Friday, 21 November 2025

बुनकरी के लिए मशहूर हुआ करता था दाउदनगर

 


मच्छरदानी, चादर, पितांबरी बनते थे घर घर

तांती तंतवा, पटवा जाति का था खानदानी काम

मुजफ्फरपुर और मानपुर से मंगाते थे कच्चा माल

झारखंड और छत्तीसगढ़ से आते थे रेशम के कोआ

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : 16 वीं के शहर दाउदनगर में लगभग उसी वक्त से हथकरघा का काम होने लगा था। तांती, तंतवा और पटवा जातियां यहां बसी हुई थीं। पाट पर जो बुनाई का काम करते थे उसे पटवा कहा जाने लगा। यहां तांत, रेशम का काम जो लोग करते थे, उन्हें तांती कहा जाता है। यह जाति अतीत में विश्वकर्मा पूजा करती रही है। ततवां जाति की आबादी कम है। यह बुनकर जातियां अपने व्यवसाय में निपुण मानी जाती थीं। कच्चा माल भागलपुर और गया के मानपुर से लाते थे। मुजफ्फरपुर के सुत्तापट्टी से सूत लाया जाता था। मानपुर गया से उसे रंगवाया जाता था। भागलपुर से रेशम का कोआ आता था। पलामु और छत्तीसगढ के बोहला (रामानुजगंज) से भी कोआ मंगाया जाता था। गमछा, जनता धोती, साड़ी, पितांबरी (कफन) की बुनाई होती थी। सीताराम आर्य को उनके पिता श्याम लाल आर्य ने बताया था कि जनता धोती प्रचलित ब्रांड बन गया था। कभी शहर में सौ से अधिक घरों में बुनकरी का काम होता था। जब मशीनीकरण का युग प्रारंभ हुआ तो दाउदनगर का हथकरघा उद्योग धीरे धीरे समाप्त होता चला गया। बेसलाल राम वल्द डोमनी राम के घर दो दशक पूर्व तक दो हथकरघा चलता था। कपड़ा बीनने का काम व्यापक पैमाने पर होता था। बरसात के कारण मात्र भादो में आठ दिन काम बंद करना पड़ता था। इस समय खूब मौज मस्ती की जाती थी। बस खाओ-पीओ और मौज करो। शहर में अब बुनकरी का काम नहीं होता है। कभी शहर की मुख्य जाति की समृद्धि के गीत लिखने वाला बुनकरी का काम अब पूरी तरह विलुप्त हो गया है।


बनाये जाते थे दरी, कालीन भी

जब बुनकरी का काम समाप्त हो गया तो बुनकर वर्ग के लोग ठेकेदारी, मजदूरी, अन्य व्यवसाय में उतर गए। शिक्षा नहीं थी लेकिन आज शिक्षित भी हैं, और बडे़ पैमाने पर नौकरी के साथ अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। दरी-कालीन एवं कंबल बुनाई का काम भी छोटे स्तर पर यहां होता था। चूंकि बगल के ओबरा में कालीन का उद्योग राष्ट्रीय स्तर पर भदोही के बाद दूसरे पायदान पर काबिज था तो यहां उसकी संभावना कम बन सकी।


महंगाई और गुणवत्ता के कारण काम बंद

कपड़े के व्यवसाय से जुड़े सीताराम आर्य का पूरा खानदान हस्तकरघा का काम करता था। वह बताते हैं कि उनके पिता श्याम लाल और भाइयों लाल बिहारी व अन्य के साथ स्वयं भी करघा चलाते थे। लगभग 25 साल से बुनकारी का काम पूरे शहर में पूरी तरह बंद हो गया है। बताया कि मानपुर से आने वाला धागा तक बाद में काफी महंगा हो गया। हथकरघा से निर्मित कपड़ों की बाजार में मांग कम हो गई। बाहर बड़े मीलों से निर्मित कपड़ों की गुणवत्ता इससे अधिक बेहतर लोगों को लगने लगी। नतीजा बिक्री कम हुई और फिर धीरे-धीरे वह पूरी तरह बंद हो गया। जब उद्योग पर संकट मंडराने लगा तो लोग खादी भंडार से जुड़े। उनके लिए चादर बनाने लगे। लेकिन एक दशक भी यह काम नहीं चला और अंत तक पूरी तरह बंद हो गया।


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