Sunday 13 August 2017

आइये जश्न मनाइए, संकीर्णता का त्याग करिए....


शहरनामा-उपेन्द्र कश्यप
कल सूरज जब उदय होगा तो कोइ पहली बार नहीं होगा| किन्तु उत्सव के लिए यह ख़ास है| आजाद हुए 70 साल हो जायेंगे| अर्थात हम देश के रूप में प्रौढ़ हो गये हैं| देश में आजादी के नारे लगेंगे| आजादी के दीवानों का स्मरण किया जा रहा है| आज भी आजादी के दीवाने कहीं कहीं देश में दीखते हैं| आवाज बुलंद करते हैं| इनकी आजादी के मायने अलग है| वैयक्तिक व सामुदायिक आजादी इनकी चाहत है| जबकि हमारे पुरखों ने देश की आजादी माँगी थी| देश की खातिर अपना जीवन बलिदान किया था| जातिवाद, वर्गवाद, क्षेत्रवाद तब भी था आज भी है| सघनता कम या अधिक हुई है| अन्यथा जगतपति उपेक्षित न रह गये होते| उनके वंशजों ने, परिजनों ने देश को तो दिया किन्तु स्वयं के लिए कुछ नहीं लिया| आज के दीवाने सब कुछ अपने लिए मांग रहे हैं| वे देश को कुछ दें या न दें, उन्हें देश से अपने लिए सब कुछ चाहिए| आजादी की मांग से बाहर निकलिए तो व्यक्ति की सोच वैयक्तिक हो गयी दिखती है| समष्टि में कोइ देख ही नहीं रहा| चाहे वह जातिवाद हो या भ्रष्टाचार हो| राजनीतिक भागीदारी हो या सामाजिक बराबरी हो| ऐसे दीवाने स्वयं से आगे नहीं देखते| अगर कभी देखा भी तो परिवार के भीतर तक ही नजर सीमित रखा| आज ख़तरा विदेशियों से अधिक अपने घर के लोगों से, पड़ोसियों से है| अगर मान सिंह न होता तो मेवाड़ ख़त्म नहीं होता और मीर जाफर न होता तो अंग्रेज व्यवसाय चलाते रहते, हुकुमत न कर गए होते| आज देश के लिए त्यागने वाले कितने हैं? फ़ौज पर ही विश्वास है, खद्दर पहनने वालों पर कितना भरोसा करिएगा? वे सब तो दूसरे के सफ़ेद कुरते पर दाग देखते हैं, अपने कुरते पर दाग उन्हें नहीं दिखता| क्योंकि प्रेम व नफरत की वजह से दृष्टि धुंधली हो जाती है| वही अच्छा दिखता है जो अनुकूल हो, प्रतिकूल वाला सिर्फ खराब ही खराब दिखता है| सभी इस बीमारी के शिकार हैं|

अंत में सवाल कि, आजाद के कहे पर कौन चल रहा-
अभी शमशीर कातिल ने, न ली थी अपने हाथों में।
हजारों सिर पुकार उठे, कहो दरकार कितने हैं।
     

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