क्रांतिकारी बदलाव के लिए जाने गए राजाराम
फोटो-राजाराम सिंह
दो बार बने ओबरा विस क्षेत्र से विधायक
उपेन्द्र कश्यप
काराकाट से लोकसभा चुनाव में भाकपा माले के प्रत्याशी राजाराम सिंह के सिर ओबरा
विधान सभा क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाने का सेहरा बंधा हुआ है। यहां जब
जातीय तनाव था तब जनता एक विकल्प की तलाश कर रही थी। नक्सलपंथ चरम पर था। लाल सलाम
का जमाना था। चरमपंथी माओवादी संगठनों के बीच रोज टूट होती और एक नया संगठन खडा हो
जाता। आपस में ही हिंसा करते। इधर खास समुदाय की हरकतों से परेशान लोग शांति की
तलाश कर रहे थे। साल 1990 में इनको 29048 वोट मिला था। दूसरे स्थान पर रहे।
तत्कालीन मंत्री रामविलास सिंह से मात्र 5712 वोट से हारे थे। इन पर जनता की नजर
थी। सामाजिक विसंगतियों से उकताए लोगों ने विकल्प इनमें देखा और सारे भेद भाव भूला
कर 1995 में सीढी पर चढने का निर्णय ले लिया। तब प्रत्याशी से अधिक जुबां पर चुनाव
चिन्ह सीढी ही चढ गया था। रिकार्ड मत 48089 मिला और जनता दल के दिग्गज मंत्री
रामविलास सिंह को 20379 मत से पराजित किया। परिस्थिति और समीकरण की इस जीत को माले
अपना जनाधार शो करने लगी। फिर 2000 के चुनाव में राजद ने रामनरेश सिंह को
प्रत्याशी बनाया। रामविलास सिंह निर्दलीय आ गए। राजाराम को 37650 वोट मिला और वे
फिर 12966 वोट से जीत गए। परिस्थिति बदली लोग शांतिपूर्ण तरीके से जीने लगे, लेकिन
चन्दा रोजमर्रे की चीज बन गई। कुनबा परस्ती ‘ओपेन सिक्रेट’ हो गया। एक जाति विशेष
को हर कार्य के लिए जिम्मेदार ठहराकर समाज को भय का भूत दिखाया जाने लगा। ठीक वैसे
ही जैसे भाजपा के भय का भूत दिखाया जाता है। साल 2005 का चुनाव आया। व्यवसाई
पृष्ठभूमी के सत्यनारायण सिंह राजद के प्रत्याशी बनकर आए और 38575 वोट लाकर जीत
गए। राजाराम को मात्र 34700 वोट मिला। अक्टूबर 2005 में फिर दोनों भिडे तो भी जीत
सत्यनारायण की ही हुई। राजाराम मात्र 24023 वोट पर सिमट गए। करीब आठ हजार वोट से
वे हार गए। 2010 के विधानसभा चुनाव में इनको मात्र 18461 वोट मिले और तीसरे स्थान
पर खिसक गए। शायद इसीलिए कहा जाता है कि उत्थान के बाद पतन अवश्यंभावी होता है। इस
पतन की भी कई वजहें हैं। खैर, लोकसभा का चुनाव भी वे औरंगाबाद और जहानाबाद से लडकर
हार चुके हैं।
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