Monday 13 February 2017

डरिये और डराइए ! शहर आपका तो शहरी किसका?


किसी शायर ने क्या कहा है-वही अपना न रहा इस शहर में, जिनके लिए हम सबसे लड़ बैठे| भाई ये शहर अजीब होते हैं| कोइ किसी का नही होता| गाँव में थोड़ा अच्छा है लेकिन खाक अच्छा होगा जब गाँव भी शहर बनने लगे| यह अंदेशा सबको होने लगा है की गाँव के कुछ लोग गांधी बाबा के कल्पना वाला गाँव अब नहीं रहने देंगे| अब देखीए न| साहब और नेता जी किसी की नहीं सुन रहे हैं| दोनों एक दूसरे को कब से सुना रहे हैं| दोनों हैं की बस अपनी सुन रहे हैं| कही ऐसा तो नहीं कि डरिए और डराइए का खेल आपस में चल रहा हो| दोनों अपनी हांक दिखने को काहे बेमतलब को बेताब दिख रहे है| जनता तो बेचारी समझ रही और फिर उलझ जा रही है| वह क्या करे? शहर आपके है किन्तु शहरी तो किसके हैं? वे भी तो शहर के ही हैं| फिर भी बड़ी मुश्किल है शहरी को खुद को शहरी समझना| कभी मंच पर कभी सोशल मंच पर| बेचारा तो अतिथि बन जाता है| हर जगह हर शहर| शहर में स्वघोषित आका के आका आ धमके और घास तक न डाली| वे दूसरे साथी के साथ गलबहियां करते रहे| अब इससे चीढना तो स्वाभाविक ही लगता है| बेचारा खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे वाली स्थिति में आ गया| आका का डर खाए जा रहा है तो शेर खदेड़ चूका है| बिल्ली शेर क्या सियार से भी डरती है| एक उपाय बिल्ली ने निकाला| उसने शेर का निशाना बनाया और तीसरे के कंधे पर बन्दुक रख दी| हद है| जिला इसी तरह के डरो और डराओ के खेल में अभी व्यस्त है| समाज को खुद तय करना होगा कि वह किसे क्या समझे? अब ताजा स्थिति यह है कि साहब ने अपने फेस पर अपना बुक लिखा| सफाई दी की वे कहाँ गायब थे| कह भी दिया कि-छुट्टी में है और लोग क्या-क्या अफवाह फैला रहे हैं| रहने दीजिए साहब-झूठ के पाँव नहीं होते, सफाई काहे को?
   

अंत में अदम गोंडवी को समझिए---
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को।

पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है,
इस अहद की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को।

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