Monday, 29 May 2017

गाछे कटहल, ओठे तेल| ढेरों मूंह से टपक रहा लार !

राजनीति गरमाई हुई सी है| पटना से लेकर दिल्ली तक| कुछ भी बदलाव होगा तो बड़ी आबादी प्रभावित होगी| एक हिस्सा दुष्प्रभावित भी होगी| यह प्रकृति का नियम है-जब एक प्रभावित होगा तो दूसरे पर नकारात्मक प्रभाव पडेगा ही पडेगा| नाश्ता से कभी भूचाल आ जा रहा है, कभी बयान से| बड़ी अबादी को उम्मीद बदलाव की है| जब तब बदलते राजनीतिक हालात में लोगों की उम्मीद कभी परवान चढ़ती दिखती है कभी टूटती हुई और फिर एक बार पूरी होती हुई दिखती है| बिहार में जिस नेता के इर्द गिर्द दो दशक से राजनीति घूम रही है, वे अक्सर कहते हैं- गाछे कटहल, ओठे तेल| हिंदी पट्टी में प्रचलित यह कहावत वास्तव में बंगाली कहावत है| इन दिनो बिहार में यह चरितार्थ हो रही है। जिला की एक बड़ी आबादी को इसकी उम्मीद है कि मौसम के साथ जिस तरह राजनीति का मिजाज बदल रहा है उससे उनकी उम्मीदें पूरी हो सकती हैं| उम्मीद है बदलाव की| पुनर्मुसिको भव: की| आम लोग और दो दलों से जुड़े लोग चाहते हैं कि बदलाव हो जाए| एक दल विशेष चाहता है कि बिहार में यथास्थिति बनी रहे| वरना बदलाव हुआ तो पुन: शक्ति खो जायेगी| शून्य में चले जाने का डर उन्हें सता रहा है| कई लोग बेचारे संबंधों और समीकरणों की वजह से उम्मीद पाले बैठे थे कि उन्हें लाल बत्ती मिल जायेगी| केंद्र ने ऐसी व्यवस्था बदली कि अब लाल बत्ती तो नहीं ही मिलेगी, दिमाग की बत्ती भी कभी जलती है कभी गुल हो जाती है| दूसरा पक्ष चाहता है कि अब मलाई काटने का अवसर नहीं मिल रहा है उसे बदलाव से हासिल किया जा सकता है| एक पक्ष है जो कसमसा रहा है कि साथी के बदलने से पूर्व वाली न पूछ रहा गयी है न महत्व रह गया है| बदला हुआ साथी बर्चस्व बना लिया है| इससे उनके सम्मान व स्वाभिमान को चोट लग रही है|
जिला में सधी जुबान से लोग बयान भी दे रहे हैं और व्यवहार भी कर रहे हैं| राजनीति बिना अंतर्विरोध के नहीं होती| कुछ लोगों को बयान या व्यवहार से कोइ मतलब नहीं| उन्हें तो बस जब जैसा तब तैसा वाला रवैया है|
खैर, मोदी-योगी राज में गाय, गाय खूब हो रहा है| गो रक्षक गुंडई कर रहे है और बयान से आगे काररवाई दिखती नहीं है| सवाल तो यह है कि यह मुद्दा कहाँ ले जाएगा हमें? क्या यह मुद्दा भी है? विचार करिएगा| सवाल कईयों को असहिष्णु बना देगा|


और अंत में, राजनीति पर सत्यप्रसन्न का ज्ञान-

करवट ली है वक्त ने, रही न अब वो बात।
जीत रहे खरगोश अब, कछुए खातॆ मात॥
गठबंधन तो हो गया, पर रिश्ते बेमेल।
चली छोड़कर पटरियां, सम्बंधों की रेल॥
कल तक जो हरते रहे, संविधान की चीर।
वो फिर लिखने जा रहे , हम सबकी तकदीर॥


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