Friday, 18 April 2014

क्या क्या ढंकु, सब ढंकेगा तो कैसा दिखेगा भारत


      क्या क्या ढंकु, सब ढंकेगा तो कैसा दिखेगा भारत
(सन्दर्भ-बसपा का हाथी ढंकने का चुनाव आयोग का आदेश)

उपेन्द्र कश्यप 
टीवी तंग करता है कभी-कभी। मन उचट जाता है। कोई ऐसी खबर चलती है और दिमाग की तरंगें
हिलोरें मारने लगती हैं। अब इसे क्या कहें कि निर्वाचन आयोग के आदेश पर उत्तर प्रदेश के लखनउ में बने बौद्ध स्मारक स्थल में लगे हाथियों को ढंका गया। भाई लोग इसमें बहुजन दृष्टिकोण मत खोजिएगा। दायरा बहुत बडा है। रविदास मायावती से लेकर पंडित अटल बिहारी वाजपेयी तक। एक निश्चित दायरे में चाहरदीवारी के भीतर पत्थर से बना हाथी सडक पर आकर लोगों से गुहार करता है कि तुम वोट मुझे दो। इसलिए यह उपाय किया गया। हालांकि इसे अब भी देखकर समझने वाले अधिक स्पस्ट हाथी देख सकते हैं। तो क्या हर मंच पर नेता चाहे किसी दल का हो वह हाथ ( कहें-पंजा) हिला कर किसी का अभिवादन करता है, अपने प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करने की अपील करता है तो परोक्ष रुप से वह भी कांग्रेस का प्रचार करता है? अभिवादन पर खुद रोक लगा लेना चाहिए दलीय नेताओं को, भले आयोग ऐसा करने का नियम बनाए या नहीं। कहते हैं-किसी चीज को देखने से मना करने पर उसे देखने की ललक कई सौ गुणा बढ जाती है। यह बात हर मामले में लागू होती है। याद होगा इसी तरह स्वर्णिम चतुर्भूज योजना के तहत बने देश के उच्च पथों पर बने किलोमीटर बताने वाले बोर्डों, द्वारों पर लगे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तस्वीरों को ढंका गया था। नतीजा जब निकला तो राजग की सरकार केंद्र से चली गई। वैसे एक सच यह भी था कि स्वर्णिम चतुर्भूज योजना के तहत बनी सडक के किनारे के लोकसभा सीटों में अधिकांश पर भाजपा हार गई थी। जब आयोग का फैसला सुना तो खुद से सवाल पूछा कि अगर कभी मैं निर्वाचन आयोग का प्रधान बना तो अपनी ‘प्रधानी’ अपने पूर्ववर्ती से अधिक ऐतिहासिक बनाने के लिए क्या क्या नया करना पडेगा? (वैसे मैं कुछ भी बन नहीं सकता) मन ने कहा-एक बार गोरा काला सिनेमा देखा था। उसमें सुपर स्टार राजेन्द्र कुमार जी डबल रोल में थे। अब तो हर नेता अमिताभ के सात-सात रोल वाले से भी अधिक रोल एक साथ ही जीता है जी। तो हां--। राजेन्द्र कुमार की मां अपने मरते बेटे (फिल्म में) से कहती है –बेटा जो दिल करने को कहे और दिमाग मना करे उसे करना, और जो दिमाग कहे पर दिल मना करे तो उसे कभी मत करना। मुझे मेरा दिल कह रहा है कि अगर मैं बना तो सबसे पहले सबको आचार संहिता लागू होते ही अपने ‘पंजे’ को मुट्ठी बना देने का आदेश दुंगा। ताकि कहीं ‘पंजा’ ना दिखे। उसे हटाने के लिए मुट्ठी यानी बल चाहिए। फिर देश के सारे तालाब ढंकवा दुंगा। ताकि ‘कमल’ नहीं दिखे। आदिवासियों से उसके अस्त्र ‘तीर’ छीन लुंगा। किसी को ‘साईकिल’ पर सवारी करने की इजाजत नहीं होगी। सभी ‘लालटेन’ उत्पादकों को अपने लालटेन वापस ले लेने का आदेश होगा या कहीं ‘लालटेन’ नहीं दिखे यह इंतजाम उसे करना होगा। ‘पंखा’ बनाने पर रोक होगी। बेचने और उसका हवा खाने पर रोक लगेगी। जब सब पर रोक लग जाएगी तो अंत में ‘तृण मूल’ यानी घास को कवर कर दिया जाएगा जैसे स्टेडियम में बारिश के पानी से बचाने को कवर लगाया जाता है। अरे भाई उसके बाद दुनिया कैसी लगेगी? यह विचार करना मेरा (आयोग) का काम नहीं है। यह समझे नेता कि ऐसी स्थिति से जनता को किस तरह की परेशानी होगी? वह कैसे अपना जीवन चलाएगी?

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