भाषा हमारी और नाम फारस से
मिला
हिन्दी हमारी मतृभाषा है। हमारी मतलब भारत की किंतु वह आधिकारिक तौर पर
अभी भी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी है जबकि उसने वैश्विक स्तर पर अपनी प्रतिष्ठा कायम
की है। लगभग बीसवीं शती के अंतिम दो दशकों में हिंदी का अंतर्राष्ट्रीय विकास बहुत
तेजी से हुआ है। इसका बाजार क्षेत्र बढा है। यह जिस तेजी से बढ़ी है वैसी किसी और
भाषा की नहीं बढी है। विश्व के लगभग 150 विश्वविद्यालयों तथा सैकड़ों छोटे-बड़े केंद्रों
में विश्वविद्यालय स्तर से लेकर शोध स्तर तक हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था
हुई है। विदेशों में 25 से अधिक पत्र-पत्रिकाएं लगभग नियमित
रूप से हिंदी में प्रकाशित हो रही हैं। यह हमारी भाषा है किंतु हिन्दी शब्द दिया
है फारस ने। जिसका अर्थ
है-हिन्दी का या हिंद से संबंधित। हिन्दी शब्द की निष्पत्ति सिन्धु-सिंध से हुई है। ईरानी भाषा में 'स' का उच्चारण
'ह' किया जाता था। इस प्रकार हिन्दी
शब्द वास्तव में सिन्धु शब्द का प्रतिरूप है। क्या हिन्दी नयी पीढि के लिए भाषा का विकल्प है? इस पर
तीन विचार प्रस्तुत है--
भाषा का स्वाभिमान बडी
गरिमा
संजय शांडिल्य, कवि, साहित्यकार |
हिन्दी आज एक ऐसी भाषा
है जिसमें लिखने-पढ़ने का चलन खत्म सा हो गया है। रोजी-रोजगार से इसकी एक अघोषित
बेदखली है। बाजार की जरूरत भर हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाएँ हाशिए पर खड़ी हैं। दक्षिण
में भाषा के लिए एक गौरव का बोध है तो वहाँ उन्होंने अपनी भाषा के लिए जगह घेरा
हुआ है। हिन्दी पट्टी में तो वह गौरव भी नहीं है। दोयम दर्जे के पब्लिक स्कूलों ने
पिछले दो दशकों में हिन्दी का और भारी नुकसान किया है। हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएँ, कविता-कहानियां पढ़ना तो दूर उसमें
संवाद तक सेंसर कर दिया गया है। जो अँग्रेजी बच्चे इन स्कूलों में सीख रहे हैं वह
भी दो कौड़ी की है। स्थिति सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है। अपनी भाषा से खाली होकर मनुष्य
अपने समय और समाज के सुख-दुख से भी कट जाता है। सरकारों के भरोसे भाषा का कुछ नहीं
हो सकता। समाज में भाषा के लिए आग और पानी रहना चाहिए। अपनी भाषा का स्वाभिमान
मनुष्यता की सबसे बड़ी गरिमा है। भाषा से विरक्त समाज मनुष्य को उसकी गरिमा से
वंचित होते देखता है। अपनी भाषा में ही एक बेहतर मनुष्यता पल्लवित हो सकती है।
सुगम व वैज्ञानिक भाषा
हिन्दी
सुरेन्द्र कुमार, प्राचार्य ज्ञान गंगा इंटर स्कूल |
भारत में सर्वाधिक
संख्या हिन्दीभाषियों की है। आजादी से पहले और आजादी के बाद हिन्दी को ही
राष्ट्रभाषा होने का सौभाग्य मिला है। भके ही आधिकारिक दर्जा न मिला हो। इसकी लिपि
सुगम व वैज्ञानिक है। दयानंद सरस्वती ने कहा है कि ‘हिन्दी के द्वारा सारे भरत को
एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।‘ सुभाषचन्द्र बोस ने कहा है कि ‘प्रांतीय इर्ष्या
को दूर करने में जितनी सहायता हिन्दी के प्रचार से मिलेगी, उतनी किसी चीज से
नहीं।‘ 1975, 1976 व 1983 में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलनों में हिन्दी अपना डंका
बना चुकी है। भाषा के रुप में यह एक मात्र विकल्प है।
विश्व में जमा सकते हैं
अधिपत्य
प्रो.अवधेश सिंह
अंग्रेजी के व्याख्याता
|
हिन्दी विश्व की भाषाओं
के समकक्ष है। साहित्य के क्षेत्र में इसका सानी नहीं। हिन्दी साहित्य में मानव
संस्कृति को भरपुर महत्व दिया गया है। भौतिकता के साथ आध्यामिकता का ऐसा मिश्रण है
जिसमें मानव जीवन की सफलता का सर्वोत्तम लक्ष्य रखा गया है। यह कंप्युटर या
इंटरनेट के युक्त है। चूंकि विश्व के हर क्षेत्र में हिन्दीभाषी रहते हैं इसलिए
इसकी उपादयता अधिक हो जाती है। पूरे विश्व में हम अपना अधिपत्य जमा सकते हैं।
भारतीय शोधकर्ता या विद्यार्थी अपना झंडा गाड सकते हैं। विश्व को एक नया सोच दे कर
मानव जीवन को उत्कर्ष तक पहुंचा सकते हैं।
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