Friday, 21 April 2023

सोन का शोक : पानी की कमी और बालू खनन से तीन किलोमीटर पश्चिम खिसक गया सोन

 


कभी नाव से पार करने में लगते थे तीन घंटे

आज नहीं बचा वो विस्तृत पाट

उपेंद्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद) : रोहतास के इंद्रपुरी बराज से पटना के मनेर तक की 147 किमी की यात्रा कर गंगा नदी में मिलने वाला सोन नद अपनी बायीं तरफ सिमट व सिकुड़ रहा है। आज यह एक नहर से अधिक नहीं दिखता। गर्मी में तो यह बहुत पतली धार बन जाता है। यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में यह और सिमटकर नाला न बन जाए। इसका दुष्प्रभाव भूगर्भ जल-स्तर और पर्यावरण पर पड़ रहा है। नदी के इस हाल के लिए पानी की कमी व बाढ़ के नहीं आने के साथ-साथ बालू के अंधाधुंध खनन को जिम्मेदार माना जा रहा है। 


नदी में अब नहीं आती बाढ़ 

आज से तीन दशक पहले तक सोन का चौड़ा पाट पार करने में पैदल और नाव से लगभग दो से तीन घंटे लगते थे। नदी पर दाउदनगर-नासरीगंज के बीच करीब चार किमी लंबा पुल बनाया गया था। एनीकट में विश्व का सबसे लंबा चौथा बराज 1872 में बना था, इसका वजूद शेष है। नहीं है तो नदी का वह लंबा पाट। अब हर साल बाढ़ भी नहीं आती। यहां वर्ष 1848, 1869, 1884, 1888, 1901 और 1923 में आए बड़े बाढ़ तो मशहूर हैं। लेकिन 1968 में इंद्रपुरी बराज के चालू होने के बाद धीरे-धीरे नदी में पानी की समस्या गहराती गई। इसके बाद वर्ष 1976 में बाढ़ आई। 2016 में भी हल्की बाढ़ आई। आगे नदी कभी पानी से नहीं भरी। धीरे-धीरे सूख व सिकुड़ रही नदी में अब नाव तक नहीं चलती, क्योंकि इसकी जरूरत ही नहीं रही। 


खत्म होते जा रहे बालू घाट 

कहा जाता था कि सोन का बालू कभी खत्म नहीं हो सकता, लेकिन अब वह खत्म होने लगा है। साल 1982 से सोन का सुबह भ्रमण करने वाले 69 वर्षीय सुरेश कुमार गुप्ता कहते हैं कि पानी की कमी के साथ बालू उत्खनन के कारण सोन का वजूद संकट में है। यहां का बालू बड़ी मात्रा में बिहार के विभिन्न इलाकों में ही नहीं, उत्तर प्रदेश तक जा रहा है। पहले दाउदनगर में दक्षिण से उत्तर सोन के किनारे लगभग 10 किलोमीटर तक बालू का टीला था, जिसे बड़का बालू कहा जाता था। फिर छोटका बालू और उसके बाद सोन नद। बड़का बालू टीला की ऊंचाई दो ताड़ से कम नहीं रही होगी। तब युवा रहे सुरेश उसपर चढ़ने में हांफ जाते थे। आज इसका वजूद खत्म हो गया है। 54 वर्षीय अवधेश पांडेय कहते हैं कि दाउदनगर के सबसे किनारे सोन तट पर बसे एक मोहल्ले का नाम ही बालूगंज है। नाम तो वही रहा, लेकिन अब वहां बालू नहीं। बताते हैं कि 20 साल में घर व सड़क बनाने में यहां से बालू उठाकर भरावट का काम किया गया। सोन तट के काली स्थान सोन घाट पर भी बालू खत्म हो गया। आने वाले समय में एक-एक कर बालू घाट खत्म होंगे। 


भूगर्भ जल पर पड़ा असर

मेडिकल दुकान के संचालक और कई वर्षों से सोन टहलने जाने वाले मनीष रंजन कहते हैं कि शहर से नदी के दूर जाने का असर भूगर्भ जल स्तर पर पड़ा है। पहले 40 फीट पर उपलब्ध पानी अब 100 से 200 फीट तक नीचे चला गया है। नदी किनारे की हरियाली व कास के जंगल भी अब नहीं रहे। नदी के पेट से उभर आई नई जमीन पर लोगों का अवैध कब्जा भी बढ़ा है। बालू के बेहिसाब उत्खनन ने वातावरण में हानिकारण धूलकण की मात्रा भी बढ़ा दी है। इसका असर पूरे पर्यावरण पर पड़ा है। 


मंत्री को दिए कई सुझाव 

सवाल है कि आखिर कैसे हो समस्या का समाधान? ईशा फाउंडेशन से जुड़कर पर्यावरण पर काम कर रहे बारुण निवासी सुनील यादव ने कहा कि गत वर्ष पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव और ईशा फाउंडेशन के संस्थापक सद्गुरु जग्गी वासुदेव के साथ बैठक में कई सुझाव दिए गए थे। इनमें बड़ी परियोजनाओं में बालू का विकल्प ढूंढने की बात भी उठी थी। बड़ी परियोजनाओं के लिए पत्थरों को पीसकर बालू बनाने तथा नदियों की गाद को बालू की जगह इस्तेमाल करने लायक बनाने के सुझाव दिए गए थे। 


केवल नदी के मार्ग बदलने का मामला नहीं 

औरंगाबाद के जिला खनन पदाधिकारी विकास पासवान नदियों के सिमटने या खिसकने के मामले में बालू खनन की कोई भूमिका नहीं मानते। कहते हैं कि नदियां अपनी धारा खुद बदलती रहती हैं। ऐसे में पर्यावरणविद सुनील यादव कहते हैं कि इससे पर्यावरण संकट भी जुड़ा है, जिसके लिए निश्चित तौर पर बालू का बेहिसाब उत्खनन जिम्मेदार है। बालू के नियंत्रित इस्तेमाल से समस्या को कम जरूर कर सकते हैं। बालू का विकल्प ढूंढने के साथ पेड़ भी लगाने होंगे। इससे खाद्य सामग्री उपलब्ध होने के साथ आय भी बढ़ेगी। साथ ही पर्यावरण व भूगर्भ जल स्तर भी बेहतर होंगे।



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