ना ना बेहोश नहीं
हुए तो केस खत्म
उपेन्द्र कश्यप
यह न्यायपालिका का एक अंग है। जी हां, सर्वाधिक “भ्रष्टाचार मुक्त”
संस्थान? मैं भी किसी काम को ले समय काटने के लिए एक न्यायिक दंडाधिकारी की अदालत
में बैठा हूं। पीपी अपनी कुर्सी पर डटा हुआ है। लोग आते हैं, काम बताते हैं, पैसे
देते और चले जाते हैं। हर काम के लिए फीस तय है। इसी बीच दो युवा आते हैं। पीपी से
बात किए तो उसने रुपए 120 देने को कहा। युवा 20 रुपए दिया, और बोला-अब पैसा नहीं
है। पीपी-ऐसे थोडे काम होता है? और दो। युवा और 20 रुपए देता है। पीपी और मांगता
है। युवक दूसरे युवक से पैसा मांगता है। फिर कुल 60 रुपए देता है। और कहता है कि
अब नहीं दे सकेंगे- मात्र 20 रुपए बचा है, घर जाना है। सौदा 120 बनाम 20 से शुरु
हुआ और 60 पर खत्म हो गया। मैं दंग था-किसी बाज़ार की तरह की बारगेनिंग देख कर। तभी
एक गरीब फटीहलवा (काल्पनिक नाम) लाचार और अनपढ (खुद बताया भी) फटेहाल अवस्था में
कटी और टूटी चप्पल, गंदा, फटा कपडा पहने अपने केस में गवाही देने आता है। बोला-अपने
तो फंसा देलीं। उ 20 रुपया के चार्ज (मोबाइल रिचार्ज) करेला देले हथी। के? उ साहेब
(एक कर्मी)। तो हम का करिव। बैठअ..। पैसा दअ। बढियां से गवाही दिवा देबवअ। बोला
कहां मरले हलव। शरीर पर। अरे शरीर पर कने। इशारा कर बताता है। हा तो का होलवअ।
मरलई से बिहोश हो गैलिअंइ। अरे सब गोबर कर देबअ। बेहोश मत होईहअ। ‘होइये गैल हलिअइ
तो?’ ,,तो बेहोश ना होए ला हव। ना तो केस खत्म हो जतवअ। मने बेहोश हो गेल तो तु
देखला कैसे? आंए- ओकर वकील खूब पुछतव। सीधे कहिअ कि फलना फलना के देखले हलिअंइ।
सजा हव दिलवावेला ना। हां तो सजा तो दिलवावेला हइए हइ। मन अपने मन के अंदर कुछ
तलाश रहा था। उधेडबुन कर रहा था। वाकई कितना अजीब है न्याय का मंदिर? उठा तो दूसरे
हिस्से में चला गया। एक टोपी पहने नेता मिले, झाडु वाले। पूछा कि आप से तो इमानदार
यहां कोई वकील नहीं होगा? क्या आप से बिना
घुस लिए सब काम कर देते हैं? एक अधेड कर्मी ने कहा- मंदिर में आके और चढावा नहीं
चढाएंगे? यह कैसे हो सकता है? वाकई मथुरा के एक मंदिर में संकल्प कराने के बहाने
जबरन प्रसाद लेने को कहा जाता है। इस समय वही दृष्य याद आ गया कि वाकई यह मंदिर भी
तो हिन्दुस्तानी ही है। समझ गया था कि बिना चढावा कहीं कोई काम नहीं होने वाला।
हा हा हा हा..... सब भ्रष्ट है | बिना पैसा दिए कुछ नहीं होता |
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