Monday 19 March 2018

सुनो! इस दर्द को, जरा दिल-दिमाग संभाल के ०००


                      ●उपेन्द्र कश्यप
0-मैं आंख में काजल और होठ पर लिपिस्टिक इसलिए लगाती हूँ कि सामने वाला मेरा दर्द न देख सके।
0-कॉलेज से निकलती हूँ तो पीड़ादायक टिप्पणी सुनती हूँ। यह तकलीफ न दे और सामने वाले को लगे कि मैं उनकी भद्दी, कष्टदायक टिप्पणी नहीं सुन पा रही, इसलिए कान में इयरफोन लगाकर कॉलेज से निकलती हूँ।
0-मैं प्यार की भूखी हूँ, प्यार चाहिए, आपकी सहानुभूति नहीं साथ चाहिए।
0-मैं कितनी दर्द में हूँ, यह नहीं जान सकते आप, कभी आवाज उठाया? घर ने ठुकरा दिया, समाज ताने देता है, कानून से भी संघर्ष करना पड़ रहा है।
0-जिस देश में नारी पूजी जाती है, उसी देश की मैं भी हूँ, फिर हमारे साथ ऐसा क्यों होता है? हमें क्यों हर कदम पर अपमानित होना पड़ता है?
0-मैं पटना से औरंगाबाद आने में कितनी पीड़ा झेली, यह आप कल्पना नहीं कर सकते हैं। 

00 ये शब्द सहज नहीं हैंप्रश्न हैं समाज सेदर्द की अभिव्यक्ति है-वीरा यादव की। 
वीरा यादव किन्नर हैं, पटना विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रही हैं। वीरा यादव से मुलाकात औरँगाबाद में धर्मवीर फ़िल्म एंड टेलीविजन प्रोडक्शन द्वारा आयोजित औरँगाबाद फ़िल्म फेस्टिवल में हुई। उन पर केंद्रित एक डॉक्युमेंट्री दिखाई गई। उनसे जजों ने संवाद किया। प्रश्नोत्तरी हुई। नतीजा उनके कुछ शब्द मुझे झंकझोर गए। इन पर बेहतर सामग्री लिखी जा सकती है, जो सिर्फ किन्नरों के लिए नहीं बल्कि पुरुष और स्त्री समाज के लिए भी प्रेरक होगा। एक कोशिश की है। उनके शब्द वाकई कान, मस्तिष्क को झकझोरने वाले रहे। पहली बार किन्नरों का दर्द जाना, वह भी एक अध्ययनरत किन्नर से। साक्षात सुना। और पीड़ा बताने के उनके शब्द चयन ने खासा प्रभावित किया। बोली- ‘यह मेरी अकेले की पीड़ा नहीं है। हम सब एक ही तवा की रोटी हैं। सबकी (किन्नरों की) पीड़ा एक सी है। मैं आवाज उठाई।‘ मैंने जाना कि किन्नर सिर्फ ताली ही नहीं बजाते, वे सिर्फ व्यंग्य वाले छक्के नहीं होते, वे भी बोलते हैं, खूब बोलते हैं, और विराट सचिन सा छक्के भी लगाते हैं। समाज में यह सवाल नारी उत्पीड़न की हर घटना के बाद उठता है, कि जिस देश में 'यत्र नारियस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' का आध्यात्मिक ज्ञान बांटा जाता है, उसी देश में नारी दूसरी श्रेणी की नागरिक क्यों है? उसे पुरुष सी समानता कब मिलेगी? लेकिन कभी थर्ड जेंडर, किन्नर को लेकर भी ऐसे आवाज पुरजोर तरीके से नहीं उठते, जो कि उठने चाहिए। आखिर, हमसे तो ये हिजड़े बेहतर हैं, जो हमारी मौज मस्ती के लिए ताली पीटते हैं, और आंखों में काजल, होंठों पे लिपिस्टिक इसलिए लगाते हैं कि सामने वाले को इनका असली और दर्द में डूबा चेहरा न दिखे। वीरा ने तो उन मनचलों को भी सम्मान दिया जो इसे कॉलेज से निकलते देख कर फबती कसते हैं-‘अरे हिजड़ा भी पढ़ रहा है। ई पढ़ के क्या करेगा। कॉलेज जाती आती है।‘ ऐसे मनचलों की आवाज इनको दर्द न दे और फबती कसने वाले को यह अहसास न हो कि सामने वाली सुन कर दुखी हो रही है, इसलिए कान में बिना मतलब इयरफोन कोंच लेती है। 

शाबाश, वीरा। शाबाश, तुम किन्नर नहीं, दंभी पुरुष समाज के मुंह पर तमाचा हो।
अंत में, शाबास पिंकी भी। धर्मवीर फ़िल्म एंड टेलीविजन प्रोडक्शन की क्रू मेंबर हसपुरा की इस किशोरवय पिंकी ने गजब की बात किन्नरों को लेकर कहा। मंच संचालक आफताब राणा ने जजों और वीरा के संवाद के बाद बोला कि इससे यदि कुछ अलग है तो पिंकी मंच पर आकर बोलो। पिंकी ने खुद माइक मांगा था, इसलिए संचालक के शब्द चुनौती से कम नहीं थे। वह आई तो ताली बटोर के ले गई। बोली-भगवान शिव ने नारी को सम्मान देने के लिए अर्धनारीश्वर का रूप कुछ देर के लिए धरा था तो हम उनकी पूजा करते हैं। वीरा और इनका समाज तो आजीवन अर्धनारीश्वर ही है, तो इनको अपमान क्यों, क्यों नहीं इनको समान सम्मान मिलना चाहिए? सवाल मौजू है- सन्दर्भ गांडीव धारी अर्जुन का भी है जो वृहन्नला बने थे। वृहन्नला भी तो किन्नर ही था।
अंत में धन्यवाद धर्मवीर भारती, जिनके कॉल और निवेदन ने इस कार्यक्रम का हिस्सा बनने को विवश किया। अन्यथा एक शानदार पल से मेरा साबका नहीं हुआ होता। वीरा, तुमने नजरिया बदल दिया, किन्नरों को देखने का। अगली बार किन्नरों का दर्द मैं भी समेटने की कोशिश करूंगा-शब्दों से।
 उपेन्द्र कश्यप
लेखक-'श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर'
और -सन्दर्भ ग्रंथ- उत्कर्ष के दो अंक।

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