शहरनामा दाउदनगर से--
नवाब के शहर में दलाली चर्चा में है। खून
की दलाली से बात शुरु होती है तो कई तरह के ‘दलाल’ प्रकट हो जाते हैं। चर्चा बहुत
है। बहुत तरह की है। आप रोज रोज किसी को 56 इंच का सीना होने का ताना मारिये और
कारर्वाई की मांग करिए। जब कारर्वाई हो तो कहिए यह सरकार ने नहीं सेना ने किया है।
हद है भाई। सेना खुद कुछ करती है क्या? उसे निर्देश तो सरकार ही देती है। यह सरकार
का विल पावर था कि सर्जिकल स्ट्राइक की गयी। अब आप डर से कह रहे हो कि हमने भी
किया था, कई बार किया था। वोट बैंक की राजनीति के तहत कारर्वाई नहीं की और अब करने
की बात कह के भी वही राजनीति कर रहे हो। लोग भूल जाते हैं। खून की दलाली कहने वाले
इतिहास भूल नहीं गये हैं बल्कि वोट के लिए उसे जानबुझ कर भूल रहे हैं। 1971 की लड़ाई क्या किसी ‘दुर्गा’ ने लडी
थी या तब भी सेना ने ही लडाई लडी थी? तब मुक्तिवाहिनी और बांगला देश के लिए खुद को
क्यों श्रेय लिया था? हकीकत तो यही है न तब की जब सेना युद्ध मैदान में जीता और ‘प्रियदर्शिनी’
वार्ता की मेज पर हार गयीं थी। 90 हजार पाकिस्तानी सेना को बंदी बनाने और बडा क्षेत्र सेना ने जीता बावजूद
पीओके हासिल नहीं कर सकी थीं। क्या यह दलाली थी? थी तो किसकी? देश के लिए या फिर
खास वोट के लिए दलाली की गयी थी? जरा कोई बतायेगा? जब स्वयं बलुचिस्तान भारत के
साथ रहने को तैयार था तो ‘चाचा’ ने किस कारण उसे छोड दिया। तर्क यह कि वह दूर है।
अरे जनाब मात्र 200 मील की दूरी गलत और बांगलादेश पाकिस्तान के बीच हजारों मील की
दूरी सही थी? जिस पार्टी की प्रासंगिकता गान्धी ने समाप्त बताते हुए उसे खत्म करने
को कहा था वह दशकों राज ही इसी नाम पर करती रही कि आजादी उसने दिलाया है। क्या यह
100 फिसदी सच है? गरीबी खत्म करने के नाम पर सत्ता पाने वाले कितना गरीबी खत्म कर
सके? यह सब दलाली नहीं है? चर्चा यह भी है कि ‘राम’ के मुखौटे पर चुनावी वैतरणी
पार करने वाली जमात ने अब सामने सेना को खडा कर दिया है। वे हमेशा ‘बडे प्रतीक’ को
ही सामने रखकर जंग लडते हैं। ऐसे में कौन किसकी दलाली कर रहा है और क्यों कर रहा
है यह लोग सोचें। कौन दूसरे से बडा दलाल है, यह तय करना मुश्किल है।
अंत में--
किसी तरह जमा कीजिए अपने आप
को
कागज बिखर रहे हैं पुरानी
किताब के।
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