मतों के
ध्रुवीकरण का केन्द्र “उपरवाला”
चुनावी शोर आगत क्रांति के पूर्व के सन्नाटे में
तब्दील हो गया है। 16 अक्टूबर को जो बैलेट क्रांति होनी है, उसके पूर्व अब सामाजिक
और जातीय समीकरण के विश्लेषण की मानसिक कसरत शुरु हो गयी है। सबने खूब प्रचार
किया। अपनी अपनी बातें रखीं। इसमें मुख्य चुनावी मुद्दा क्या है? तलाश करना पड रहा
है तो स्पष्ट है कि मुद्दा भटक गया है। बात मतों के बिखराव और ध्रुवीकरण पर टिक
गयी है। इस चुनाव में मुद्दा विकास कभी नहीं बन सका। यहां चर्चा सिर्फ जाति और
जातीय समूह की होती रही। परिणाम जाति ही तय करेगी। स्वजातीय और दल के कापी राईट
मान लिए गये जातीय समूह का वोट पैटर्न क्या होता है, चर्चा अब सिर्फ इसी की हो रही
है। ध्रुवीकरण के लिए जिस जाति या समूह को अपनी अब तक की निष्ठा बदलनी पड सकती है
वे “उपरवाले” का बहाना बना रहे हैं। कह रहे हैं- हमें उपर देखना है। दो प्रमुख
प्रत्याशी के आधार परंपरागत वोटर उपरवाले के फेर में कितना ध्रुवीकृत हो पाते हैं,
यह मतदान का पैटर्न तय करेगा। यदि “उपरवाले” को न मानते हुए स्थानीय कारणों से
अपनी निष्ठा अब तक जिसके साथ रही है उसी के साथ रह गयी तो परिणाम 1995 या 2010 की
तरह का चौंकाने वाला हो सकता है। मतदान का पैटर्न तो मतदान के दिन भी बदल जाता है।
अभी (संवाद लेखन तक) तो फिर भी 36 घंटे का समय बचा हुआ है। भीड अगर मानस को तैयार
करती है और मतदान में बदलती है तो परिणाम भी अप्रत्याशित हो सकते हैं।
मैनेजमेंट
बनाम मैनेजमेंट
इस चुनाव में तीन प्रत्याशियों को छोड कर अन्य सभी नये हैं। छोटे स्तर
पर चुनाव लड चुके दो प्रत्याशी हैं, जो विधान सभा का चुनाव पहली बार लड रहे हैं।
अन्य सभी का यह प्रथम चुनाव है। इस चुनाव में मैनेजमेंट की चर्चा खूब हो रही है। जो
परंपरागत वोटर एक प्रत्याशी विशेष के हैं, उनका साफ मानना है कि यदि पराजय मिलेगी
तो सिर्फ मैनेजमेंट और प्रत्याशी के मुट्ठी बान्ध लेने के कारण ही। दूसरी तरफ एक
प्रत्याशी के मैनेजमेंट की चर्चा खूब हो रही है। कहा जा रहा है कि इस मैनेजमेंट को
मानना पडेगा। परिणाम चाहे जो भी हो। इस पक्ष ने नारा दिया है- टिकट के पैसा पानी
में, ---- भैया राजधानी में।
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