०उपेंद्र कश्यप०
सुन रहा नहीं, फेसबुक पर देख रहा हूँ। रामनवमी
के बाद अचानक से एक मुद्दा उछाला गया। दाऊदनगर का नाम बदलने वाला है। कोई इसे बलदाऊ से जोड़ रहा है। एक साध्वी आईं और नाम बदलने वाला भाव जगा गईं। एक पोस्ट में इसे मुंबई के माफिया डॉन रहे पाकिस्तान के शरण में जी रहे दाऊद इब्राहिम से इस करीब साढ़े तीन सौ साल पुराने शहर को जोड़ दिया। क्या तर्क और कुतर्क गढ़े और कहे जा रहे हैं।
अब पता नहीं कौन लोग इसे हवा दे रहे हैं, और कितने लोग नाम परिवर्तन के साथ हैं। मेरा किसी से व्यक्तिगत बातचीत इस मुद्दे पर नहीं हुई है। करीब डेढ़ बजे रात्रि में ट्रेन के बर्थ पर जब फेसबुक देखा तो जो अमूभूति हुई, वह बयान करना मुश्किल है। अपने 45 वर्ष की उम्र का 25 साल दाउदनगर में पत्रकारिता पर खर्च किया। मेरी पुस्तक-"श्रमण संस्कृति का वाहक-दाऊदनगर"- में दाऊदनगर के जन्मने से लेकर, विस्तारित होने, वर्तमान तक का तथ्यात्मक विवरण है। क्यों बसा दाउदनगर? किसने, कब और क्यों बसाया? किसके कहने पर किस खासियत या विवशता के कारण बसाया इस शहर को? बाद में किस किस ने इस कस्बे को नगर बनाया? वह भी क्यों और कब बनाया? क्या जरूरत तब महसूस की गई थी इसकी? बहुत सारे पन्ने इतिहास के दर्ज हैं, इस किताब में। और हां मेरा दावा है -300 साल पूर्व लिखी गई -तारीख-ए-दाऊदिया-से कई गुणा अधिक जानकारी दाउदनगर के बारे में इस पुस्तक में मैंने दी ही।
मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि नाम परिवर्तन मुश्किल से अधिक कठिन है, और फिर निरर्थक भी। यह बिना मतलब का ऐसा पचड़ा वाला मुद्दा (यदि मुद्दा मानें तो, वरना यह है फालतू गॉसिप) है जो शहर को बहुत कुछ खोने पर विवश कर देगा। पहले ही दंगे के दंश में शहर बहुत कुछ खो चुका है। अब और खोने का मतलब है सदा के लिए आफत को आमंत्रित कर स्थापित करना। अभी ही हर धार्मिक आयोजन पर शहर की सांसें खाकी वालों के बूट और सूट में कैद कसमसाती हुई, घुटती हुई महसूस होती है। दाऊद खां के बसाए शहर को दाउदनगर ही नाम रहने देने में क्या नुकसान है, किसको नुकसान है भला?
और 'दाऊ-द-नगर' के एकदम मध्य की मात्रा 'द' हटा देने से विकास का कौन सा काम हो जाएगा, जो इस 'द' के कारण नहीं हो पा रहा है। इस द में दम है। इसे दमदार बनाइये तो पूरा दाउदनगर दमदार बन जायेगा, अन्यथा बिन 'द' वाला लूला-लंगड़ा दाऊ नगर में शांति-सौहार्द बनाये रखना मुश्किल होगा।
यह मुद्दा पहले भी उठाया गया था। इसका जिक्र मेरी पुस्तक्- "श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर" में है। जहां मैं खुलकर इस बात की हिमायत करता हूँ कि यह दाऊ नगर नहीं बल्कि दाउदनगर ही है। इसे दाउदनगर ही रहने दीजिये। वैसे मैं किसी को रोकने वाला कौन हूँ? बस लिखने की बीमारी है, इसलिए लिख रहा हूँ। मेरे लिखे को हर कोई नहीं पचा पाता है। यह भी बहुतों को नहीं पचेगा, यह जानता हूँ। हालांकि लिखे का आनन्द तभी है जब वह कुछ को पचे नहीं। अपच हो, ताकि कुछ नया लिखने की ऊर्जा मिलती रहे।
अब दाउदनगर की पत्रकारिता से मतलब नहीं रहा अन्यथा जहां लिखता था, वहां अवश्य इस मुद्दे को उठाता। लिखता, और जमकर लिखता। मेरा अब वहां न लिखना कुछ को अच्छा लगता है, और बहुतों को अखरता है।
सुन रहा नहीं, फेसबुक पर देख रहा हूँ। रामनवमी
के बाद अचानक से एक मुद्दा उछाला गया। दाऊदनगर का नाम बदलने वाला है। कोई इसे बलदाऊ से जोड़ रहा है। एक साध्वी आईं और नाम बदलने वाला भाव जगा गईं। एक पोस्ट में इसे मुंबई के माफिया डॉन रहे पाकिस्तान के शरण में जी रहे दाऊद इब्राहिम से इस करीब साढ़े तीन सौ साल पुराने शहर को जोड़ दिया। क्या तर्क और कुतर्क गढ़े और कहे जा रहे हैं।
अब पता नहीं कौन लोग इसे हवा दे रहे हैं, और कितने लोग नाम परिवर्तन के साथ हैं। मेरा किसी से व्यक्तिगत बातचीत इस मुद्दे पर नहीं हुई है। करीब डेढ़ बजे रात्रि में ट्रेन के बर्थ पर जब फेसबुक देखा तो जो अमूभूति हुई, वह बयान करना मुश्किल है। अपने 45 वर्ष की उम्र का 25 साल दाउदनगर में पत्रकारिता पर खर्च किया। मेरी पुस्तक-"श्रमण संस्कृति का वाहक-दाऊदनगर"- में दाऊदनगर के जन्मने से लेकर, विस्तारित होने, वर्तमान तक का तथ्यात्मक विवरण है। क्यों बसा दाउदनगर? किसने, कब और क्यों बसाया? किसके कहने पर किस खासियत या विवशता के कारण बसाया इस शहर को? बाद में किस किस ने इस कस्बे को नगर बनाया? वह भी क्यों और कब बनाया? क्या जरूरत तब महसूस की गई थी इसकी? बहुत सारे पन्ने इतिहास के दर्ज हैं, इस किताब में। और हां मेरा दावा है -300 साल पूर्व लिखी गई -तारीख-ए-दाऊदिया-से कई गुणा अधिक जानकारी दाउदनगर के बारे में इस पुस्तक में मैंने दी ही।
मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि नाम परिवर्तन मुश्किल से अधिक कठिन है, और फिर निरर्थक भी। यह बिना मतलब का ऐसा पचड़ा वाला मुद्दा (यदि मुद्दा मानें तो, वरना यह है फालतू गॉसिप) है जो शहर को बहुत कुछ खोने पर विवश कर देगा। पहले ही दंगे के दंश में शहर बहुत कुछ खो चुका है। अब और खोने का मतलब है सदा के लिए आफत को आमंत्रित कर स्थापित करना। अभी ही हर धार्मिक आयोजन पर शहर की सांसें खाकी वालों के बूट और सूट में कैद कसमसाती हुई, घुटती हुई महसूस होती है। दाऊद खां के बसाए शहर को दाउदनगर ही नाम रहने देने में क्या नुकसान है, किसको नुकसान है भला?
और 'दाऊ-द-नगर' के एकदम मध्य की मात्रा 'द' हटा देने से विकास का कौन सा काम हो जाएगा, जो इस 'द' के कारण नहीं हो पा रहा है। इस द में दम है। इसे दमदार बनाइये तो पूरा दाउदनगर दमदार बन जायेगा, अन्यथा बिन 'द' वाला लूला-लंगड़ा दाऊ नगर में शांति-सौहार्द बनाये रखना मुश्किल होगा।
यह मुद्दा पहले भी उठाया गया था। इसका जिक्र मेरी पुस्तक्- "श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर" में है। जहां मैं खुलकर इस बात की हिमायत करता हूँ कि यह दाऊ नगर नहीं बल्कि दाउदनगर ही है। इसे दाउदनगर ही रहने दीजिये। वैसे मैं किसी को रोकने वाला कौन हूँ? बस लिखने की बीमारी है, इसलिए लिख रहा हूँ। मेरे लिखे को हर कोई नहीं पचा पाता है। यह भी बहुतों को नहीं पचेगा, यह जानता हूँ। हालांकि लिखे का आनन्द तभी है जब वह कुछ को पचे नहीं। अपच हो, ताकि कुछ नया लिखने की ऊर्जा मिलती रहे।
अब दाउदनगर की पत्रकारिता से मतलब नहीं रहा अन्यथा जहां लिखता था, वहां अवश्य इस मुद्दे को उठाता। लिखता, और जमकर लिखता। मेरा अब वहां न लिखना कुछ को अच्छा लगता है, और बहुतों को अखरता है।
मैंने भी बलदाऊ से प्रेरित हो दाउनगर की बात सुनी थी, शेक्सपियर ने कहा था, 'whats in a name' नाम में क्या रखा है। जिन्हें दाउदनगर के नाम की उत्पत्ति में रूचि हो, उन्हें सलाह दूँगा कि वो उपेंद्र जीकी पुस्तक'श्रमण संस्कृति का वाहक : दाउदनगर' अवश्य पढें। वैसे उपेंद्र जी, क्या आपकी किताब दाउदनगर में पाठकों के लिये किसी पुस्तकालय या किताब दुकान में उपलब्ध है?
ReplyDeleteअपच तो ऐसे होता है कि आपके जानने समझने वालों से भी दुरी रखी जाती है और भ्रामक तथ्य भी प्रस्तुत किये जाते है। साध्वी का प्रवचन मैंने भी सुना जिसमे बहुत सी बातें बिना सर पैर का था। जिसका की कोई औचित्य नहीं था। हिन्दू और हिदुत्व होना अपने आप में हिंदुओं की लिए गर्व है। जैसा की अन्य धर्म के लोग गौरवांवित होतें है। दाउदनगर का अपना इतिहास है जो की आपने अब तक जितनी गहराइयों से जाना है परिश्रम किया है वह सराहनीय है। दूसरे और को इस गहराइयों की जानने की कोशिश करनी चाहिए उससे इतिहास निखारता है।
ReplyDeleteKuchh log naam badal Kar sochte hai ki Maine Vikash Kar liya.........
ReplyDeleteName change krne se kya hoga..
ReplyDeleteBe real Be practical
दाऊदनगर का नाम बदलने की राजनीति करने वाले वही लोग हैं जो अपने जीवन में असफल हो गए, जॉब के लायक तो थे नहीं, तो अब अपने आप को कट्टर मुस्लिम विरोधी छवी वाली पहचान बनाने की कोशिश में लगे हैं ताकि उनका राजनीतिक कैरियर सेट हो सके, उसके बाद लूट खसोट कर सरकारी फ़ंड वाली मलाई खाए, जहरीले भाषा का प्रयोग कर नफरत फैलाये, दंगा भड़काये, उसके बाद तो उनकी छवि अपने समाज में बाहुबलि वाली हो जाएगी, उसके बाद तो उनकी पौ बारह... 👎👎
ReplyDeleteकिसी को इतना आनंद क्यूँ आता है जब "सौहार्द जाए भाड़ में" कहते हैं जहां से, इनको इतना कहने का हक़ किसने दिया।
ReplyDeleteदाउदनगर ने जो कुछ भी खोया है उसकी भरपाई तो नहीं हो सकती हाँ रिपेयरिंग जरूर की जा सकती है उन सौहार्द बिगाड़ने वालो को चिन्हित करके।
वैसे नामकरण का दौर कबतक यूँहीं चलता रहेगा भगवन ही जानता है।