आज रवि राठौर याद आ रहे हैं-
एक आदमी
पेट काट कर , अपना घर चलाता है,
खून पसीना बहा बहा कर , मेहनत की रोटी खाता है।
खुद भूखा सो जाये पर , बच्चों की रोटी लाता है,
तू उनसे छीन निवाला , जाने कैसे जी पाता है।।
आज निवाला देने वाले दो तबके परेशान
हैं। एक जो उपजाता है वह किसान और दूसरा वह जो सरकार के अनाज व तेल गरीबों तक
पहुंचाता है। दोनों के अपने कारण है। देश भर में किसान परेशान हैं। कर्ज माफी की
बात उठ रही है। कर्ज माफ किए गए थे इसलिए मांग का क्षेत्रफल बढ़ रहा है। हंगामा
बरपा हुआ है। कोई यह नहीं कह रहा कि यह गलत है? कोई नहीं पूछ रहा कि किनके कर्ज माफ
हुए थे? कर्ज माफी की नीति से किसान को क्या
लाभ हुआ? क्या इस नीति से किसान विपन्नता से
संपन्नता की यात्रा पूरी कर सकेंगे? जब ऐसे सवाल नहीं उठाए जा रहे तो यह
कौन और कैसे कहा सकेगा कि इस नीति से लाभ के बदले हानी अधिक हो रही है। कर्ज उन
किसानों के माफ हुए थे जो एक भी क़िस्त नहीं दिए थे। जो किसान अपना पेट काटकर, बच्चों की पढ़ाई,
उनके सपने, और अन्य आवश्यकताओं को छोटा कर या कम कर एक दो या अधिक क़िस्त दिए
थे माफी उन्हें क्यों नहीं मिली थी। ऐसे किसान समृद्ध कैसे मान लिए गए? इन्हें ईमानदार क्यों नहीं माना गया? क्या एक क़िस्त भी कर्ज का नहीं देने
वाले आए ये अधिक बेईमान किसान है?
नहीं यह मुद्दा घोटाले से जुड़ा है। यह
घोटाला, बेईमानी ही तो है कि ईमानदार किसानों
को माफी नहीं और अन्य को जिन्हें बेईमान नहीं कह सकते उन्हें माफी देकर करजखोर
बनाने की कोशिश सरकार के स्तर से की जा रही है।
किसान को समृद्ध बनने से रोकिए और
उन्हें सबल की जगह पराश्रित बनाइये, यही पॉलटिक्स है भाई।
जिला में उफान मचा हुआ है। जन वितरण
प्रणाली की दुकानों पर अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई की जा रही है। क्यों की जा रही
है? पहले क्यों नहीं होती थी? विचार करियेगा। भारत में जन वितरण प्रणाली का औसत सफलता डर मात्र 30 फीसद है। यानी 70
प्रतिशत असफल योजना है यह। आप गांवों
में जाइये और कार्डधारियों से सवाल करिए। समझ में आ जायेगी बात कि वाकई कितना
घोटाला इस विभाग में है। जिला में करीब 1200 डीलर हैं। इनसे
पूछिए कि ये ईमानदारी से पीडीएस दुकान क्यों नहीं चला रहे है? यह आम चर्चा है कि 'की पोस्ट' पर बैठा हर अधिकारी इसका दोहन करता है। अपनी रेट पदस्थापित होते ही
बढ़ा देता है। कहता है- पहले वाले ने अपना स्टेटस खराब कर लिया तो क्या मैं भी कर
लूं? उसने रेट काफी कम कर रखा था। जिला के
डीलर प्रति क्विंटल खाद्यान 30
से 50 रुपये और किरासन में प्रति लीटर एक से
डेढ़ रुपए कमीशन देता है। यह ओपन सीक्रेट
मामला है। कुछ भी छुपा हुआ नहीं, और कुछ भी खुले में स्वीकार्य नहीं। इसे न देने वाला खुल कर
स्वीकार करेगा न लेने वाला। देने वाला यह कहता है कि नीचे से ऊपर तक सभी को देना
होता है। जिसकी जितनी ताकत उसकी उतनी हिस्सेदारी। लेने वाला कहता है ऊपर तक देना
पड़ता है, इसलिए लिया जाता है। तर्क कि मैं अपना
छोड़ भी दूं तो क्या फर्क पड़ता है। दूसरे ऊपर वाले तंग करेंगे। यह है पीडीएस
सिस्टम। अब सरकार को दिखाने के लिए जनता को बेवकूफ बनाने के लिए कार्रवाई डीलरों
के खिलाफ हो रही है। यकीन जानिए,
बली का बकरा बनाये जा रहे हैं डीलर, हालांकि यह भी सच है कि डीलर सभी न बेईमान हैं न सभी ईमानदार है, किन्तु उन्हें चोरी के लिए मजबूर तंत्र करता है, जिसमें अफसर और खद्दर दोनों शामिल हैं। दोनों के कई काम इनके जरिए
ही निपटते हैं सो वे इसे फुलप्रूफ नहीं बनने देना चाहते हैं। जनता मजबूर है, उसकी आवाज कोई सुनता नहीं, खैरात की आदत ऐसी है कि जो मिल रहा
वही ढेर है। काहे का शोर, कौन सुनेगा, किसको सुनाएं,
इसीलिए चुप रहते हैं।
...और अंत में
फहमी बदायूंनी को पढ़िए और समझिए कि
समाज किस तरह भरस्टाचार को देखता है। अपना दामन ठीक दिखता है, बाकी सब का धब्बेदार दिखता है। इससे बात अब आगे निकल चुकी है। अपने
धब्बों को लोग गुरुर में भूलकर अब दूसरों को नीचा दिखाने में लगे हैं-
साफ़ दामन का दौर तो कब का खत्म हुआ
साहब,
अब तो लोग अपने धब्बों पे गुरूर करने
लगे हैं….!
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