सोन तुम हो
(यह कविता साभार मैंने फेसबुक से अपने अग्रज उपेन्द्र मिश्रा के जरिए प्राप्त किया है)
सोन तुम रहते सदा-
निकल अमरकंटक से सुदूर,
बहते मुझी में हो।
चाहता हूं-
पोंछ दूं,
रगड़कर निशान तेरे,
बदन से मेरे,
मगर तेरी धार,
रहती सदा,
बहती मुझी में।
सोन तुम कहां हो-
देश या विदेश में,
जहां भी रहता,
तेरी धार की शांत शोर,
बजती मुझी में है।
खेलने तेरी ही धार में-
तब तलक,
बसा है मेरी रगों में,
सोचता हूं,
अंतिम यात्रा भी हो खत्म तुम्हीं में।
देखता हूं-
निर्निमेश,
तुम हो ख़ामोश,
शांत और सिकुड़े हुए भी,
मुझे देना बिछौना राख को,
जब मैं आउं तुम्हारे ठौर।
प्रस्तुतकर्ता Kaushlendra Prapanna
(यह कविता साभार मैंने फेसबुक से अपने अग्रज उपेन्द्र मिश्रा के जरिए प्राप्त किया है)
सोन तुम रहते सदा-
निकल अमरकंटक से सुदूर,
बहते मुझी में हो।
चाहता हूं-
पोंछ दूं,
रगड़कर निशान तेरे,
बदन से मेरे,
मगर तेरी धार,
रहती सदा,
बहती मुझी में।
सोन तुम कहां हो-
देश या विदेश में,
जहां भी रहता,
तेरी धार की शांत शोर,
बजती मुझी में है।
खेलने तेरी ही धार में-
तब तलक,
बसा है मेरी रगों में,
सोचता हूं,
अंतिम यात्रा भी हो खत्म तुम्हीं में।
देखता हूं-
निर्निमेश,
तुम हो ख़ामोश,
शांत और सिकुड़े हुए भी,
मुझे देना बिछौना राख को,
जब मैं आउं तुम्हारे ठौर।
प्रस्तुतकर्ता Kaushlendra Prapanna
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