Friday, 21 November 2025

बुनकरी के लिए मशहूर हुआ करता था दाउदनगर

 


मच्छरदानी, चादर, पितांबरी बनते थे घर घर

तांती तंतवा, पटवा जाति का था खानदानी काम

मुजफ्फरपुर और मानपुर से मंगाते थे कच्चा माल

झारखंड और छत्तीसगढ़ से आते थे रेशम के कोआ

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : 16 वीं के शहर दाउदनगर में लगभग उसी वक्त से हथकरघा का काम होने लगा था। तांती, तंतवा और पटवा जातियां यहां बसी हुई थीं। पाट पर जो बुनाई का काम करते थे उसे पटवा कहा जाने लगा। यहां तांत, रेशम का काम जो लोग करते थे, उन्हें तांती कहा जाता है। यह जाति अतीत में विश्वकर्मा पूजा करती रही है। ततवां जाति की आबादी कम है। यह बुनकर जातियां अपने व्यवसाय में निपुण मानी जाती थीं। कच्चा माल भागलपुर और गया के मानपुर से लाते थे। मुजफ्फरपुर के सुत्तापट्टी से सूत लाया जाता था। मानपुर गया से उसे रंगवाया जाता था। भागलपुर से रेशम का कोआ आता था। पलामु और छत्तीसगढ के बोहला (रामानुजगंज) से भी कोआ मंगाया जाता था। गमछा, जनता धोती, साड़ी, पितांबरी (कफन) की बुनाई होती थी। सीताराम आर्य को उनके पिता श्याम लाल आर्य ने बताया था कि जनता धोती प्रचलित ब्रांड बन गया था। कभी शहर में सौ से अधिक घरों में बुनकरी का काम होता था। जब मशीनीकरण का युग प्रारंभ हुआ तो दाउदनगर का हथकरघा उद्योग धीरे धीरे समाप्त होता चला गया। बेसलाल राम वल्द डोमनी राम के घर दो दशक पूर्व तक दो हथकरघा चलता था। कपड़ा बीनने का काम व्यापक पैमाने पर होता था। बरसात के कारण मात्र भादो में आठ दिन काम बंद करना पड़ता था। इस समय खूब मौज मस्ती की जाती थी। बस खाओ-पीओ और मौज करो। शहर में अब बुनकरी का काम नहीं होता है। कभी शहर की मुख्य जाति की समृद्धि के गीत लिखने वाला बुनकरी का काम अब पूरी तरह विलुप्त हो गया है।


बनाये जाते थे दरी, कालीन भी

जब बुनकरी का काम समाप्त हो गया तो बुनकर वर्ग के लोग ठेकेदारी, मजदूरी, अन्य व्यवसाय में उतर गए। शिक्षा नहीं थी लेकिन आज शिक्षित भी हैं, और बडे़ पैमाने पर नौकरी के साथ अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। दरी-कालीन एवं कंबल बुनाई का काम भी छोटे स्तर पर यहां होता था। चूंकि बगल के ओबरा में कालीन का उद्योग राष्ट्रीय स्तर पर भदोही के बाद दूसरे पायदान पर काबिज था तो यहां उसकी संभावना कम बन सकी।


महंगाई और गुणवत्ता के कारण काम बंद

कपड़े के व्यवसाय से जुड़े सीताराम आर्य का पूरा खानदान हस्तकरघा का काम करता था। वह बताते हैं कि उनके पिता श्याम लाल और भाइयों लाल बिहारी व अन्य के साथ स्वयं भी करघा चलाते थे। लगभग 25 साल से बुनकारी का काम पूरे शहर में पूरी तरह बंद हो गया है। बताया कि मानपुर से आने वाला धागा तक बाद में काफी महंगा हो गया। हथकरघा से निर्मित कपड़ों की बाजार में मांग कम हो गई। बाहर बड़े मीलों से निर्मित कपड़ों की गुणवत्ता इससे अधिक बेहतर लोगों को लगने लगी। नतीजा बिक्री कम हुई और फिर धीरे-धीरे वह पूरी तरह बंद हो गया। जब उद्योग पर संकट मंडराने लगा तो लोग खादी भंडार से जुड़े। उनके लिए चादर बनाने लगे। लेकिन एक दशक भी यह काम नहीं चला और अंत तक पूरी तरह बंद हो गया।


Thursday, 20 November 2025

40 वर्ष तक चरम पर था कभी बर्तन उद्योग

 


फोटो-बर्तन बनाते भोला प्रसाद कांस्यकार

तीन बेलन मिलों से मिली थी पीतल उद्योग को प्रतिष्ठा

स्वतंत्रता पश्चात बिगड़ती गयी स्थिति, अंततः सब बर्बाद

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : कभी शहर में कुटीर उद्योग के रुप में बर्तन निर्माण का कार्य व्यापक पैमाने पर होता था। बीसवीं सदी में जब भारत आजाद हुआ और 1965 में चीन ने हमला किया तब सैनिकों के लिए भी यहां के बने बर्तन भेजे गये थे। इसके पीछे की ताकत थी मशीनीकरण का होना। शुक्रबाजार ठाकुरबाड़ी से लेकर नगरपालिका तक और पूरब में बम रोड तक कसेरा एवं ठठेरा बसे हुए थे। यहां जिस पैमाने पर बर्तन बनते थे उस पैमाने पर सिर्फ मिरजापुर (उत्तर प्रदेश) में ही बनता था। इधर बिहार में आरा के पास परेव में आज भी यह निर्माण कार्य व्यापक पैमाने पर होता है मगर दाउदनगर में मात्र दो, चार परिवार तक यह काम सीमित हो गया है। वजह साफ है। समय के साथ मशीनीकरण की ओर यह इलाका नहीं बढ़ सका। बिहार में दूसरे कल कारखाने भी विकसित नहीं हो सके। आजादी के बाद स्थिति बिगड़ती गई और अंतत: सब कुछ खत्म हो गया। एक जमाना था, खासकर सात दशक पूर्व तक कि बर्तन बनाने से निकलने वाली ठक-ठक की आवाज सोन उस पार नासरीगंज तक सुनाई पड़ती थी। इसका चरम समय था 1920 के बाद से 1960 के दशक तक का। जब यहां तीन बेलन मिल लगाये गये थे। सन 1910 में सिपहां में स्थापित संगम साव रामचरण राम आयल एण्ड राइस मिल ने ये मशीनें लगायीं थीं। शुक्रबाजार में उमाशंकर जगदीश प्रसाद रौलिंग मिल, हनुमान मंदिर के नजदीक (बुद्धा मार्केट) श्रीराम बेलन मिल एवं चावल बाजार में संगम साव राम चरण साव रौलिंग मिल लगाया गया था। तीनों जगह बेलन मिल लगाए जाने से बर्तन निर्माताओं को काफी सहुलियत हुई। 

यहां सर्वाधिक 90 प्रतिशत से अधिक निर्माण पीतल की कठौती बनाने का होता था। पीतल को कोयला की भट्ठी में गलाया जाता था। उसे खोटी (एक प्रकार का बर्तन) में ढाल दिया जाता था। उसे जब ठोस आकार मिल गया तो बडा हथौड़ा जिसे घन भी कहते हैं, से पीट-पीट कर एक मीटर का घेरा में फैलाया जाता था। फिर गहरा बनाया जाता था। उसके बाद उस पर गोल-गोल बिन्दी आकार में चमक लाने के लिए पीटा जाता था। जब बेलन मिल लगा तो मजदूरों की समस्या कम हुई, मगर ठक-ठक होती रही। क्योंकि गहराई और चमक लाने का काम तब भी हाथ से ही किया जाता रहा। मिल सिर्फ खोटी को बेल कर आवश्यकतानुसार आकार दे देते थे। शुरु में मजदूरों को लगा कि मशीनीकरण से इनकी समस्या कम हुई है। यह औद्योगिकीकरण की शुरुआत भर थी, जिसने धीरे-धीरे श्रम की सामूहिक संस्कृति को खत्म किया। भोला प्रसाद कांस्यकार बताते हैं जीविकोपार्जन के लिए बर्तन दुकानदारों के लिये अब कारीगर मजदुरी पर पीतल के हांडी बनाने का काम कर रहे हैं। कारीगरों के पास पूंजी का अभाव है।



अन्य प्रदेश को पलायन मजबूरी

कसेरा टोली निवासी धीरज कसेरा कहते हैं कि आधुनिक एवं नये डिजाइन के वस्तुओं के निर्माण के लिए कोई नई तकनीकी प्रशिक्षण उपलब्ध नहीं है। पूंजी के अभाव के कारण आधुनिक मशीनों की खरीदारी नहीं कर पा रहें हैं कारीगर। यही कारण है कि दाउदनगर से कारीगर अन्य राज्यों में पलायन करते जा रहे हैं।


कांस्यकार समाज का पुश्तैनी कारोबार

कांस्यकार या कसेरा जाति का इस पुश्तैनी धन्धे पर कब्जा था। व्यापक पैमाने पर निर्माण ने घरों को, परिवारों को काफी समृद्ध बनाया। इस जाति समूह से दो जातियां यहां पूरब दिशा से आयीं। कसेरा जो पीतल का काम करते थे और ठठेरा जो कसकूट (लोटा) बनाने का काम करते थे। यहां तमेढ़ा जाति की बसावट नहीं है। यह जाति तांबा का काम करती है। यहां तांबा का बर्तन नहीं बनता था।



कभी ठुकरा दिया था प्रमुख की कुर्सी, अब बन गए विधायक

 


फोटो-पूर्व प्रमुख संजय सोम, विधायक डा. प्रकाशचंद्र व संजय पटेल

2004 में बनी तिकड़ी की सक्रियता से मिली सफलता

पंचायत समिति की राजनीति कर बने विधायक

प्रमुख बनने की राजनीति से कर दिया था इंकार 

दो साल रहे हैं दाउदनगर के पंचायत समिति सदस्य

 संवाद सहयोगी, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : ओबरा के नवनिर्वाचित विधायक डा. प्रकाश चंद्र की राजनीतिक यात्रा पंचायत समिति की राजनीति से शुरू हुई थी। उन्होंने अनुकूल परिस्थिति के बीच प्रमुख बनने से इंकार कर दिया था। बिहार में त्रिस्तरीय ग्राम पंचायत का चुनाव 2001 में पुनः आरंभ हुआ था। तब तरारी क्षेत्र संख्या 13 से निर्वाचित हुए थे गंगा तिवारी, एक मामले में सजायाफ्ता होने के बाद विधि के तहत में पदच्युत कर दिए गए थे। इसके बाद यह पद रिक्त हो गया। यहां 2004 में उप चुनाव हुआ तो डा.प्रकाश चंद्र पहली बार राजनीति में आए। चुनाव लड़े और पंचायत समिति के सदस्य निर्वाचित घोषित किए गए। इनके साथ तब पंचायत समिति के सदस्य थे संजय सोम और संजय पटेल। वर्ष 2001 में चुनाव होने के बाद संजय सोम प्रमुख बने थे। एक साल के बाद उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया और उन्हें पद छोड़ना पड़ा। जब तीनों की तिकड़ी बनी तो एक कोशिश यह की गई कि डा. प्रकाश चंद्र को प्रमुख बनाया जाए। तब 21 सदस्य पंचायत समिति में 12 सदस्यों का समर्थन प्रमुख बनने के लिए आवश्यक था। संजय सोम और संजय पटेल बताते हैं कि तब 14 सदस्यों का हस्ताक्षर भी कर लिया गया था। लेकिन प्रकाश चंद्र ने प्रमुख बनने से अंतिम समय में इनकार कर दिया। फिर समाज सेवा में सक्रिय रहे। कोई चुनाव नहीं लड़ा। उसके बाद 2020 में विधानसभा का चुनाव लोक जनशक्ति पार्टी से लड़ा और दूसरे स्थान पर रहे। इस बार लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास से एनडीए के समर्थन से प्रत्याशी बने और राजग के आधार वोटरों और समर्थकों की एकजूटता के कारण उनकी जीत सुनिश्चित हो गई। तब से ही बनी यह तिकड़ी लगातार सक्रिय रही। स्वयं डा. प्रकाश चंद्र भी सार्वजनिक मंच से कई बार बता चुके हैं कि राजनीति में इन दोनों ने ही उनको लाया और लगातार राजनीतिक तौर पर सहयोग किया। 


जबरन नैरेटिव सेट करने और आक्रामक मिजाज की हार



जनता का मनोविज्ञान नहीं समझ सके विरोधी 

दशमलव वाली जातियों ने बदल दिया पूरा खेल 

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : ओबरा से एनडीए जीत गया जबकि उसे हराने के लिए हर प्रकार का भला बुरा कार्य विरोधियों ने किया। इंटरनेट मीडिया पर गालियां लिखी गई। खुला चैलेंज किया गया कि किसी कीमत पर ओबरा से एनडीए नहीं जीत सकता। महागठबंधन समर्थक 50 से 60000 वोट से जीतने का दावा कर रहे थे। वोटिंग से कुछ घंटे पहले हाथ में लालटेन लिए एनडीए के प्रत्याशी प्रकाश चंद्र की तस्वीर इंटरनेट मीडिया पर वायरल की गई और कहा गया कि उन्होंने भी हार मान ली। महागठबंधन के प्रत्याशी ऋषि कुमार का समर्थन कर दिया। प्रकाश चंद्र को घृणा भाव से देखने वाले कुछ लोग जबरदस्ती नैरेटिव सेट कर रहे थे।  जनता ने चुपचाप जवाब दे दिया। जनता को पता है कि प्रकाश चंद्र को गलियाने वाले अपनी जाति के लोगों की प्रशंसा करते हैं। आक्रामक जातिवाद लोगों को गोलबंद करने में सफल रहा। जन सुराज के प्रत्याशी सुधीर शर्मा ने लिखा- “ओबरा में कुछ लोग उल्टी गंगा बहाना चाहते थे, प्रकाशचंद्र और मुझे दोनों को हराना चाहते थे। प्रकाशचंद्र की जीत उन्हीं लोगों को समर्पित। जनता के मनोविज्ञान की सामान्य समझ भी ऐसे लोगों को नहीं थी। इन्होंने लिखा कि ऐसे लोगों को आगाह किया था।” लेकिन माना जाता है कि नफरत जब कोई किसी से करता है तो उसे कुछ भी अच्छा नहीं दिखता। एनडीए के कुनबे में यह बात घर बैठ गई थी कि अबकी नहीं तो कहियो नहीं। दूसरी तरफ एक प्रतिशत से कम संख्या वाली जातियां चुपचाप हेलीकाप्टर पर चढ़ गए। उन्हें आक्रामकता स्वीकार्य नहीं थी, और भय ने एकजुट कर दिया। उन्हें यह विश्वास था कि एनडीए के प्रत्याशी प्रकाश चंद्र से  जातिवाद या आक्रामक होने का खतरा नहीं है। उल्टे प्रकाश चंद्र के दिए गए वचन इन लोगों में आशा जगा गया। इनका ध्रुवीकरण उनके पक्ष में हो गया और नतीजा सबके सामने है। एनडीए ओबरा से 12013 वोट से जीत गयी।



रणनीति के तहत जनसभा नहीं


विधानसभा चुनाव का प्रत्याशी आम तौर पर अपने दल और गठबंधन के बड़े नेताओं को अपने विधानसभा क्षेत्र में बुलाता है और जनसभा का आयोजन करवाता है। रोड शो करवाता है। जिला में अन्य विधानसभा क्षेत्र में ऐसा हुआ। लेकिन ओबरा विधानसभा क्षेत्र इस मामले में एक हद तक अपवाद रहा। सिर्फ एक चुनावी सभा एनडीए की हुई। लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास के सुप्रीमो और केंद्र में मंत्री चिराग पासवान की सभा ओबरा में हुई। इसके अलावा एनडीए के किसी दल के नेता को यहां नहीं बुलाया गया  लोगों को लग रहा था कि नीतीश कुमार, सम्राट चौधरी, उपेंद्र कुशवाहा, विजय सिंहा समेत अन्य नेताओं को ना बुलाना भारी पड़ सकता है। लेकिन चुनाव परिणाम जब आया तो स्पष्ट हो गया कि ना बुलाने की रणनीति भी सफल रही। पिछले चुनाव में डा. प्रकाश चंद्र ने अमीषा पटेल को बुलाया था। तब हुई उनकी हार की कई वजहों में एक वजह सेलेब्रेटी का रोड शो भी माना गया था। इसलिए इस बार उन्होंने खुद ही अधिकतम गांव और घरों को संपर्क किया और उपेंद्र कुशवाहा सायन कुणाल, सुनील पांडे जैसे नेता चिन्हित गांवों में जनसंपर्क किये लेकिन बड़ी सभा नहीं किया। यह सब एक रणनीति के तहत किया गया था जिसे अब कामयाब माना जा रहा है।




Saturday, 15 November 2025

समाजवाद और वामपंथ की जमीन पर दक्षिण पंथ को मिली उड़ान



45 साल का सूखा प्रकाश चंद्र ने किया समाप्त 

1980 में जीती थी भाजपा, हारते रहा है दक्षिणपंथी गठबंधन

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : ओबरा की जमीन को समाजवादियों की थाती मानी जाती रही है। हमेशा उसी की जीत होते रही है और दो बार अगर कोई जीता भी तो वह वामपंथी। मात्र एक बार वर्ष 1980 में भाजपा के वीरेंद्र प्रसाद सिंह चुनाव जीत सके थे। इसके बाद भाजपा के साथ गठबंधन करने वाली कोई पार्टी चुनाव नहीं जीत सकी। हालांकि ऐसा गठबंधन मुकाबले में बना रहा। एक बार करीबी हार भी एनडीए को झेलनी पड़ी है। इस बार- अबकी नहीं तो कहियो नहीं, का चुनावी पंच लाइन सफल रहा और जो मुकाबला थोड़ा तीखा दिख रहा था अंततः आसन रहा। किसी चरण में एनडीए समर्थित लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास के प्रत्याशी डा. प्रकाश चंद्र पिछड़े नहीं और उनकी जीत हुई। उनके जीत के कई मायने हैं। इस जमीन पर 1952 में सोशलिस्ट पार्टी से पदारथ सिंह चुनाव जीते। 1962 में यह सीट आरक्षित हो गई तो दिलकेश्वर राम इंडियन नेशनल कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में जीते। अगले चुनाव वर्ष 1967 में यह फिर से सामान्य सीट हो गई और रघुवंश कुमार सिंह बतौर कांग्रेस प्रत्याशी चुनाव जीत गए। वर्ष 1969 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संत पदारथ सिंह चुनाव जीते। वर्ष 1972 में इंडियन नेशनल कांग्रेस के नारायण सिंह, 1977 में जेएनपी से रामविलास सिंह चुनाव जीत गए। वर्ष 1980 में ही भाजपा की स्थापना हुई थी और इसी वर्ष हुए चुनाव में कोइलवां निवासी वीरेंद्र प्रसाद सिंह चुनाव जीतने में सफल रहे। यह पहली घटना थी जब ओबरा से दक्षिणपंथ की जीत हुई थी। उसके बाद लगातार सुख बना रहा। वर्ष 1985 में रामविलास सिंह लोक दल से और 1990 में जनता दल से चुनाव जीत गए। जब दाउदनगर शहर एकजुट हुआ तो 1995 में वामपंथ के साथ हो लिया। वर्ष 1995 और 2000 में भाकपा माले लिबरेशन के प्रत्याशी राजाराम सिंह को एक तरफ़ा वोट देकर जीता दिया। इसके बाद वर्ष 2005 के फरवरी और अक्टूबर में हुए दो चुनाव में लगातार राजद से सत्यनारायण सिंह चुनाव जीते। वर्ष 2010 में फिर से ओबरा ने करवट लिया और निर्दलीय सोम प्रकाश सिंह चुनाव जीत गए। वर्ष 2015 में राजद से वीरेंद्र कुमार सिंह तो 2020 में ऋषि कुमार चुनाव जीते। इसलिए इस बार यह नारा बुलंद था कि- अबकी नहीं तो कभी नहीं। और इसके पीछे डा. प्रकाश चंद्र के कर्म और व्यवहार का आधार विश्वास की नींव बना था। इसके पहले अगर हम देखें तो दो बार ऐसा लगा था कि दक्षिण पंथी भाजपा से गठबंधन करने वाला दल जीत सकता है। वर्ष 2010 में प्रमोद सिंह चंद्रवंशी जीतते दिखे किन्तु अंततः 802 मत से हार गए। इसके बाद 2015 में यह सीट आरएलएसपी के खाते में चली गई और चंद्रभूषण वर्मा चुनाव लड़ने आए। वे 44646 वोट लाकर 11496 वोट से हार गए।


12322 मत मिला एनडीए को नप क्षेत्र में



 4226 मतों से शहर जीत सके प्रकाश चंद्र

8096 मत ले सका महागठबंधन

सबसे अधिक चौंकाया तौफीक आलम ने

जनसुराज पार्टी और बसपा से अधिक वोट निर्दलीय को 

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : दाउदनगर शहर में कुल 41 मतदान केंद्र पर 22758 मतदाताओं ने वोट डाले। जबकि कुल मतदाताओं की संख्या 39164 है। शहर में प्राय: एनडीए ही जीतते रहा है। लेकिन इस बार एनडीए और महागठबंधन के बीच का फ़ासला संतोषजनक नहीं माना जा रहा। एनडीए समर्थित लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास के प्रत्याशी डा. प्रकाश चंद्र को 12322 वोट मिला, जबकि महागठबंधन समर्थित राजद के प्रत्याशी ऋषि कुमार को 8096 मत। दोनों के बीच 4226 मतों का अंतर रहा। राजग समर्थकों के अनुसार यह फासला और अधिक होने का अनुमान था। बहरहाल इस दूसरे और तीसरे स्थान पर रहने वाले प्रत्याशियों से अधिक मोहम्मद तौफीक आलम ने चौंकाया। इस निर्दलीय प्रत्याशी को 505 मत मिला और यह तीसरा स्थान पर है। उर्मिला गैस एजेंसी में कार्यरत यह ऐसा प्रत्याशी है जिसने नामांकन के बाद किसी व्यक्ति को अपने हिस्से मत देने के लिए भी नहीं कहा। कोई प्रचार नहीं किया। इसके बावजूद इसे इतना मत मिला। इसे अपने-अपने हिसाब से लोग देख रहे हैं। तौफीक को इतना मत मिलना आश्चर्जनक लगता है। यह जन सुराज पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशियों को सदमे में डालने वाला है। जनसुरज पार्टी के सुप्रीमो प्रशांत किशोर ने प्रमोद सिंह चौक से लेकर भखरुआं तक रोड शो किया था। इसके बावजूद उनके प्रत्याशी सुधीर कुमार शर्मा को मात्र 404 मत प्राप्त हुआ। शहर में रोड शो करने वाले बसपा के प्रत्याशी संजय कुमार को मात्र 245 मत प्राप्त हुआ। चौंकाने वाली दूसरी बात यह रही कि ओबरा से निर्दलीय विधायक रहे सोम प्रकाश को मात्र 80 मत मिला और वे 11 वें स्थान पर चले गए। जबकि रामराज यादव (निर्दलीय-247), हरि संत कुमार (निर्दलीय-147), 

प्रतिमा कुमारी (राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी-122), शिवनाथ साव (निर्दलीय-121) और बृज किशोर सिंह (निर्दलीय-101) को कोई जानता तक नहीं और न ही इन्होंने कभी प्रचार किया। इसके बावजूद सोम प्रकाश से अधिक मत लाने में सफल रहे। यह परिणाम बताता है कि शहर में राजद अपना प्रभाव बढ़ाता जा रहा है। वह मजबूत हो रहा है। डा. प्रकाश चंद्र को बाजार में और काम करने की जरूरत है, लोगों से मिलने और संबन्ध प्रगाढ़ करने की आवश्यक्ता है। वहीं सोम प्रकाश के लिए नगर परिषद क्षेत्र काफी दूर है। 



ओबरा के 18 प्रत्याशी को नगर परिषद के 41 मतदान केंद्रों पर मिला मत इस प्रकार है:-



प्रत्याशी का नाम- दल संबद्धता- प्राप्त मत


1-प्रकाश चंद्र- लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास-12322

2-ऋषि कुमार- राष्ट्रीय जनता दल-8096

3-मोहम्मद तौफीक आलम -निर्दलीय-505

4-सुधीर कुमार शर्मा- जन सुराज पार्टी-404

5-संजय कुमार- बहुजन समाज पार्टी-245

6-रामराज यादव- निर्दलीय-247 

7-हरि संत कुमार- निर्दलीय-147 

8-प्रतिमा कुमारी -राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी-122

9-शिवनाथ साव- निर्दलीय-121

10-बृज किशोर सिंह- निर्दलीय-101 

11-सोम प्रकाश- स्वराज पार्टी लोकतांत्रिक-80

12-धर्मेंद्र कुमार- जागरूक जनता पार्टी-57

13-धीरज कुमार- निर्दलीय-53

14-जितेंद्र दुबे -अखिल भारतीय जनसंघ-47

15-डा.धर्मेंद्र कुमार -अखिल हिंद फ़ारवर्ड ब्लाक क्रांतिकारी-42

16-जयनंद राम- न्यू इंडिया यूनाइटेड पार्टी-23

17-अजीत कुमार- आम जनता पार्टी राष्ट्रीय-18

18-उदय नारायण राजभर- सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी- 18

नोटा-111


नौ को नोटा से भी कम मत


18 में नौ प्रत्याशियों को नोटा से भी कम वोट मिला है। नगर परिषद क्षेत्र में 111 मत नोटा को गया है। यानी इन लोगों ने किसी प्रत्याशी को पसंद नहीं किया जबकि 18 प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे थे। इन नौ प्रत्याशियों में सबसे चर्चित नाम सोम प्रकाश का भी शामिल है, जो ओबरा से विधायक रहे हैं। उनको मात्र 80 मत मिला है।


Wednesday, 12 November 2025

23180 शहरी मतदाता कर रहे प्रत्याशियों को परेशान

बनिया मिजाज वाले शहरी मतदाता खुल नहीं रहे

परिणाम के बाद ही स्पष्ट हो सकेगी स्थिति

हार-जीत का अंतर ही नहीं निर्णायक है शहरी चुप्पा वोटर

  उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : ओबरा विधानसभा क्षेत्र में कुल 387 मतदान केंद्र हैं। पूरे विधानसभा क्षेत्र में 318686 मतदाता हैं। मतदान केंद्र संख्या एक से लेकर 41 तक शहरी क्षेत्र में है। नगर परिषद क्षेत्र में स्थित सभी मतदान केंद्रों पर कुल 39164 मतदाता हैं। इसमें लगभग 59.18 प्रतिशत यानी 23180 ने मतदान किया है। मतदान किसके पक्ष में अधिक हुआ किसके पक्ष में कम, यह समझना मुश्किल है। बनिया मिजाज का यह शहर चुप्पा वोट बैंक है। इसमें मात्र एक छोटा हिस्सा है जो खुलेआम यह कह रहा है कि उसने किसे मतदान किया। अन्यथा तमाम मतदाता चुप्पी साधे हुए हैं। इस कारण प्रत्याशी परेशान हैं। शहर में मत प्राप्त करने के लिए राजद के ऋषि कुमार, लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास के डा.प्रकाश चंद्र ने अपने हिसाब से पर्याप्त परिश्रम किया है। इनके अलावा जनसुराज पार्टी के सुधीर कुमार शर्मा और बसपा के संजय कुमार ने भी प्रयास किया है। इन दोनों ने बजाप्ता नगर यात्रा की। सुधीर कुमार शर्मा के पक्ष में तो प्रशांत किशोर तक शामिल हुए। अब सवाल यह होता है कि कितना किसे मिला। यह समझना मुश्किल है। आमतौर पर माना यही जा रहा है कि सर्वाधिक मत राजग समर्थित लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास के प्रत्याशी डा. प्रकाशचंद्र को मिलेगा। इसके बाद राजद को। बाकी में किसे कितना मिलेगा इसका क्रम भी तय करना बड़ा मुश्किल है।



प्रमोद चंद्रवंशी से पहले पीछे ही रहता था राजग

दाउदनगर शहर की स्थिति यह रही है कि अक्टूबर 2005 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में 23315 मत लाकर तीसरे स्थान पर रहने वाले जदयू प्रत्याशी प्रमोद सिंह चंद्रवंशी शहरी क्षेत्र में सबसे आगे थे। इसके पहले कभी एनडीए या भाजपा या जदयू आगे नहीं रहा है। वर्ष 1995 और 2000 में शहर का सर्वाधिक मत राजाराम सिंह को प्राप्त हुआ था। 2005 अक्टूबर के साथ प्रायः सभी चुनाव में शहरी मतदाता राजग के साथ ही गोलबंद हुए हैं। ऐसा ही इस बार भी होगा यह सभी मान रहे हैं। शहरी क्षेत्र में प्राप्त मतों का अंतर ओबरा विधानसभा चुनाव का परिणाम तय कर सकता है और हार-जीत का अंतर भी।


Sunday, 9 November 2025

मतदान करने के लिए काम छोड़ ठहरे हैं 5000 से अधिक मतदाता

 


कार्तिक पूर्णिमा के बाद यूपी व एमपी चले जाते हैं तांती जाति के लोग 


निर्माण कार्यों में बतौर श्रमिक करते हैं राष्ट्र निर्माण में योगदान 


प्रत्येक वर्ष तीन बार एप्ने पैतृक घर लौटते हैं काम से श्रमिक


उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : शहर में पान, तांती व तंतवा समाज की बड़ी आबादी है। जिसे आमतौर पर यहां पटवा शब्द से संबोधित किया जाता है। यहां बड़े मोहल्ले में पटवा टोली शामिल है। शहर में इनकी आबादी लगभग 10000 से अधिक बताई जाती है। इसमें से आधी से अधिक आबादी बाहर रहती है। लगभग 5000 लोग बिहार से बाहर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के विभिन्न शहरों में काम के लिए रहते हैं। इनके जिम्मे निर्माण का काम है। सड़क, नाला, पुल, बांध के निर्माण कार्य में चाहे कच्चा काम हो या पक्का काम यह मजदूर वहां काम करते हैं। जानकी प्रसाद व वीरेंद्र कुमार का कहना है कि अब कच्चा काम कम होता है। एक वर्ष में तीन बार बाहर रहने वाले पान तांती समाज के लोग शहर आकर अपने पैतृक घर में रहते हैं। वैशाख में करीब एक महीना के लिए यह आबादी शहर में रहती है और शादी विवाह जैसे शुभ मुहूर्त वाले काम निपटाती है। दूसरी बार सावन में 15 से 20 दिन रहने के बाद सावन पूर्णिमा के बाद पुन: अपने काम पर वापस लौट जाते हैं। तीसरी बार कार्तिक महीने में दीपावली तक सभी आ जाते हैं और कार्तिक पूर्णिमा के बाद चले जाते हैं। इस बार कार्तिक पूर्णिमा (पांच नवम्बर) के एक सप्ताह के अंदर बिहार विधानसभा का चुनाव होना है। 11 नवम्बर को यहां मतदान होना है। इसलिए तमाम लोग यहीं अभी ठहरे हुए हैं। मतदान करने के बाद 12 नवंबर से यह लोग अपने काम पर लौटने लगेंगे।


इन शहरों में रहते हैं यह मजदूर


बिहार से बाहर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, देवरिया, बहराइच, गोंडा, अयोध्या, फैजाबाद, लखनऊ, इलाहाबाद, लखीमपुर, वाराणसी, बलिया, उन्नाव, चुनार और मध्य प्रदेश के बांदा, रीवां जैसे जिलों में फिलहाल इस जाति के लोग बतौर मजदूर काम करते हैं।



1200 रुपये प्रतिदिन मजदूरी, इस तरह का जीवन

आमतौर पर जो मजदूर होते हैं वह पति-पत्नी दोनों एक साथ काम करते हैं। जानकी प्रसाद ने बताया कि अभी पति-पत्नी को बतौर मजदूरी 1200 से 1300 रुपये प्रतिदिन मिलता है। जिस दिन काम नहीं करते हैं मजदूरी नहीं मिलती है। आठ से नौ घंटा प्रायः प्रतिदिन इन्हें काम करना होता है। जानकी प्रसाद अब काम करने नहीं जाते हैं। इनके तीन पुत्र सपरिवार अभी उत्तर प्रदेश में काम कर रहे हैं। बताया कि सुबह चार से पांच बजे खाना बनाकर फिर खाकर और दोपहर का खाना लेकर मजदूर काम पर जाते हैं। चार पांच बजे मजदूर फिर अपने आवासीय स्थल पर लौटते हैं और दैनिक जीवन का काम करते हैं। बताया कि मजदूर जहां काम करते हैं वहां अगर कोई सरकारी भवन खाली मिल गया तो उसमें रहते हैं अन्यथा टेंट लगाकर रहते हैं। वहीं खाना पीना रहना होता है।



कालीन उद्योग में 600 प्रतिदिन मजदूरी 

यहां के कुछ लोग भदोही में भी कालीन उद्योग में काम करते हैं। कालीन उद्योग में काम करने वाले वीरेंद्र कुमार बताते हैं कि वह भदोही में ही रहते हैं। कालीन बुनाई उद्योग में काम करते हैं। आय श्रम पर आधारित है। एक व्यक्ति दिनभर की मजदूरी करके 500 से 600 रुपये प्रतिदिन कमाता है। वह भी एक साल में तीन बार दाउदनगर अपने घर आते हैं। 




Saturday, 8 November 2025

टिप्पणियों से टूट रही सामाजिक मर्यादा व तानाबाना

 


प्रत्याशियों से अधिक समर्थकों के बीच तनाव 

समर्थकों की टिप्पणियां अलोकतांत्रिक और असहनीय 

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : चुनाव प्रचार चरम की तरफ है। तमाम प्रत्याशी अपने-अपने तरीके से प्रचार कर रहे हैं, अपना पक्ष जनता के बीच मतदाताओं के बीच रख रहे हैं। सभी अभ्यर्थी मतदाताओं को अपने लिए भगवान बता रहे हैं और शिष्ट भाषा में बात कर रहे हैं। एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप भी लगा रहे हैं। सभी विधानसभा क्षेत्र में मुख्य प्रत्याशी अपने प्रतिद्वंद्वी के विरुद्ध झूठे सच्चे आरोप लगा रहे हैं, लेकिन आरोपित करने का तरीका एक हद तक संयमित और शिष्ट है। दूसरी तरफ समर्थकों की स्थिति इतनी बदतर है कि वह बदजुबानी पर उतर आए हैं। जातिवाद का घिनौना रूप भी इंटरनेट मीडिया पर कई पोस्ट से साफ-साफ दिख रहे हैं। जातीय दंभ खुलकर दिख रहा है। प्रत्याशी चुनाव जीते या हारे, प्रायः सभी एक दूसरे के घर आते जाते हैं। घरेलू समारोह हो या सार्वजनिक कार्यक्रम हो, नेताओं को साथ बैठने और मंच से संबोधित करने में स्वयं में आपस में बात करने में कोई दिक्कत कोई हिचक नहीं रह जाती है। लेकिन समर्थकों की स्थिति यह है कि ना भाषा के स्तर पर संयमित हैं, और ना ही आरोप के स्तर पर संयमित हैं। जो काफी हद तक अलोकतांत्रिक और असहनीय है। स्थिति यह भी है कि संबंधों को भी तिलांजलि दे दी जा रही है। इस स्तर की क्रिया और प्रतिक्रिया हो रही है कि चुनाव बाद एक दूसरे के सामने खड़ा होने में भी  शर्म आएगी। हालांकि कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इंटरनेट मीडिया पर यह बात कह रहे हैं, समर्थकों को प्रेरित कर रहे हैं कि चुनाव आते जाते रहेगा लेकिन भाषा और आरोप लगाने के स्तर को मर्यादित रखा जाए, ताकि चुनाव बाद भी जिस समाज में हम रह रहे हैं वहां एक दूसरे का सामना कर सकें। कुछ लोग ऐसी टिप्पणियां कर रहे हैं जिसका जिक्र भी नहीं किया जा सकता और इससे समाज में तीखा विरोध, सामाजिक दूरी बढ़ाने के अलावा कोई लाभ नहीं होगा। लोग यह समझने के लिए तैयार नहीं दिख रहे कि लोग चुनाव जो लड़ रहे हैं नेता वह जीते या हारे एक साथ बैठेंगे। एक साथ दिखेंगे। और किसी का कोई काम नहीं रुकेगा। लेकिन आपस में जिस स्तर पर कटुता का प्रदर्शन किया जा रहा है, चुनाव बाद इससे मुश्किलें समर्थकों को ही होगी। सामाजिक दूरियां ना बढ़े यह तब हर हाल में ख्याल रखा जाना चाहिए जब राजनीतिक बयान बाजी हो या आरोप प्रत्यारोप या वाद विवाद हो। अन्यथा समाज को दिशा देने का दावा करने वाले राजनीतिक दल और उनके समर्थक चुनाव बाद खुद ही शर्मिंदा होते रहेंगे।


मुसलमानों के लिए उर्वर नहीं है गोह विस क्षेत्र की जमीन

 


गोह में 17 चुनाव में 13 मुस्लिम प्रत्याशी

सिर्फ एक बार कौकब कादरी रहे हैं प्रतिद्वंदी 

मात्र दो बार तीसरा कोण बना सके मुस्लिम प्रत्याशी 



उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : गोह विधानसभा क्षेत्र में 2020 तक 16 बार चुनाव हो चुका है। यह 17वां चुनाव है। इस बार के चुनाव में मात्र एक प्रत्याशी मोहम्मद एकलाख खान मुस्लिम हैं। इससे पहले का अगर इतिहास देखें तो कुल 17 चुनाव में तेरह मुस्लिम प्रत्याशी रहे हैं। लेकिन गोह की जमीन किसी मुस्लिम को सदन भेजने से परहेज करती रही। मुख्य प्रतिद्वंद्वी भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं बन पाए। मात्र एक बार इंडियन नेशनल कांग्रेस से चुनाव लड़ रहे कौकब कादरी दूसरे स्थान पर थे। वर्ष 2005 के फरवरी में हुए चुनाव में उनको 21953 वोट मिला था और वह जदयू के प्रत्याशी डा. रणविजय से तब 5859 वोट से हार गए थे। इसके अलावा दो बार ऐसा मौका मिला है जब त्रिकोणीय मुकाबले में मुसलमान प्रत्याशी रहा। खुद कौकब कादरी 2010 के चुनाव में इंडियन नेशनल कांग्रेस से चुनाव लड़ रहे थे और 8418 वोट लाकर तीसरा स्थान पर रहे। इससे पहले 1990 में आईपीएफ़ के मोहम्मद हामिद अंसारी 18119 मत प्राप्त कर तीसरे स्थान पर थे। यहां तक भी पहुंचना मुसलमान के लिए आसान नहीं रहा है। वर्ष 1969 में निर्दलीय एस अब्दुल अली चुनाव लड़े और 921 मत लाकर पांचवा स्थान पर रहे थे। 1980 में शोषित समाज दल से चुनाव रहे हबीबुर रहमान 2809 मत प्राप्त कर पांचवा स्थान पर थे। 1990 में डोमन खलीफा निर्दलीय चुनावी मैदान में थे। जिनको मात्र 80 मत प्राप्त हुआ और 19 में स्थान पर थे। जबकि समसुद्दीन अंसारी 66 मत प्राप्त कर बीसवें स्थान पर रहे। वर्ष 1995 में निर्दलीय चुनाव लड़ रहे अमजद अली 234 मत प्राप्त कर 23वें स्थान पर थे। वर्ष 2000 में कौकब कादरी ने 10234 मत प्राप्त कर इंडियन नेशनल कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में चौथा स्थान हासिल किया। इसी चुनाव में मोहम्मद सावन निर्दलीय चुनाव लड़े और 195 मत प्राप्त कर आठवें स्थान पर रहे। 2005 में मोहम्मद हामिद अंसारी एसपी से चुनाव लड़ रहे थे। मात्र 498 मत प्राप्त कर सातवें स्थान पर रहे। 2015 में एकलाख खान एसकेएलपी से चुनाव लड़े और 1563 मत प्राप्त कर नौवे स्थान पर रहे। 2020 में मोहम्मद एकलाख खान पीईसीपी से चुनाव लड़े और 1193 मत प्राप्त कर नौवें स्थान पर रहे।



गोह में 9.34 प्रतिशत मुस्लिम आबादी

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार गोह प्रखंड की आबादी 234400 है। इसमें मुस्लिम आबादी 6.08 प्रतिशत है। हसपुरा में 12.6 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है, जबकि कुल जनसंख्या 160820 है। अर्थात गोह विधानसभा क्षेत्र में मुस्लिम आबादी 9.34 प्रतिशत है। नाता जनगणना हुआ नहीं है। इसलिए लगभग एक प्रतिशत कम अधिक आबादी मुस्लिमों की हो सकती है। 

 


Sunday, 2 November 2025

ओबरा के किसी विधायक के पुत्र-पुत्री को नहीं मिला मौका

 



कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम के पिता बने थे पहली बार विधायक


राजनीतिक विरासत वाले सिर्फ ऋषि बने विधायक

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : ओबरा के मतदाताओं ने कभी किसी को राजनीतिक विरासत नहीं सौंपा। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम के पिता दिलकेश्वर राम को पहली बार ओबरा से ही जीत मिली थी। वर्ष 1962 में यह सीट अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित थी और ओबरा प्रखंड के कंचनपुर पंचायत के हेमन बिगहा निवासी दिलकेश्वर राम को कांग्रेस पार्टी ने अपना प्रत्याशी बनाया और वे जीत गए। इसके बाद वे कई बार विधायक बने। उनके पुत्र राजेश राम यहां से नहीं लड़े, बल्कि वे कुटुंबा विधानसभा से विधायक हैं। इस संदर्भ में अगर देखे तो सिर्फ ऋषि कुमार ही ऐसे व्यक्ति हैं जो राजनीतिक विरासत से आए और चुनाव जीत गए। उनकी मां डा. कांति सिंह रोहतास और भोजपुर जिले के क्षेत्र से विधायक और सांसद के साथ मंत्री भी रही हैं। उनके पुत्र ऋषि कुमार वर्ष 2020 में ओबरा विधानसभा चुनाव राजद की टिकट पर लड़ने आये और जीत जाते हैं। इनके अलावा कभी वैसे व्यक्ति को ओबरा में चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिला जिनके पिता या मां या दादा दादी विधायक या सांसद रहे हों। 


डा. संजय को नहीं मिला अवसर

दाउदनगर के प्रथम विधायक रहे रामनरेश सिंह के पुत्र डा. संजय कुमार सिंह कभी चुनाव नहीं लड़े।  गोह प्रखंड के बुधई खुर्द निवासी रामनरेश सिंह दाउदनगर में ही नगरपालिका मार्केट में रहा करते थे और उनके पुत्र डा. संजय कुमार सिंह मौला बाग में रहते हैं। लेकिन वह कभी चुनाव नहीं लड़ सके। प्रारंभिक समय से ही वह कांग्रेस की राजनीति करते हैं। इस बार भी कांग्रेस के संभावित प्रत्याशियों में उनका नाम शामिल था, लेकिन गठबंधन के तहत यह सीट राजद के हवाले है। राम नरेश सिंह वर्ष 1952 और 1967 में दाउदनगर विधानसभा से जीते। मंत्री भी रहे हैं।


कई के वंशज राजनीति में नहीं


ओबरा के प्रथम विधायक रहे पदारथ सिंह का कोई पुत्र या पुत्री चुनावी मैदान में कभी नहीं उतरा। इसी तरह ओबरा से तीन बार और दाउदनगर विधानसभा क्षेत्र से दो बार विधायक रहे रामविलास सिंह के पुत्र उमेश सिंह की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं रही लेकिन विधानसभा चुनाव नहीं लड़े। वह अपने ग्राम पंचायत अहियापुर हसपुरा प्रखंड से मुखिया भी रहे। हालांकि सदन पहुंचने की उनकी हसरत रही है, ऐसा सभी मानते हैं। उन्होंने दलों से टिकट लेने की भी कोशिश की थी। रघुवंश कुमार सिंह का भी कोई वंशज यहां सक्रिय नहीं रहा।



सफल न हो सके बारुण के सुनील यादव 


विधायक रहे नारायण सिंह जो बारुण के निवासी हैं उनके पुत्र भी कभी ओबरा में सक्रिय नहीं रहे। हालांकि उनके पुत्र भीम कुमार गोह विधानसभा क्षेत्र से 2020 में विधायक बनने में सफल रहे। नारायण सिंह के भतीजे और देवनंदन सिंह उर्फ देवा सिंह के पुत्र सुनील कुमार यादव 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में ओबरा विधानसभा क्षेत्र से जदयू के प्रत्याशी थे। वह यहां चुनाव नहीं जीत सके। जबकि नीतीश कुमार के काफी करीबी माने जाते हैं। 


पुत्र के चुनाव लड़ने की रही बस चर्चा


इनके अलावा यहां से विधायक बने भाजपा के नेता बीरेंद्र प्रसाद सिंह की भी वंश परंपरा का कोई व्यक्ति सक्रिय नहीं रहा। हालांकि इस बार के चुनाव में उनके पुत्र अजित सिंह के चुनाव लड़ने की चर्चा थी। लेकिन अंतत: वे भी चुनावी मैदान में नहीं हैं। वे सीमावर्ती हसपुरा प्रखंड के कोइलवां के निवासी थे। इनके अलावा यहां से विधायक बने सत्यनारायण सिंह, सोम प्रकाश या ऋषि कुमार के पुत्र या पुत्री चुनावी राजनीति में मैदान में दूर दूर तक नहीं दिखते। 


लड़ने को मौका नहीं मिला 

विधायक रहे वीरेंद्र प्रसाद सिंहा के पुत्र कुणाल प्रताप चुनावी राजनीति में काफी सक्रिय हैं। वह अंकोढ़ा पंचायत से मुखिया रहे। विधानसभा चुनाव लड़ने की उनके महत्वाकांक्षा भी है और इस बार ऐसी चर्चा थी कि या तो वे या उनके पिता वीरेंद्र प्रसाद सिंहा चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन ऐसी स्थिति नहीं बनी।




दूसरे चुनाव में ही मुस्लिम विधायक लेकिन फिर सन्नाटा

  


1977 के चुनाव से नहीं बना कोई मुस्लिम प्रत्याशी 

1967 के बाद से ओबरा से कोई मुस्लिम प्रत्याशी नहीं

न दलों ने दिया भाव न खुद हिम्मत जुटा सके अल्पसंख्यक 

आखिरी बार एनओसी से महत्वपूर्ण प्रत्याशी थे शम्सुल हक

उपेंद्र कश्यप, जागरण ● दाउदनगर (औरंगाबाद) : दाउदनगर और ओबरा दो अलग-अलग विधानसभा क्षेत्र 1952 से लेकर 1972 के चुनाव तक रहे। इसके बाद नए सिरे से परिसीमन हुआ और 1977 से दाउदनगर विधानसभा क्षेत्र का वजूद समाप्त हो गया। दाउदनगर विधानसभा क्षेत्र से 1957 में हुए दूसरे बिहार विधानसभा चुनाव में सईद अहमद कादरी विधायक बने। वे इंडियन नेशनल कांग्रेस के प्रत्याशी थे। उनको 40.79 प्रतिशत अर्थात कुल 10316 मत प्राप्त हुआ था। उन्होंने 1952 में हुए प्रथम चुनाव में विधायक बने रामनरेश सिंह को हराया। इस सईद अहमद कादरी का संबंध कारा ईस्टेट से रहा है। इसके बाद दाउदनगर और ओबरा विधानसभा क्षेत्र से कोई विधायक नहीं बना। स्थिति इतनी बदतर रही कि कोई दूसरे स्थान पर भी नहीं रहा। किसी महत्वपूर्ण दल ने मुस्लिम प्रत्याशी नहीं दिया। शायद उनके जीतने की संभावना कम होने की समझ ने राजनीतिक दलों को ऐसा करने पर मजबूर किया। निर्दलीय भी मुस्लिम प्रत्याशी इक्का-दुक्का ही आए। कभी कोई ऐसा मुस्लिम प्रत्याशी भी नहीं दिखा जो मुख्य प्रत्याशियों को चुनौती दे सके। दाउदनगर विधानसभा क्षेत्र से ही 1967 में स्वतंत्र पार्टी से जेड एच खान चुनाव लड़े और वह सबसे अंतिम स्थान पर यानी नौवें स्थान पर रहे। उनको मात्र 620 मत प्राप्त हुआ। दाउदनगर विधानसभा का अंतिम चुनाव 1972 में हुआ था। उसके बाद नए परिसीमन के कारण 1977 में हुए चुनाव में इसका वजूद खत्म हो गया। ओबरा प्रखंड से जुड़कर दाउदनगर ओबरा विधानसभा क्षेत्र का हिस्सा बन गया। इस अंतिम चुनाव में दाउदनगर के चिकित्सक डा. शम्सुल हक पर इंडियन नेशनल कांग्रेस आर्गेनाइजेशन ने दाव खेला। महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस का विभाजन होने के बाद बनी इस पार्टी का यह पहला चुनाव था। शम्सुल हक तीसरे स्थान पर रहे। उनको 11983 मत प्राप्त हुआ। इससे पहले ओबरा विधानसभा क्षेत्र से 1967 में हुए चुनाव में एसएएस कादरी निर्दलीय चुनाव लड़े थे। वह तीसरे स्थान पर रहे। तब उनको मात्र 5889 मत प्राप्त हुआ। इसके बाद से ओबरा विधानसभा क्षेत्र से कोई मुस्लिम प्रत्याशी भी चुनावी मैदान में नहीं आया।




14 प्रतिशत वाली आबादी हाशिये पर


ओबरा विधानसभा क्षेत्र में 14 प्रतिशत मुस्लिम आबादी रहती है। लेकिन इस समुदाय से अब तक मात्र एक व्यक्ति का विधायक बनना और और मात्र तीन व्यक्ति का चुनाव लड़ना बताता है कि 78 वर्ष के इतिहास में मुसलमान के साथ राजनीतिक दलों ने छल किया। किसी राजनीतिक दल ने मुसलमानों पर भरोसा नहीं किया और ना ही कोई मुसलमान नेता उभर सका, जो अपने दम पर चुनाव लड़ने का साहस कर सके। वर्ष 2011 में हुई जनगणना के अनुसार ओबरा प्रखंड में 14.82 प्रतिशत, दाउदनगर नगर परिषद क्षेत्र में 18.78 प्रतिशत और दाउदनगर प्रखंड के ग्रामीण क्षेत्र में 8.11 प्रतिशत मुस्लिम आबादी रहती है। विधानसभा के स्तर पर देखें तो यह औसत 14 प्रतिशत की आबादी है। लेकिन राजनीति में अल्पसंख्यक समुदाय की भागीदारी का शोर चाहे जितना हो इन्हें लेकर कोई गंभीर नहीं दिखता।



इस बार एक मुस्लिम प्रत्याशी

ओबरा विधानसभा क्षेत्र के लिए अब तक 16 बार चुनाव हो चुका है। जबकि दाउदनगर विधानसभा क्षेत्र के लिए कुल छह बार चुनाव हुआ है। इस बार ओबरा विधानसभा क्षेत्र के लिए जब सत्रहवां चुनाव हो रहा है तो मोहम्मद तौफीक आलम निर्दलीय चुनाव मैदान मे हैं।