विशेष की झांकी

 निर्भय कुमार मिश्र ने अपने शोध विषय के बारे में बताया कि- लोकगीत लोकजीवन की सांस्कृतिक संपदा है, जिनमें किसी समाज विशेष के रीति- रिवाज, विधि-निषेध ,जड़ता- विद्रोह, हर्ष- विषाद एवं संघर्ष की सहज झांकी मिलती है| स्त्रियां लोकगीत समेत किसी भी लोक विधा की सच्ची और सशक्त वाहक होती हैं इसलिए किसी भी लोककला में उनकी उपस्थिति प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रुप से अनिवार्य है| मगही संस्कार गीत मगध क्षेत्र की लोक परंपरा जिनमें बच्चों के जन्म लालन-पालन शिक्षा-दीक्षा एवं सबसे महत्वपूर्ण विवाह प्रकरण के व्यापक चित्र मिलते हैं| गीतों में व्याप्त स्त्री- दृष्टिकोण की पड़ताल वर्तमान समय की सबसे बड़ी जरूरत है ताकि विमर्श के हाशिये पर स्थित और  केंद्र की ओर अग्रसर स्त्री संसार का सच सामने आ सके| यह शोध आलेख इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है|




जो श्री मिश्र ने संगोष्ठी में पढा, उसकी प्रस्तुति---------------------------------


'मगही संस्कार गीतों में झांकता स्त्री का सच’

- निर्भय कुमार मिश्र, 
सहायक शिक्षक,
आर.के.आदर्श इण्टर स्कूल, 
सुरखी, ओबरा, औरंगाबाद (बिहार) - 824101
ई.मेल -  nkmishraaa@gmail.com
ph.8271618040 

प्रस्तावना ---- 
लोकगीत लोकजीवन की सांस्कृतिक संपदा है, जिनमें किसी समाज विशेष के रीति- रिवाज, विधि-निषेध ,जड़ता- विद्रोह, हर्ष- विषाद एवं संघर्ष की सहज झांकी मिलती है | संस्कार गीत लोकगीतों का एक प्रमुख प्रकार है ,सभ्यता के आडंबर से दूर ,अपने अनगढ़ सौंदर्य से परिपूर्ण लोक गीत के प्रकार विशेष "संस्कार गीत" किसी समाज की संरचना एवं बुनावट को समझने के लिए कारगर साधन सिद्ध हो सकते हैं|  स्त्रियां  लोकगीत समेत किसी भी लोक विधा की सच्ची और सशक्त वाहक होती हैं इसलिए किसी भी लोककला में उनकी उपस्थिति प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रुप से अनिवार्य है| मगही संस्कार गीत मगध क्षेत्र की लोक परंपरा जिनमें बच्चों के जन्म लालन-पालन शिक्षा-दीक्षा एवं सबसे महत्वपूर्ण विवाह प्रकरण के व्यापक चित्र मिलते हैं लोकगीत अपनी मधुरता संप्रेषणीयता एवं लालित्य में बेजोड़ होते हैं ,इसी कारण उनमे सन्निहित गंभीर प्रश्न सामान्यतःओझल हो जाते है| इन संस्कार गीतों में व्याप्त स्त्री- दृष्टिकोण की पड़ताल वर्तमान समय की सबसे बड़ी जरूरत है ताकि विमर्श के हाशिये पर स्थित और  केंद्र की ओर  अग्रसर स्त्री संसार का सच सामने आ सके | यह शोध आलेख इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है| 
विवेचन-
मगध क्षेत्र मगध साम्राज्य के सत्ता का केंद्र होने के कारण राजनीतिक रुप से , गंगा आदि नदियों के मैदानी भागों में अवस्थित होने के कारण आर्थिक एवं व्यवहारिक रुप से ,नालंदा विश्वविद्यालय एवं बौद्धों के केंद्र होने के कारण साहित्यिक व आध्यात्मिक रुप से सदा समृद्ध रहा है| यहां ज्ञान और धर्म की पपरिभाषाएं तय की जाती थी| यह क्षेत्र जितनी मात्रा में क्लासिकल है उतनी ही मात्रा में इसका लोकाचार भी सुख्यात है| खान- पान एवम जीवन शैली में एक नजाकत और महीनी के साथ-साथ ठेठ देसी तौर-तरीके मगध की अपनी पहचान है| यहां के लोकगीत में यहां की परंपरा ,रीती -रिवाज खेती -किसानी और रोजगार ,पलायन आदि से जुड़े सरोकारों के भरपूर चित्र मिलते हैं| मौखिक परंपरा के इन संस्कार गीतों में परंपरा पालन के आग्रह के साथ-साथ इनके प्रति विद्रोह का एक भाव एवं तमाम वर्जनाओं को नए सिरे से परिभाषित करने की उत्कट अभिलाषा भी  दिखती है| किसी समाज में स्त्री -पुरुष का परस्पर समान्तर संबंध उसकी आधुनिकता को मापने की एक कसौटी है| जन जीवन से जुड़े प्रश्न और उनके समाधान के प्रयास के बीच के द्वंद्व से ही किसी समाज के साहित्य, कला, सभ्यता एवं संस्कृति का जन्म ,विकास तथा परिष्कार होता है,l मानव सभ्यता के प्रारंभ  से लेकर अब तक के सफर में जन्म और मृत्यु एक चरम प्राकृतिक सत्य हैं परंतु  इनका निरंतर विकसित हो रहा मानव समाज कई संस्कारों के द्वारा अपने जीवन में उत्साह ,उमंग, आनंद का सृजन करने का प्रयास करता रहा है|इन गीतों में इस प्रयास के भरपूर चित्र् मिलते हैं| जन्म, नामकरण ,अन्नप्राशन, मुंडन ,उपनयन, विद्यारंभ तिलक ,विवाह एवं विदाई से जुड़े गीतों में इस क्षेत्र की जीवन शैली के स्पष्ट प्रतिबिम्ब मिलते हैं| 
  सोहर सामान्यतः पुत्रजन्म पर गया जाने वाला गीत है|भारतीय समाज,शास्त्र धर्मग्रंथों एवं लोकगीतों में भी पुत्र प्राप्ति की अदम्य इच्छा, लोक-परलोक सुधर लेने का शास्त्रीय दबाव हमेशा मुखर रहा है| लोक के अवचेतन में पैठे इस विचार का एक चित्र 
1.तुहूँ त हहु बबुआ देवर, मोर सिर साहेब जी।
बबुआ, तोरो भइया देलन बनवास, से एक रे पुतर बिनु हे॥
लेहु न लेहु भउजी सोनमा, से अउरो चानी लेहू हे।
भउजी, मनवहु आदित भगमान, पुतर एक पायब हे॥
मनवलआदित भगमान, से होरिला जलम लेल हे।
जुग-जुग जिअए देवरवा जे मोरा गोदी भरि देल हे॥
  2.उठी-उठी चली भेळण विपर घरे,औरोँ से विपर घरे हे,
विपर तोरे चरन धोइये पियबो,पुत्र एक होइते हे।
    पुत्र को जन्म न दे सकने वाली स्त्री कितनी अकेली  पड़ जाती है जब खुद उसका पति उसे उलाहना देने लगे-
3."पियवा हो पियवा तुहि मोरा साहब हो पियवा,
पियवा जे बघिया एक लगैत,तिकोरवा हम चखटी हो,
धनिया हे धनिया तू ही मोरा सुन्दर हे धनिया,
धनिया बेतवा जे एक बियाइता, सोहर हम सुनती हो
.............................................। हम पर आदिता होख न दयाल,पियवा मोरा ओरहन हे।
    उपनयन विद्यारम्भ का एक प्रतीकात्मक संस्कार है।
जनेऊ वर्णाश्रम में उच्चवर्ण के बालको का एक संस्कार है,जिसमे भूलवश भी किसी स्त्री का नाम tनहीं आता-
4."हँसि हँसि बोलथिन चच्चा, बोली भितरायल हे,
बबुआ हम तोहरा बेदिया भरायब ,जनेऊआ दियायब हे,।
मुंडन संस्कार में भले ही लडकियां भी शामिल हैं पर इससे जुड़े गीतों में लडकियो का जिक्र नहीं पाया जाता,या वे लड़कों में ही शामिल मान ली जाती हैं-
5."चौथा अस्तुरा नौआ फेरिय,हमर लाल उठल छिहुलाय,
हजमा के लालुहा कटैया नौनिया के देहु बनवास!"
   मुंडन ,जनेऊ आदि संस्कारों के बाद विवाह प्रकरण से जुड़े अनेकानेक प्रसंगों के गीत मगध क्षेत्र के लोक- कंठ में गूंजते हैं,जिनमे समाज में अपनी स्थिति के अनुरूप ही स्त्रियां या तो गायब हैं या  कर्म रूप में हैं ।वे कहीं भी कर्ता या निर्णायक भूमिका में नहीं दिखतीं ,न तो समाज में और न ही गीतों में!विवाह के प्रारंभिक प्रकरण "सगुन"का एक गीत द्रष्टव्य है--
  6."दूलहा जे पूछते दूलहिनिया साधु बात,
कइसे कइसे सिखली धनि राम रसोई,
बत्तीसों हड़िया जी परभु छप्पन परकार
बाबा घरे सिखली जी परभु राम रसोई!"
  विवाह प्रकरण के इस गीत में लड़कियों के पाक कला में निपुण होना उनके लिए  एक अनिवार्य योग्यता है,जहाँ दुलहा अपने दुल्हिन से प्रथम मिलान में यही जानने की अपेक्षा रखता है,।रसोई और  बिस्तर तक में सिमटने को अभिशप्त लड़कियों से भला और सवाल ही क्या हो सकते हैं!यह गीत समाज में रसोई और स्त्री के विकल्पहीन सम्बन्ध का प्रमाण है ।संस्कार गीत के इस अंश में उसी लोकसत्य को बल मिलता है कि रसोई  और बच्चों का लालन -पालन ही स्त्रियों का मुख्य धर्म है।
मान -मनुहार स्वस्थ जीवन का स्वाभाविक सौन्दर्य है, परंतु पुरुष के द्वारा दूसरी पत्नी ले आने का मजाक भी स्त्रियों के लिए सिहरन पैदा कर देने वाला होता है,लोक एवं लोक गीत के इस सत्य को नाकारा नहीं जा सकता,एक गीत द्रष्टव्य है--
   7.कंगनवे कारन पिया देश गेलन, अउरो विदेस गेलन हे। 
ललना न देबइन ननदी कंगनवाँ, ननदिय देस-दूर बसे हे।
चुप रह चुप रह बहिनी, त सुनहूँ बचन मोरा हे। 
हम करबो दूसर बिआह कंगनवाँ हम दिलाई देबो हे।
इतना बचनियाँ धनियाँ सुनलन, सुनहूँ न पौलन हे। 
ललना झटसिन फेंकले कंगनवाँ अंगनवाँ बीच हे।
ललना ल न छिनरियो कंगनवाँ सवतिया बनके रहहूँ न हे।"
सौत आ जाने का डर केवल औरतों के हिस्से आता है इस सचाई को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि इस डर के पीछे स्त्री परवशता का एक बड़ा आधार है।
विवाह किसी भी समाज के स्त्री-पुरुष के जीवन से जुडी सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है जो स्त्री विस्थापन का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण और आश्चर्यजनक रूप से सर्वस्वीकृत कारनहै--
8."ऊँच तोरा लिलरा गे बेटी, मनि बरे जोत।
दँतबा के जोत गे बेटी, बिजुली चमके॥
एक तो सुनली गे बेटी, मएभा  सासु।
दोसरे सुनली के बेटी, करिया दमाद।
खयबो में माहुर बिरवा लगयबो में फाँसी,
येही धिया लागी ।
जनि खाहु माहुर बिरवा, जनि लगाबहु फाँसी।
भइया के लिखल हे अम्मा, बाबा चउपरिया।
हमरो लिखल हे अम्मा, जयबो दूर देसवा॥3॥
जाहि दिन हे अम्मा, भइया के जलमवाँ
सोने छूरी कटइले नार हे।
जाहि दिन अहे अम्मा, हमरो जलमवाँ,
हँसुआ खोजइते हे अम्मा, खुरपी न भेंटे;
झिटकी कटइले मोरो नार हे॥
    पुत्र के  जन्म पर पीतल की थाली और बेटी के जन्म पर टीन की थाली पीटने का रिवाज रखने वाला मगध यदि जन्म से ही लड़के लड़कियों के बीच फर्क की 
बुनियाद रखता है,तो अचरज कैसा!अचरज तो नियति मानकर उसे स्वीकार कर लेना है! 
  अधिकांशतः बड़ी उम्र के वर के साथ आधी उम्र के कन्या का या कभी -कभार बहुत छोटे वर के साथ किसी स्त्री का विवाह जैसे विद्रूप संस्कारों से उपजी पीड़ा के स्वर इन लोक गीतों में मुखर हो उठते हैं--
9."खाट छोड़ि भुइया सुतली दुलारइतीं बेटी,रोई-रोइ कयल विहान हे।
कवन संकटिया तोरा आयल  गे बेटी,रोई-रोइ कयल विहान हे।
हमर सुरतिया जी दादा तोरे न सोहाय, खोजी देल लड़िका दामाद हे।" 
बेटी के इस मार्मिक प्रश्न का उत्तर देते हुए पिता मानो इस संस्कार का कच्चा चिट्ठा ही खोल कर रख देता है कि इन संस्कारों में स्त्री जीवन का प्रश्न कितना गौण है?--
10."हमर करम बराबर गे बेटी जानो धरम तोहार हे,
उत्तम कुल बेटी तोहरा बियाहलूं ,देखलूँ छोट न बड़ हे।
पूरब खेत बेटी ककड़ी जे बुनलूं ,ककड़ी के भतिया सोहावन हे,
न जानू बेटी गे तीता कि मीठा ,कैसन ककड़ी सवाद हे!
  इन संस्कारों से जुड़े लोकगीतों में स्त्री -शिक्षा के प्रश्न प्रायः आते है पर स्त्री शिक्षा का ऐसा मजाक  हास्य के साथ करुणा का संचार कर देता हैं-
11."पढ़-पढ़ गे बेटी कि तोरा पास करना है,
कि पढ़ल दुलहवा से बात करना है!" 
शिक्षा का ऐसा स्पष्ट उद्देश्य,किसी भी संवेदनशील  व्यक्ति को झकझोर कर रख देता है!
विवाह संस्कार में तिलक एक प्रमुख प्रसंग है।संस्कार  और कर्मकांड के छद्म ने दहेज़ जैसी घातक कुप्रथा को बहुत हवा दे दी है।एक गीत--
  12. "बाबु सिर जोगे टोपी न आयल,बाबु के ठग के ले गेल सुनहु लोगो,
बाबु लछ रूपैया के दूल्हा,बरहमन भडुआ ठगी ले गेल,
बाबु लछ रूपैया के दूल्हा,ससुर भडुआ ठगी ले गेल!
संस्कार के आवरण में पलता यह व्यपार वर्तमान समय की सबसे विकट समस्या है। शास्त्र के शोर और लोक की मदहोशी में पलती दहेज़ की समस्या आज विकराल हो गई है, क्योकि स्त्री जीवन से जुड़े इस प्रकरण में किसी निर्णायक भूमिका से परे स्त्रियों का काम सिर्फ गीत गाने भर का है,इसीलिए हास्य-विनोद के बावजूद क्या यह आपत्तिजनक नहीं कि स्त्रियों द्वारा दी जा रही गलियो का लक्ष्य दूसरे पक्ष की स्त्री ही होती है--
13."एने के धनवा ओने के धनवा एक़े में मिलाओ जी,
बरवा के पापा कनेवा के मम्मी एके पर सुताओ जी!"
   प्रत्यक्ष प्रतिकूल परिस्थितियों में कही कही स्वतंत्रता और रोमांस के कुछ चित्र मिल जाते है जो कुछ सीमाओ का अतिक्रमण कर जाते हैं--
14. "माटी कोड़े गेली हम आज मटीखनवा,इयार मोरा पडलं हाय जेहलखंमा।
पियवा के कमइया हम कछु नहीं जान ही,इयार के कमैया नकबेसर ये ननदो!
ओहि नकबेसर धरी इयार के छोड़ैबो,
इयार मोरा गेल हाय जेहलखनमा!" 
इन गीतों में संभवतः आजादी की लड़ाई भी संदर्भित हैं।
समाज में हर जगह दोयम बनायीं गयी स्त्री को कुछेक वैवाहिक कर्मकांडों में श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास वस्तुतः लोक-आग्रह है --
15."मगधांचल में विवाह के पूर्व रस्मी तौर पर वर अपनी होने वाली पत्नी के पैर का अंगूठा छूता है--
"अजी-अजी सुन्दर दुलहा लाजो न लागल जी,
भरल सभा में दुलहा धनि गोड़ छूलs जी,
बाप मतारी के पैरों न छूलs जी,
धनि के पैर छू के बड़ी अगरयलs जी!"
यथार्थ में स्त्री शिक्षा की ऐसी किसी संभावना के अभाव में ऐसे गीत एक असंगत हास्य बनकर रह जाते हैं--
"अंगूठा तुहूँ छूल जी दुलहा गुलाम तुहूँ बनल,
कॉलेज हम जयबो जी दुलहा किताब पहुंचैह,।
    विवाह के बाद लड़की अपने ही घर में एकदम से अचानक परायी हो जाती है।"बेटी बियाहली कुइयां उड़ाहली" जैसी लोकोक्तियाँ इस बात की प्रमाण हैं।बेटी को पराया धन मानने वाली संस्कृति उसके ब्याह के बाद उसके पीहर आगमन तक से शंकालु हो उठती है। सारे अधिकार- भाव को त्यागकर केवल दूसरो के लिए जीना परंपरा की कंडिशनिग प्रक्रिया का परिणाम हो सकती है,सामान्य मानवीय स्वभाव नहीं हो सकता--
16. "हाथ सिन्होरबा गे बेटी, खोंइछा दुब्भी पान।
चली भेली दुलारी गे बेटी, दादा दरबार॥
सुत्तल  हला जी दादा, उठला चेहाय।
किया लोभे अइला गे बेटी, दादा दरबार॥
अरबो न माँगियो जी दादा, दरब दुइ चार।
एक हम माँगियो जी दादा, दादी के सोहाग॥
मचिया बइठली जी दादी, दहिन लटा झार।
लेहु दुलरइते गे बेटी, अँचरा पसार।
अँचरा के जोगवा  गे दादी, झुरिये झुरि जाय।
मँगिया सेनुरबा गे दादी, जनम अहिवात।"
     समस्त भारतीय संस्कृति में विभिन्न रूपों में मौजूद विवाह( कन्यादान ,सिंदूरदान )एक ऐसा संस्कार है जो किसी स्त्री-पुरुष का भविष्य तय कर देता है!  वर्तमान सामाजिक व्यवस्था,प्राकृतिक प्रस्थिति एवं विवाह जनित विस्थापन की मार स्त्री जीवन की समस्त संभावनाओं को कुचल देता है।स्त्री की माँग में पड़ा चुटकी भर सिंदूर मनो उसके "कॉपीराइट "ट्रांसफर की उद्घोषणा है--
   17."चुटकी भर लेहु न सेनुरबा, सोहगइलबा बेसाहहु हे।
भरी देहु धानि के माँग, धानि तोहर होयत हे॥
चुटकी भरी लिहलन सेनुरबा, सोहगइलबा बेसाहल हे।
दुलहा भरी देलन धानि के माँग, अब धानि आपन हे॥
बाबा जे रोबथिन मँड़उबा बीचे, भइया खँम्हवे धयले हे।
अमाँ जे रोबथिन घरे ,भेल अब धिया पर हाथे हे॥
सखि सभ माथा बन्हावल लट छिटकावल हे।
अजी सखि, चलूँ गजओबर, अब भेल पर हाथ हे॥॥
सेनुरा सेनुरा जे हम कयलूँ, सेनुरा त काल भेल हे।
सेनुरा से पड़लूँ सजन घर, नइहर मोर छूटल हे॥
छूटि गेल भाई से भतीजबा, आउरो घर नइहर हे।
अब हम पड़लूँ परपूता हाँथे, सेनुर दान भेल हे।"
    अपनी विदाई पर पिता से शिकायत करती बेटी अनायास ही सवाल करती है--l
18."बाबा हो धन लोभित धनवा लोभाई गेल,
काहे सातो नादिया पार कयल?"
विदाई विवाह व्यवस्था का एक करुण क्षण है जो समाज व्यवस्था में स्त्री परवशता का मार्मिक उदाहरण है।अपनी जड़ से उखड़कर स्वयं अपने ही तन -मन एवं धन पर अधिकार शून्यता का यह एहसास स्त्रीजीवां की सबसे बड़ी त्रासदी है----
19. "सभवा बइठल बाबा मिनती करे मोर परान हरी,
दिन दस रहे दहु धीयवा हमार हो परं हरी।
जब तोरा अहो ससुर धीयवा पियारी हो परान हरी,
काहे लागी तिलक चढ़वल हमार हो परान हरी।"
    संस्कारों के धार्मिक अनुष्ठान के आडम्बर में किसी जीवित प्राणी का ऐसा वस्तुकरण एवं संपत्ति का ऐसा असमान वितरण मर्म को छूने वाली त्रासदी के साथ-साथ एक अमानवीय आपराधिक कृत्य भी है। बिदाई के अवसर पर लोकगीत में बेटी ने अपने पिता से कुछ तीखे सवाल पूछे हैं---
20. "काहे बेयाही बिदेस रे, लखिया  बाबुल मोरे।
हम तो रे बाबुल बेले  की कलियाँ, घर घर माँगी जायँ रे।
लखिया बाबुल मोरे॥
हम तो रे बाबुल खूँटे की गइया।
जिधर हाँको हँक जाय रे, लखिया बाबुल मोरे।
काहे को बेयाही बिदेस रे, लखिया बाबुल मोरे।
ताको भरी मैंने गुड़िया न छोड़ी।
छोड़ा सहेला साथ रे, सुन बाबुल मोरे॥
भइया को दिए हो बाबू, महला दुमहला ।
हमको दिए हो बिदेस रे, लखिया बाबुल मोरे॥
कोठे के नीचे पलकिया जो निकली।
बीरन ने खाई पछार रे, सुन बाबुल मोरे।
काहे को बेयाही बिदेस रे, सुन बाबुल मोरे॥"

     लोकतंत्र जहाँ एक तरफ हर तरह की गैरबराबरी का विरोध करता है वहीं दूसरी तरफ तमाम तरह की बराबरी की वकालत करने वाली शासन पद्धति भी है।परंतु दुर्भाग्यवश दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में आज भी संविधान की मूलभावना के विरुद्ध जाति, उम्र,लिंग,मजहब ,वर्ग एवं भाषा के स्तर पर असमानताएं एवं भेदभाव कायम हैं।अर्थ के असमान वितरण से लेकर लिंगगत विलक्षणता भेदभाव के बड़े आधार हैं।इन सबके पीछे लंबे समय से राजनैतिक ,बौद्धिक एवं आर्थिक सत्ता पर काबिज पितृसत्ता एक महत्वपूर्ण कारक  है जो आज भी अर्थ ,धर्म ,रीतिरिवाज़,संस्कृति, पूँजी, विज्ञान एवं तकनीक आदि का नियामक और नियंता बना हुआ है।किसी मूर्त समस्या के पीछे अमूर्त वैचारिकी का बड़ा हाथ होता है, जो प्रस्तुत शोध आलेख का भी निष्कर्ष है। लोकमन की निर्मिति एक सुदीर्घ चिंतन मनन का परिणाम होती है परंतु इस चिंतन के एकांगी या पक्षपाती होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-
०स्त्रीकाल , वेब एवं प्रिंट पत्रिका,सं. संजीव चन्दन
०औरत के हक़ में, तस्लीमा नसरीन,अनुवाद-मुनमुन सरकार, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली.
०मगही भाषा और साहित्य,डॉ.संपत्ति आर्याणि,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् ,पटना.
०पल्लवी त्रिवेदी,(आईपीएस) के फेसबुक पोस्ट,
सिनेमा सूची:---
० पिंक,  मातृभूमि,  मृत्युदंड,
सन्दर्भ:---
1.kavitakosh.org ,मगही लोकगीत 
2. वही
3.मगही संस्कार गीत,सं.-डॉ विश्वनाथ प्रसाद,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ,पटना
4. 5.7.8. 9.10---
6.मगही लोकगीत के वृहद् संग्रह,सं,डॉ रामप्रसाद सिंह , प्रकाशक :मगही अकादमी, पटना
11.ग्रामीण क्षेत्र में किसी विवाह समारोह में सउन गया गीत
13.15.ग्रामीण महिलाओं से बातचीत पर आधारित
16.17.18.19.20.-kavitakosh.org मगही लोकगीत

No comments:

Post a Comment