यहाँ
जब भी कुछ होता है, हंगामा खडा हो जाता है| एक हंगामा ख़त्म नहीं हुआ कि गाँव हो या
शहर स्कूल में बारात टिकाने पर पाबंदी के मुद्दे को लेकर बवाल शुरू हो गया| कोढ़
में खाज,
नेता जी को मौका मिला तो वे भी कूद पड़े। एक फ़ैसला, जो पुराना था उसे सामने लाया गया। नेता जी विपक्षी बन कर निंदा करने
फेसबुक पर आए तो साहब भी चुप नहीं रहे। उन्होंने भी जवाब इसी मंच पर दिया और
वर्चुअल दुनिया में जंग छिड़ गई। दोनों के समर्थक, विचारों से
सहमत लोग अपनी बात कहने लिखने लगे। पूरे मामले में एक कहावत बार-बार याद आती
रही-अबरा के मउगी सबके भौजी। जेकर मन में जे आवे सो कही। यही हो रहा है। गरीब आदमी
हो या गरीबी, इसे दूर करने या उसकी समस्या समाप्त करने में
किसी को रुचि नहीं है। बस मुद्दे को अपने फायदे के लिए अपने अनुसार उछालते रो।
गरीब और गरीबी क्या है, इसे सोने के चम्मच लेकर पैदा होने
वाले जान भी नहीं सकेंगे। ऐसी उम्मीद आज की राजनीति में करना ही व्यर्थ है। बारह
हजार रुपए का महत्व करोड़ो कमाने वाले नहीं जान सकते। स्कूल में बारात टिकने न देने
के असर को भी न अधिकारी समझ सकते हैं, न ही करोड़पति नेता,
या बयानवीर समर्थकगण। कहते है-प्रेम व घृणा व्यक्ति की दृष्टि
धुंधली कर देती है। यह अब हर मामले में दिख रहा है। लोग विचार या निर्णय के
पक्ष-विपक्ष में नहीं व्यक्ति के साथ या विरोध में खड़े हो रहे हैं। सवाल है कि ऐसे
किसी समस्या का समाधान हो सकता है क्या भला। गांव नहीं शहर में भी यदि शत प्रतिशत
यह व्यवस्था लागू कर दी जाए कि सरकारी या नीजि स्कूलों में बारात नहीं टिकाई जा
सकती है तो समस्या जो दिख रही या बताई जा रही है उससे अधिक बड़ी समस्या खड़ी हो
जाएगी। अभी सार्वजनिक सुविधाएं आवश्यकता के अनुरूप नहीं बल्कि काफी कम उपलब्ध हैं।
समाज इतना सक्षम नहीं है कि होटल या लॉज किराए पर ले सके। और न ही होटल, लॉज या धर्मशालाओं की संख्या उतनी है कि वे सबकी जरूरत पूरी कर सकें।
फैसके के पक्ष में तर्क दे देना और इसकी खिलाफत करने वालों की आलोचना करना अलग बात
है और फैसले के असर को जानना समझना अलग बात है। समाज में यह एक बीमारी की तरह फैल
रहा है कि निर्णय या विचार की निंदा या समर्थन व्यक्ति से संबंध पर निर्भर हो चला
है। इससे समाज का भला नहीं होने वाला है। और यदि गंदगी छोड़ चले जाते हैं
बाराती-सराती के तर्क पर स्कूल में बाराती टिकाना पाबंदी लायक है तो क्या स्कूलों
में राजनीतिक आयोजन होने चाहिए? राजनीति तो और भी बच्चों के
भविष्य को खराब कर रही है, उनके मस्तिष्क को दुष्प्रभावित कर
रही है। तो क्या सरकार, साहब या नेता में यह साहस है कि
स्कूलों में राजनीतिक आयोजन होने पर पाबंदी लगा दे? जनाब ऐसा
करने का साहस किसी में नहीं है। इसलिए कि न राजनीति और न ही राजनीतिज्ञ गरीब हैं।
उनकी भौजाई अबरा की नहीं है। देखा न कि नेता धर्मबदर तो हो गया किन्तु हलाला से बच
गया क्योंकि वह भी गरीब नहीं है। गरीब आदमी नहीं होता, वह है
ही ऐसी शै कि कोई भी इस्तेमाल करता है। भाई, गरीब व गरीबी का
मजाक उड़ाना बन्द करो, बड़े होंगे किन्तु बड़प्पन भी दिखाओ।
और
अंत में कबीरदास--
बड़ा
हुआ तो क्या हुआ,
जैसे पेड़ खजूर |
पंथी
को छाया नहीं,
फल लागे अति दूर ||
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