उमगा की शोध-यात्रा और व्यंग्य की मस्ती
(ध्यातव्य-
कट्टर धर्मभिरु इसे न पढें)
उपेन्द्र
कश्यप
05.10.15
दिन सोमवार। हम उमगा की यात्रा पर गये। उमगा, औरंगाबाद के मदनपुर का एक महत्वपूर्ण
धार्मिक स्थल। मैं (लेखक), स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन भाई, दक्षिण बिहार
केन्द्रीय विश्व विद्यालय के सहायक प्राध्यापक मित्र डा.कर्मानंद आर्य, जी न्युज
के डीएनए की परिश्रमी पत्रकार इति शरण और फिल्म निर्देशक डाक्युमेंट्री बना रहे
धर्मवीर भारती समेत अन्य मित्र साथ हैं। पहाड की जब उंचाई चढ रहे थे तो मस्तिष्क
कुछ तलाश करता रहा, सो व्यस्त रहा। बौद्धिक सवाल-जवाब, और उतने ही रहस्य,
तर्क-वितर्क और बस दिमाग खोजने में, जानने में और कुछ सीखने में सबका लगा रहा। इस
बीच यदा कदा हंसी-मजाक भी। मजा तब से प्रारभ हुआ जब उंचाई पर चढ जाने के बाद सब
हल्का हुए और मन मिजाज को सुकून मिला। घर की बनी निमकी और बाजार का सेव (झरुआं) खा
कर गप्पें लडाने से मन-मस्तिष्क को शांति मिली। चर्चा इधर उधर की होने लगी। जब
ढलान पकड उतरने लगे तो चर्चा यूं ------------------
यहां नर
बली की परंपरा रही है। इसके ध्वस्त अवशेष प्रमाण देते हैं। चर्चा शुरु। जब उतरना
प्रारंभ हुआ तो डरने और फिर कुछ अनिष्ट हो जाने पर मजाक केन्द्रित हुआ। दादरी की
हत्या कांड से लेकर अन्य नकारात्मक बातें। भाई संजीव ने कहा- इति की ही नरबली आसान
होगी? अकेली भी है और अबला भी। वह बोलने लगी - मैं तो माता हूं। माता की नरबली की
प्रथा नहीं रही है। तब संजीव ने कहा- हां, यह तो बात है। नारी की बली देने की
भारतीय परंपरा ब्राहमणों ने नहीं बनाया है। लो तुम तो बच गयी। कहा गया- अच्छा होगा
संजीव चन्दन की बली। वे बोले ब्राहमणों ने ब्राह्मण की बली को त्याज्य माना है।
मेरी भी बली नहीं हो सकती। तब बात आयी- डा.करमानंद कर्मा की। कहा गया कि उनकी बली
अच्छी रहेगी। चन्दन जी ने कहा- उपेन्द्र खबर की हेडिंग अच्छा बनाता है। “मन-रे-गा
विरह के गीत धीरे-धीरे” जैसा। तब शीर्षक बनेगा- एक पहाडी की पहाड पर हुई मौत, किंतु
1300 किलोमीटर दूर। जी हां, आर्य लखनउ से आते हैं। पता करने की कोशिश की गयी कि
कौन सा पहाड इतना लंबा है।
जब पत्रकार ही पत्रकार हों तो चर्चा भी खबरों के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित हो जाती है। दूसरों को इसमें मजा नहीं आता। हां, हंसा देने वाले चुटीले कमेंट सबको हंसा जरुर देते हैं। यात्रा क्रम में एक दिलचस्प वाकया हुआ। मां उमेंगेश्वरी के मन्दिर में पत्थर के नीचे
(देखें चित्र) जब पंडा से यह पुछा कि जब कपडे उठा कर
प्रतिमा को दिखा रहे हैं तो कपडे से ढंकने की अवाश्यक्ता ही क्या है। महत्वपूर्ण
है कि यह प्रतिमा नग्न नहीं बनी हुई है। तर्क मिला सुन्दरता के लिए। सवाल दागा तो
धर्मवीर भारती ने इशारा चुप रहने का किया। हकीकत है कि धर्म बिना तर्क के ही टिकता
है। इसीलिए कवि अनिल बिभाकर ने अपनी कविता में कहा था- लोग पत्थर नहीं, अपनी-अपनी
आस्था पूजते हैं। यहां भी वही है। एक चर्चा “उमगा” नाम करण पर भी हुई। संजीव भाई
ने इसे तोडा- उम-गा। ग प्रत्यय है। इसका अर्थ होता है –गमन। यानी उमा से जहां गमन
हुआ उसे उमगा कहा गया। हर तरह सैकडों शिव लिंग भग के साथ बने हैं। अधूरे बने हुए
छोड दिये गये हैं। इससे इस अर्थ को भी बल मिलता है। इसे मानें न मानें आपकी मर्जी।
यह मात्र एक तर्क भर है। इसकी चर्चा के बीच सहवास के छोड दिये गये चिन्ह जब दिखे
तो उस पर भी चर्चा हुई।
हां, ध्यान रहे, इस पहाड पर सूखी किंतु पानी में डाल देने
पर हरी हो जाने वाला पौधा भी मिला जिसे हम संजीवनी बुटी आम तौर पर कह देते हैं। यह
सेक्स की क्षमता बढाने वाला बुटी माना जाता है।
उमगा में लिखा हुआ मिला अल्लाह और आयत
मुख्य सूर्य मन्दिर के सभा मंडप में तीन स्थानों
पर अल्लाह और एक स्थान पर कुरआन की आयत लिखी हुई मिली। सवाल यह है कि उमगा पहाडी
पर सूर्य मन्दिर में यह कब, कैसे और क्यों लिख दिया गया?
किसने लिखा? जब मुस्लिम आक्रांताओं ने मन्दिर
ध्वस्त किया और मन्दिर में ऐसे लिखा, तो कब्जा क्यों नहीं किया? क्या कोई समझौता हिन्दु-मुस्लिम के बीच हुआ? जब भारत
में मन्दिर तोडे जा रहे थे तब भी यहां मन्दिर निर्माण का काम शायद चल रहा था? ऐसा
हुआ भी तो फिर ब्राहम्णों ने इसे यथावत कैसे और क्यों रहने दिया? मुगल काल में मुस्लिम का डर हो सकता है, किंतु
अंग्रेज काल में किसका डर रहा होगा? या यूं ही लिखा हुआ छूट
गया या जान बुझ कर छोडा गया? क्या ब्राहमण यह सन्देश दे रहे
हैं कि किसी ने गलती की तो मैं क्यों गलती करूं? उसकी ताकत
थी, उसने आक्रमण
किया, कुछ भी लिखा
तो यह इतिहास है और उसे ध्वस्त न कर मिशाल कायम किया गया। यदि ऐसा है तो इसका
प्रचार क्यों नहीं किया गया। इससे सांप्रदायिक सोच को नया आयाम दे सकते थे।
सौहार्द की नयी मिशाल इसे बना सकते थे। क्या वास्तव में मनु स्मृति लिखने मानने
वाला ब्राहमण धर्म इतना उदार रहा है कि वह इसे यूं ही छोड दिया? सवाल मन को मथ रहा
है, जवाब ढुंढ रहा हूं मिल नहीं रहा है।
और अंत में---
सुखद, रोमांचक और ज्ञानवर्धक यह यात्रा कुछ खास
करने को प्रेरित करते हुए यादगार बन गयी है। बात निकली है तो दूर तक जायेगी ऐसी
अपेक्षा खुद से है।
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