Saturday, 28 September 2019

जिउतिया पर जब छपी थी यह रंगीन खबर तो मचा था तहलका-उपेंद्र कश्यप



पहली बार आयी थी इलेक्ट्रोनिक मीडिया, वह भी इंटरनेशनल
फिर तो तांता लगा रहा कुछ साल इलेक्ट्रोनिक मीडिया का
                        0 उपेंद्र कश्यप 0
"लोक संस्कृति का अनूठा उत्सव" इस शीर्षक से चार पन्ने की यह सामग्री जब 17 सितंबर 2000 को पटना से प्रकाशित पाक्षिक पत्रिका “न्यूज ब्रेक” छपी थी, तो मीडिया जगत में तहलका मच गया था। इसके संपादक थे-(अब स्वर्गीय) चंदेश्वर विद्यार्थी सर, जहां श्री सुरेन्द्र किशोर सर और श्री नवेंदु सर से कई मुलाक़ात/बात हुई। तब इस पत्रिका की करीब 100 कॉपी दाउदनगर में चावल बाजार स्थित ‘छात्र युवा एकता संघ’ द्वारा आयोजित नकल प्रतियोगिता के मंच से बांटी गई थी। यह पहला अवसर था, जब जिउतिया की रंगीन तस्वीर छपी थी, साथ में शोधपरक विस्तृत रिपोर्ट। नतीजा इस रिपोर्ट का व्यापक प्रभाव हुआ और जिउतिया अपने कस्बे, जिले से बाहर व्यापक रूप में जाना गया। इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के दिन ही एएनआई (ANI-एशियन न्यूज इंटरनेशनल) के बिहार ब्यूरो प्रशांत झा जी का कॉल आया। तब लैंड लाइन का जमाना था। विवेकानन्द स्कूल ऑफ एजुकेशन (बाजार समिति के सामने) गया, प्रतीक्षा किया और शाम में आने के कारण उनको चावल बाजार में जगन भाई के लैंड लाइन का नम्बर उनको दे दिया। कार्यक्रम तय हुआ और ANI की टीम आई। पहली बार दाउदनगर में जिउतिया को कवरेज करने के लिए टीवी पत्रकार और फोटोग्राफर आये थे, वह भी इंटरनेशनल ब्रांड के लोगो के साथ। यह एजेंसी है, जिसे आप अक्सर टीवी पर रिपोर्ट के वक्त माइक पर ANI लिखा देखते होंगे। इसने कवरेज किया तो टीवी पर कस्बे से लेकर महानगर तक में लोगों ने "दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव" के विभिन्न पक्षों को जिज्ञासा से देखा, समझा। इसके बाद ही औरंगाबाद से वर्ष 2002 में भाई संजय सिन्हा जी (तब ई टीवी, अब न्यूज18) आये और फिर तो कई साल तक टीवी रिपोर्टर आते रहे। सहारा के लिए संतोष भाई और कई चैनल के लिए भाई प्रियदर्शी किशोर श्रीवास्तव आये। जिउतिया के उत्थान में यह एक मील का पत्थर बना। "न्यूज ब्रेक" ने जो ब्रेक जिउतिया लोकोत्सव को दिया, उसने मेरे संपर्क-क्षेत्र को समृद्ध किया।

अब ज़माना बदल गया है। नया दौर है, आभासी-युग है। डिजिटल ज़माना है। सोशल मीडिया मजबूत हो रहा है। अखबार के पन्ने बढ़ गए हैं, रंगीन हो गये हैं। इस बार काफी कवरेज प्रिंट मीडिया में भी दिखा। कंटेंट अलग मुद्दा है। आशा है-आगे भी कवरेज दिखेगा। कुछ लोग मुगालते में जीते हैं, कुछ अपनी क्षमता का आकलन किये बिना मतिभ्रम के शिकार होते हैं। कुछ पूर्ववर्ती या समकालीन को अपने से बेहतर न मानने की जिद-पालन में गलत लिख देते हैं, गलत बताते हैं। उनकी परवाह क्या करना? समय उनको उस किनारे लगा देगा, जहां जा कर उनको कोइ नहीं परखेगा। ऐसे लोग व्यंग्य करते रहेंगे, क्योंकि वे किये हुए काम को नकारने में जुटे हैं ताकि उनको महत्त्व मिलता रहे। ऐसा नहीं होता, यह भी वे नहीं जानते। 
खैर,

(“श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में प्रकाशित आलेख की अविकल प्रस्तुति)

जिउतिया का लोक-उत्सव जैसा आप देख रहे हैं, उससे बहुत बेहतर था साल-2000 तक का जिउतिया। छात्र युवा एकता संघ के बैनर तले चावल बाजार में नकल अभिनय प्रतियोगिता के माध्यम से पुरस्कार का वितरण कराया करता था। तब  अनुमंडल स्तरीय तमाम पदाधिकारी एवं ओबरा के विधायक इस मंच की शोभा बढ़ाते थे। विश्व को प्रभावित करने वाली एक घटना इस बीच घटी। अमेरिका स्थित ट्विन टावर को अल कायदा ने ध्वस्त कर पूरी दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया। ठीक उसी वक्त (9/11) यहां जिउतिया समारोह में दो आयोजकों के बीच मारपीट तीसरे पक्ष के कारण हुई और एक युवक की मौत हो गई। इस पूरे मामले में जहां राजनीति को संस्कृति का ख्याल रखते हुए सकारात्मक कदम उठाना चाहिए था, वहीं घटिया राजनीति की गई। एक शख्स ने मुझे इस हत्या कांड में फंसाने की कोशिश की और भाकपा माले ने इसे- यादवों के गुंडा गिरोह द्वारा की गई हत्या- बता कर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने का अवसर बना लिया। जब कि इस हत्याकान्ड में आरोपी बनाये गये छः में मात्र तीन यादव थे और अन्य तीनों भाकपा माले के वैसे सदस्य जो उसकी गोपनीय बैठक तक में शामिल होते थे। जिस तरह की राजनीति की गई उससे वितृष्णा का जन्म हुआ और फिर खुद को इस लोकोत्सव से अलग कर लिया। अपना दायरा समेट लिया और उसे सिर्फ लेखन तक सीमित कर दिया। नतीजा जिस जिउतिया को चरम तक ले जाने की मैनें कोशिश की उसे ही किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर सिमटते देखता रहा। इससे आत्मिक कष्ट होने लगा। इससे राजनीतिक, सामाजिक जटिलताओं को समझने का अवसर मिला। पुलिस के दलालों (तीन) ने मेरा यह ज्ञानवर्धन किया कि वास्तव में दलाल किसी के नहीं होते। मेरे साथ सच का साथ देने को खडे़ थे कुछ प्रशासनिक अधिकारी और पुलिस अधिकारी। कुछ प्रबुद्ध लोग और अन्य। तब मेरे पास पुख्ता सबूत थे कि मैं घटना के वक्त पटना से आये एशियन न्यूज इंटरनेशनल (एएनआई) के बिहार ब्यूरो प्रशांत झा के साथ था, और घटना की सूचना मैंने ही मध्य रात्रि को जिला प्रशासन को दिया था। खैर, इस दौर में कई रोज भूमिगत जीवन जीना पड़ा। उसकी पीड़ा मेरे इतिहास की थाती है, उसे अभी नहीं छेड़ना। दिल कचोटता था और अंततः खुद को रोक न सका और फिर धीरे-धीरे सक्रिय भूमिका निभाने लगा।
वर्ष- 2000 मील का पत्थर मात्र नहीं वरन, जिउतिया के ऐसा पड़ाव बन गया है, जिसकी चर्चा के बिना जिउतिया लोकोत्सव का इतिहास नहीं लिखा जा सकता। पहली बार पटना से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक न्यूज ब्रेकके 17 सितंबर 2000 के अंक में इस संस्कृति को व्यापक कवरेज मिला। मेरी चार पन्ने की 
स्टोरी दाउदनगर का विशिष्ट जिउतिया त्योहार-लोक संस्कृति का अनुठा उत्सव- प्रकाशित हुई। इससे पहले रंगीन और इस स्तर का कवरेज कभी नहीं मिला था। इसने पटना में इलेक्ट्रोनिक मीडिया को काफी हद तक प्रेरित किया और इसी कारण ए.एन.आई की टीम यहां मेरे पास जिउतिया उत्सव को कवरेज करने आयी। इसके बाद ही ई.टीवी, सहारा जैसे क्षेत्रीय चैनल यहां कई बार कवरेज करने आये। साल 2000 में ए.एन.आई का आना और न्यूज-ब्रेक का कवरेज करना खासा महत्वपूर्ण था। तब इतना सहज और सुलभ उपलब्ध नहीं था मीडिया जितना कि आज है। तब दैनिक जागरण का प्रकाशन बिहार से प्रारंम्भ नहीं हुआ था। इसके आगमन के बाद ही अखबारों का स्थानीयकरण प्रारंभ हुआ, 12 पेज वाले अखबार 16 पेज के हो गये और रंगीन भी। अन्यथा रंगीन सिर्फ साप्ताहिक परिशिष्ट ही हुआ करते थे। आजके ताना-बाना और दृष्टि जैसे रंगीन परिशिष्ट में मेरे कई आलेख प्रकाशित हुए। तब बिहार में हिन्दुस्तान और आज ही प्रमुख अखबार थे, आर्यावर्त की जगह नहीं बन सकी थी, यद्यपि उसने भी मेरे आलेख प्रकाशित किये। इससे यह स्थापित करने में मदद मिली कि जिउतिया भले ही पूरे हिन्दी पट्टी में मनाया जाता है किंतु दाउदनगर का खास है। इसमें सबसे बड़ी भूमिका दैनिक जागरण अखबार की रही। 2001 से प्रकाशन प्रारंभ हुआ और इसी साल इसके परिशिष्ट अपना प्रदेश में करीब आधे पन्ने पर -11 सितंबर 2001 को मेरा आलेख- जिउतिया के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आज भी जीवंत- शीर्षक से प्रकाशित हुआ। पूरे बिहार में। ऐसे कई अवसर इस अखबार के माध्यम से मिला। बाद में तो शायद ही कोई साल रहा होगा जब जिउतिया के अवसर पर दैनिक जागरण से अधिक किसी ने इस संस्कृति को कवरेज दिया हो। निरंतर दस-बारह आलेख, खबरें प्रकाशित होते रही है। एक वाकया बताता हूं। जब 1996 में मैं इस संस्कृति पर आधारित लोकयान के निष्कर्ष पर कसा हुआ एक खोजी आलेख लेकर हिन्दुस्तान के पटना कार्यालय गया था। वहां जिउतिया पर आलेख दिया तो साहित्य संपादक अनिल विभाकर ने कहा कि जिउतिया तो पूरे हिन्दी पट्टी में होती है फिर तुम क्या खास इस पर लिखोगे। उन्होंने नोटिस नहीं ली। हालांकि बाद में मैं लगातार लिखता रहा, और राज्य के तमाम अखबारों में मेरे आलेख हर साल छपते थे। हिन्दुस्तान छोड़कर। हां, यहां यह बता दें कि हिन्दुस्तान में भी मेरे दर्जन भर आलेख प्रकाशित हुए हैं, जिसमें जिउतिया पर केन्द्रित आलेख शामिल नहीं है। दैनिक जागरण की आपत्ति के बाद हिन्दुस्तान के लिए प्रासंगिक या समीचीन विषयों पर लिखना छोड़ दिया था।

यह सब उपलब्धि यूं ही नहीं मिली थी। मेरी पत्रकारिता की यात्रा 1994 अक्टूबर में प्रारंभ हुई थी। जब 1995 में जिउतिया का पर्व आया तो मुझे प्रेरणा मिली कि यह मेरे लिए अवसर हो सकता है। आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्ठमी तिथि को जिउतिया मनाया जाता है। यहां यह पहली तिथि से प्रारंभ हो जाता है। मैं कई सप्ताह पूर्व गलियों में घुमने निकला। जमीन पर जिउतिया खोज रहा था। लोहा जी” ( लोहिया जी) समेत कई बूजूर्गों से मिला। उनसे बात की। इधर रोजाना लोक संस्कृतियों पर साहित्य का अध्ययन करता रहा। जिसमें बडी दृष्टि मिली सापेक्ष के लोक संस्कृति विशेषांक से। इसके बाद पहली बार 1995 में डाल्टनगंज से प्रकाशित दैनिक अखबार राष्ट्रीय नवीन मेलमें आठ कालम में आधे पेज का मेरा विश्लेषण प्रकाशित हुआ। इसके बाद ही इस लोकोत्सव में फोकलोट के सभी चार आयामों की प्रचुरता से उपस्थिति को मान्यता मिली। यह पहला अवसर था जब इस लोक संस्कृति के सभी चार आयामों यथा लोक कला, लोक साहित्य, लोक व्यवहार एवं लोक विज्ञान की विवेचना की गई। इसके बाद हर साल यह काम होता रहा। नई नई बातें सामने लाता। अन्यथा मात्र बम्मा देवी, प्लेग और आयोजन से अधिक गहरे उतरने की कोशिश कभी नहीं दिखी थी।
आज जिउतिया जो है उसे पुनः वर्ष 2000 से बेहतर स्थिति में लाना शायद मुश्किल है, लेकिन इसे लाना होगा। इमली तल विद्यार्थी चेतना परिषद जैसे पुराने संगठन हों या एकदम नया आयोजक बने पुराना शहर का ज्ञान दीप समिति के प्रयास, इसे और आगे ले जाना होगा। जैसे नकल अभिनय प्रतियोगिता के आयोजकों ने इस संस्कृति से फुहड़पन और अश्लीलता को न्यूनतम किया है वैसे ही इसे परिष्कृत करने के साथ और उंचाई तक ले जाने का प्रयास निरंतर जारी रखना होगा। 

Saturday, 21 September 2019

जिउतिया मतलब दाउदनगर का लोकोत्सव : ऐसा और कहीं नहीं

जिउतिया, जितिया या जीवित्पुत्रिका व्रत यूं तो हिंदी पट्टी का एक पर्व है, जो आश्विन कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि (इस बार 22 सितंबर 2019) को मनाया जाता है किन्तु, बिहार ही नहीं अपितु पुरे भारत में इस पर्व को जिस तरह औरंगाबाद जिले के दाउदनगर शहर में मनाया जाता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं होता है। इस बार इस लोकोत्सव पर शोध करने, किताब लिखने और नयी ऊँचाई-पहचान देने वाले लेखक-उपेंद्र कश्यप-से बातचीत पर आधारित मीडिया दर्शन की विशेष प्रस्तुति-


*जितिया जे अईले मन हुलसईले, नौ दिन कईले बेहाल रे जितिया....*

जिउतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत माताएं अपने संतान की दीर्घायु होने की कामना को लेकर मनाती हैं। बिहार के औरंगाबाद जिला का दाउदनगर शहर इसे लोकोत्सव के रूप में मनाता है, न कि सिर्फ व्रत या पर्व के रूप में। इसका ऐसा स्वरूप और कहीं नहीं मिलता, जैसा दाउदनगर में है। यहाँ इसे नकल, या कहें स्वांग-समारोह के रूप में मनाया जाता है। लगता है जैसे पूरा शहर ही भेष बदलो अभियान पर निकल चुका। क्या बच्चे और क्या बूढ़े, किसी में कोइ फर्क नहीं रह जाता। सब नया रूप धर कर सामने आते हैं। राजस्थान की स्वांग कला को यहाँ के कलाकार मात देते दिखते हैं। ऐसी-ऐसी प्रस्तुतियां जिसे देखकर दर्शक दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। आँखें आधी प्यासी रह जाती हैं, और देखने की ललक बढ़ जाती है। खतरनाक प्रस्तुतियां भी होती हैं। शहर इसीलिए तो गाता है–‘धन भाग रे जिउतिया, तोरा अइले जियरा नेहाल रे जिउतिया, जे अइले मन हुलसइले, नौ दिन कइले बेहाल, रे जिउतिया ...” और जब पर्व खत्म होने को होता है तो लोग विरह की वेदना महसूस करते हैं-“देखे अइली जिउतिया, फटे लागल छतिया, नैना ढरे नदिया समान। जान तोहे बिन घायल हूं पागल समान...।“ यह बताता है कि दाउदनगर वासियों के लिए जिउतिया क्या है? यहाँ गाये जाने वाला झूमर बताता है कि जिउतिया जिउ (ह्रदय) के साथ है-

दाउदनगर के जिउतिया सरेनाम हई गे साजन

दाउदनगर के जिउतिया जिउ के साथ हई गे साजन,

कहाँ के दिवाली, कहाँ के दशहरा गे साजन,

कहवाँ के जिउतिया कइले नाम हई गे साजन

दिल्ली के दिवाली, कलकता के दशहरा गे साजन

दाऊदनगर के जिउतिया कइले नाम हई गे साजन

 बिहार को प्रतिनिधि संस्कृति की खोज: श्रमिक जातियों की श्रमण संस्कृति से परहेज:-
'बिहार के विभाजन के बाद छउ नृत्य झारखंड की प्रतिनिधि संस्कृति बन गई। बिहार अब भी किसी लोक संस्कृति को यह दर्जा नहीं दे सका है। उसे छठ संस्कृति में ही यह क्षमता दिखती है। सरकार को बहुजनों की श्रमण संस्कृति में प्रतिनिधित्व का गुण नहीं दिखता। जबकि बहुजनों की इस लोक संस्कृति में वह क्षमता है।' यह दावा “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” में उसके लेखक उपेंद्र कश्यप ने किया है। कहा कि-'चूँकि इस लोकोत्सव में श्रमण संस्कृति से जुड़ी जातियां, अर्थात श्रमजीवी समाज की सहभागिता होती है, शायद इसी कारण इस ओर कोइ ध्यान नहीं देता। दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव को राजकीय दर्जा दिलाने की मांग को लेकर प्रयास जारी है।' स्वयं उपेंद्र कश्यप ने मंत्री, विभागीय सचिव तक को ज्ञापन दिलवाया है। धर्मवीर फिल्म एंड टीवी प्रोडक्शन के निर्देशक धर्मवीर भारती ने कला संस्कृति संसदीय समिति के सदस्य सह सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव (अब पूर्व) से मिलकर क़रीब डेढ़ घंटे की लंबी चर्चा की। उन्हें उपेन्द्र कश्यप लिखित ‘श्रमण संस्कृति का वाहक दाउदनगर' के साथ दो पेज में इस संस्कृति का सिंहावलोकन और राष्ट्रीय स्तर के फ़िल्म फेस्टिवल में स्पेशल ज़्यूरी अवार्ड विजेता डाक्यूमेंट्री फ़िल्म "जिउतिया : द सोल ऑफ कल्चरल सिटी दाउदनगर" की डीवीडी भेंट की। बिहार के मंत्री शिवचंद्र राम को भी ज्ञापन दिया गया था।

नगर पंचायत की कोशिश को नगर परिषद लगा रहा पलीता:-
नगर पंचायत दाउदनगर ने 2016 में “दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव” का आयोजन किया था। उपेंद्र कश्यप की पहल पर तत्कालीन मुख्य पार्षद परमानंद प्रसाद, उप मुख्य पार्षद कौशलेन्द्र कुमार सिंह और कार्यपालक पदाधिकारी विपिन बिहारी सिंह ने यह आयोजन कराया था। जिसमें वार्ड पार्षद बसंत कुमार और (अब स्वर्गीय) मुन्ना नौशाद ने महती भूमिका निभाया था। इसके बाद नगर पालिका का वजूद ख़त्म हो गया। वर्ष 1885 में नगर पालिका बना शहर तब नगर पंचायत था। नगर परिषद् में उत्क्रमित होने के साथ स्थिति बदल गयी। बोर्ड भंग हो गया और चुनाव न होने की स्थिति में अनुमंडल पदाधिकारी अनीश अख्तर ने रूचि नहीं ली। लोक संस्कृति से जुड़े तमाम लोग उनसे आग्रह करते रहे किन्तु वे अपनी जिद पर अड़े रहे, नतीजा 2016 में आगाज परंपरा की गर्भ में ही ह्त्या कर दी गयी और फिर आया 2017 का साल। जून में नगर परिषद् का गठन हुआ, चुनाव हुआ, बोर्ड बना, लेकिन आयोजन से इनकार कर दिया गया। मंच से घोषणा की गयी कि 2019 में आयोजन अवश्य होगा, किन्तु नहीं किया जा रहा। चर्चा तो है कि दो या इससे अधिक लोगों की जिद के कारण आयोजन नहीं हो रहा है। एक तरह से बोर्ड ही हाइजैक हो गया है। दुखद यह है कि जो इस संस्कृति का हिस्सा हैं, उनकी बहुसंख्या उनके आगे नतमस्तक है जिनकी कोइ भागीदारी इस लोकोत्सव में होती ही नहीं है। यदि नगर परिषद लोकोत्सव का आयोजन करते रहता तो एक दिन सरकार को भी आगे आना पड़ता। प्रतिनिधि संस्कृति का दर्जा न भी मिलता तो हम राजकीय समारोह तक की यात्रा पुरी कर सकते थे। किन्तु जब घर के ही लोग विरोध में टांग खींचने को खड़े हों तो बाहर वाले से क्या अपेक्षा कर सकते हैं?

159 साल से अधिक पुराना है दाउदनगर की जिउतिया संस्कृति:-
एक लोक गीत बताता है कि जिउतिया लोक संस्कृति कितनी पुरानी है। किसी भी लोक संस्कृति का प्रारंभ किन लोगों ने कब किया यह ज्ञात शायद ही होता है। मगर जिउतिया संस्कृति के मामले में कुछ अलग और ख़ास है।“ आश्विन अन्धरिया दूज रहे, संबत 1917 के साल रे जिउतिया। जिउतिया जे रोपे ले हरिचरण, तुलसी, दमडी, जुगुल, रंगलाल रे जिउतिया। अरे धनs भाग रे जिउतिया...।“ कसेरा टोली चौक पर गाया जाने वाला यह गीत स्पष्ट बताता है कि पांच लोगों ने इसका प्रारंभ किया था। किन्तु, सवाल यह है कि क्या वास्तव में किसी लोक संस्कृति का ऐसे प्रारंभ होता है? बीज तो कहीं और होगा? स्वयं कसेरा समाज के लोग यह मानते हैं कि उनके पूर्वजों ने इमली तल का नकल किया था। यानी संबत 1917 या इसवी सन 1860 से पहले इमली तल जो होता था उसका देखा देखी कांस्यकार समाज ने अपने मोहल्ले में शुरू किया। तब यह समाज आर्थिक रूप से संपन्न था। स्वाभाविक रूप से यह संभव दिखता है कि तब शिक्षा भी इस समाज में पटवा, तांती समाज के अपेक्षाकृत अधिक होगी। नतीजा यहाँ साहित्य रचा गया और बाद में कभी यह गीत लिखा गया कि-जितिया जे रोप ले हरिचरण, तुलसी, दमड़ी, जुगुल, रंगलाल रे जितिया.. । लोक संस्कृति के रूप में कोइ भी बीज धीरे-धीरे सामूहिक प्रयासों और लोक सहभागिता से विकसित होता है। आज इस संस्कृति ने कई प्रकार के निरंतर प्रयासों से अपनी पहचान स्थापित किया है।

कैसे हुआ संस्कृति का बीजारोपण:-
इस संस्कृति का बीजारोपण कैसे हुआ होगा? लोक स्मृतियों में जो रचा बसा है उसके अनुसार- कभी प्लेग की महामारी को शांत करने की तत्कालीन समाज की चेष्टा से इस संस्कृति का जन्म हुआ। इसमें कामयाबी भी मिली। लेकिन तब एक महीना तक जो जागरण हुआ वह निरंतरता प्राप्त कर संस्कृति बन गई। पूरा वृत्तांत आप “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” पुस्तक में पढ़ सकते हैं। तब तत्कालीन समाज ने दक्षिण या पश्चिम भारत से ओझा, गुणियों को आमंत्रित किया, दैवीय प्रकोप माने गए प्लेग की महामारी को रोकने के लिए। वे आये और इसे शांत किया, जिसमें जादू-टोना, समेत कई कर्म किये गए। एक माह तक चले इस प्रयास ने परंपरा को जन्म दिया जो कालान्तर में संस्कृति बन गयी। बाद में यह नौ दिन और अब मात्र तीन दिवसीय संस्कृति में सिमट गया। यह हर साल आश्विन कृष्णपक्ष अष्ठमी को मनाया जाता है। यहां लकडी या पीतल के बने डमरुनूमा ओखली रखा जाता है। हिन्दी पट्टी में इस तरह सामूहिक जुटान पूजा के लिए कहीं नहीं होता। यहां शहर में बने जीमूतवाहन के मात्र चार चौको (जिउतिया चौक) पर ही तमाम व्रति महिलायें पूजा करती हैं। इस संस्कृति में फोकलोट अर्थात लोकयान के सभी चार तत्व यथा लोक साहित्य, लोक कला, लोक विज्ञान और लोक व्यवहार प्रचुरता में उपलब्ध हैं। तीन दिन तक होने वाली प्रस्तुतियों में इसे देखा जा सकता है। सरकार बहुजनों की इस लोक संस्कृति के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं कर रही है। सिर्फ प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। लोक अपने तंत्र (सरकार) से कुछ नहीं लेती। न सुरक्षा मांगती है न साधन। न तनाव देती है न बवाल। लोग अपने में मस्त रहते हैं, मस्ती करते हैं और दूसरों को इतना मस्त कर देते हैं कि वे मन-मस्तिष्क को तृप्त किये बिना ही लौट जाते हैं। दूर-दूर से लोग यहाँ जिउतिया देखने आते हैं।                                       

कौन थे भगवान जीमुतवाहन ?
दाउदनगर में जिस जीमूतवाहन की पूजा बहुजन करते हैं वास्तव में वे राजा थे। उनके पिता शालीवाहन हैं और माता शैब्या। सूर्यवंशीय राजा शालीवाहन ने ही शक संवत चलाया था। इसका प्रयोग आज भी ज्योतिष शास्त्री करते हैं। इस्वी सन के प्रथम शताब्दी में 78 वे वर्ष में वे राज सिंहासन पर बैठे थे। वे समुद्र तटीय संयुक्त प्रांत (उडीसा) के राजा थे। उसी समय उनके पुत्र जीमूतवाहन की पत्नी से भगवान जगन्नाथ जी एवं इनके वाहन गरुण से आशीर्वाद स्वरुप जीवित्पुत्रिका की उत्पत्ति हुई। इसी का धारण महिलायें अपने गले में करती हैं।

 पटना के उइया रे सूइया, गया के हइ दरजिया इयार:-
दाउदनगर जिउतिया लोकोत्सव एक मामले में काफी समृद्ध है कि इसे अपना अलोक साहित्य उपलब्ध है। जिउतिया के गीत बडे सरस हैं। इसमें स्थानीय इतिहास, भूगोल और विशेषताओं को भी प्रयाप्त जगह मिली है। साहित्य इस्द लोकोत्सव के बारे में बहुत कुछ बता देता है। झूमर में गाते हैं- -दाऊदनगर के जिउतिया सरनाम हई गे साजनदाऊदनगर के जिउतिया जीव के साथ हई गे साजन! कहाँ के दिवाली, कहाँ के दशहरा गे साजन, कहवाँ के जिउतिया कइले नाम हई गे साजन दाऊदनगर..दिल्ली के दिवाली, कलकता के दशहरा गे साजन, दाऊदनगर के जिउतिया कइले नाम हई गे साजन, दाऊदनगर के ..... झूमर में विविधाता होती है, रंगीनी होती है और मधुरता भी- -दूर देसे नोकरिया के रे जइहें के जइहें हाजीपुर, के जइहें पटना, के रे जइहें, दूर देसे नोकरिया के रे जइहें बाबा जइहें हाजीपुर, भइया जइहें पटना, सइयाँ जइहें, दूर देसे नोकरिया सइयाँ जइहे, के लइहें बाजूबंद, के लइहें कंगना, के रे लइहें, छतिया दरपनवा के रे लइहें, बाबा लइहें बाजूबंद, भइया लइहें कंगना, सइयाँ लइहें, छतिया दरपनवा सइयाँ लइहें। यहां का परवर काफी मशहूर है। तब भी था और हाजीपूर तक की मंडियों में इसे बेचने यहां के लोग जाते थे। तब पटना नहर में स्टीमर की यात्रा होती थी। देखिये-- ए राजा जी परवर बेचे जायम हाजीपुर परवर बेच के पायल गढ़ायम, पायल हम पहिरम जरूर, ए राजाजी परवर बेचे जायम हाजीपुर एक रंगीन मिजाज का झूमर देखिये। तब भी समाज किस तरह खूला हुआ था जब प्रेम की बातें भी खूब होती थी। -नैना बिदुल हे कहवाँ से आवेला इयार, कहवाँ से आवेला बारि बियहुआ, बारि बियहुआ नैना बिदुल हे कहवाँ से आवेला इयार, पूरबा से आवेला बारि बियहुआ, बारि बियहुआ, नैना बिदुल हे पछिमा से आवेला इयार, श्यामसून्दर बनिया के जा (बेटी), हई रे मनीजरवा, एहि परि गंगा, ओहि पारे जमुना, के मोरा घइला अलगा, हई रे मनीजरवा, घोड़वा चढ़ल आवे राजाजी के बेटवा, ओहि मोरा घइला अलगा, हई रे मनीजरवा,क हवाँ के उइया रे सूइया, कहवाँ के दरजिया इयार, पटना के उइया रे सूइया गया के हइ दरजिया इयार। अइसन चोलिया सीलिहें दरजिया, दूनो मोरवा करे गोहार, पटना के उइया रे सूइया, गया के हइ दरजिया इयार।

 जातीय पहचान से जुडी है चौकें:-
शहर में जिउतिया के सभी चार चौकें जातीय पहचान से जुडी हुई हैं। सबसे पुराना इमली तल पटवा टोली में है। इससे तांती समाज की पहचान जुडी हुई है। इसई तरह कसेरा टोली चौक से कसेरा जाति की। यहां आयोजक भी यही जातियां हैउं और संरक्षक भी। इसी तरह पुरानी शहर चौक जो पुराना सोनारपट्टी है से इस जाति के लोग जुडे हैं। बाजार चौक व्यवसायिक गतिविधियों का अड्डा है सो इससे वैश्य समाज जुडा हुआ है। पुराना शहर और बाजार चौक से दूसरी जातियों की भी सहभागिता है। दोनों जगह आयोजन में मिश्रित जातियां शामिल हैं।

Friday, 20 September 2019

जिउतिया लोकोत्सव पर शोध-कार्य खत्म नहीं हो सकता!


जिउतिया की रिपोर्टिंग-यात्रा-01
० उपेंद्र कश्यप ०
चुनौतियां और आलोचना हमेशा प्रेरणादायी होती हैं जो करने की इच्छा नहीं होती, वह भी करा देती है पत्रकारिता में मेरे मार्ग तो इसी कारण प्रशस्त होते रहे हैं औरंगाबाद जिले का एक कस्बाई शहर है दाउदनगर, जिसकी अभी आबादी करीब 60 हजार है जब जिउतिया लोकोत्सव (1860 से पूर्व) के रूप में मनाया जाना शुरू हुआ था, तब बमुश्किल इस शहर की आबादी 05 हजार रही होगी “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” के अनुसार 1885 में नगर पालिका बने दाउदनगर शहर की 1881 में 8225 जनसंख्या थी जिउतिया पर काफी मैंने लिखा है, इसका अर्थ यह नहीं कि लिखने को अब कुछ नहीं बचा, अब भी काफी कुछ लिखा जा सकता है शोध के लिए विषय में कुछ न कुछ हमेशा बचा रह जाता है आइये, आगे बढिए, लिखिए, मुझसे आगे की दास्ताँ, कुछ ख़ास और कुछ अलग, सबका स्वागत है अलग जो लिखा जाएगा उसकी भी मुक्तकंठ से प्रशंषा करूंगा, जैसे धर्मवीर भारती ने अपनी डाक्यूमेंट्री में मेरे किये गए काम से कुछ अलग किया/ जोड़ा, तो सार्वजनिक मंच से इसकी प्रशंषा की खैर, मैं यह नहीं कहता, कि जिउतिया लोकोत्सव पर मुझसे बेहतर नहीं लिख सकता कोइ, किन्तु डंके की चोट पर यह कहता हूँ कि- मेरे से अधिक किसी ने अभी तक तो इस विषय पर नहीं लिखा है
इस पंक्ति को कोइ भी अपने हिसाब से सकारात्मक या नकारात्मक भाव में ले सकता है, यह अगले की स्वतंत्रता है लेकिन कई रिपोर्ट मेरी ही रिपोर्ट की हू-ब-हू नकल है साहित्यिक चोरी मेरी किताब, स्मारिकाओं और राष्ट्रीय नवीन मेल, दैनिक जागरण, आर्यावर्त, आज में प्रकाशित मेरी रिपोर्टों की नकल ऐसे में, मुझे किसी के लिखे हुए से अपना कतरन मिलाने की भला क्या जरुरत है? दाउदनगर और शहर के लोग जानते हैं कि जिउतिया का मतलब कौन? औरंगाबाद जिले से बाहर यदि जिउतिया पर किसी का लिखा पढ़ा गया तो मेरा लिखा हुआ बिहार में, और अन्य प्रदेशों में भी जो पढ़ा और देखा गया, उसमें मैं हूँ, या मेरा योगदान शामिल रहा है वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शी किशोर श्रीवास्तव के अनुसार-“गूगल पर सर्च मारिये, नकल पकड़ी जायेगी कश्यप की लिखी हुई रिपोर्ट में बयान देने वालों के बस नाम बदल दिए गए और लेखक कोइ और हो गया है

पोर्टल रिपोर्टर सुनील बॉबी को इमली तल कोइ बताने वाला नहीं मिला हां बुजुर्गों ने उनको यह जरुर बताया कि-जिउतिया पर दैनिक जागरण के पत्रकार कश्यप जी से मिलिए, वही बताएँगे, वही लिखते हैं (बुजुर्ग को नहीं मालुम कि अब मैं दैनिक भास्कर में डेहरी हूँ) एक और वाकया बताता हूँ, जिसे शायद संस्कार विद्या में आयोजित एक कार्यक्रम में सार्वजनिक रूप से जिउतिया पर डाक्यूमेंट्री बनाने वाले शख्स धर्मवीर भारती ने बताया था जब 2014 में मैंने पुरानी शहर में ज्ञान दीप समिति द्वारा आयोजित जिउतिया नकल प्रतियोगिता में यह घोषणा किया था कि-अगले वर्ष इस शहर पर एक किताब दूंगा, जिसके बाद मैं इस घोषित डेट लाइन पर किताब प्रकाशित करने के लिए लिखने वास्ते अपने घर में दोपहर तक कैद रहने लगा अचानक मोबाइल की घंटी बजी धर्मवीर भारती का कॉल आया मेरी पहचान नहीं थी
बोले-एक डाक्यूमेंट्री बना रहा हूँ, आपसे कुछ जानकारी लेनी है मैं बोला- अभी घर पर आप मिल सकते हैं किताब लिख रहा हूँ या फिर शाम में बाजार में स्टूडियो यादें में मिल सकता हूँ आने की स्वीकृति ले वे घर आ गए उनको जितनी उम्मीद थी, मैं उससे अधिक दिया, हालांकि किसी विषय पर किताब लिख रहा कोइ लेखक प्राय: किसी और से जानकारी किताब के प्रकाशित होने तक साझा नहीं करता यह देख वे चौंक गये मंच से कहा था-“बाईट जिसके पास भी लेने गया, उसमें से अधिकतर ने यही बोला कि- सबके बाईट लिहअ, उपेंद्र कश्यप भिर मत जईह इसके बाद अपने गुरु आफताब राणा से बात की तो वे बोले-जाओ, मिलो, उपेंद्र मेरा इयार है, मिलोगे तो पता चलेगा इसके बाद उपेंद्र भैया से मिले मिले तो इतनी जानकारी दी, जो किसी से नहीं मिली जानकारी क्या, पुरी किताब खोलकर रख दी हर सवाल का जवाब मिला“ जिउतिया मेरी बपौती नहीं है, कोइ कुछ भी पूछेगा तो बताने को नि:संकोच उपलब्ध हूँ शहर में ऐसे किसी का विरोध होता है, धारणा बनाई जाती है धारणा गढ़ी और प्रचारित कर उसे रूढ़ बनाया जाता है कारण बस जलन की भावना जिस डाक्यूमेंट्री का जिक्र किया, उसमें कई के बाईट ठुंसा हुआ लगेगा समझ सकते हैं, धर्मवीर पर पड़े दबाव को

मिलते हैं फिर कभी, जब कोइ दिल पे चोट पहुंचा जाएगा.....      

Saturday, 14 September 2019

लोक संस्कृति का प्रतिनिधि जिउतिया उत्सव


 “जिउतिया हिन्दी पट्टी क्षेत्र का एक त्यौहार हैं किन्तु बिहार के दाउदनगर में यह नौ दिवसीय लोकोत्सव है, जिसमें-स्वांग, नकल, अभिनय और झांकी की प्रस्तुति बड़े पैमाने पर होती है। व्यापक स्त्री भागीदारी विमर्श को नया आयाम देती है। फोकलोट के सभी तत्वों की इतनी व्यापक प्रस्तुति और कहीं नहीं----“
अहा जिन्दगी के 15.09.2019 के अंक में प्रकाशित 

लोकयान के सभी तत्वों की प्रतिनिधि संस्कृति : दाउदनगर-जिउतिया लोकोत्सव
० उपेंद्र कश्यप०
‘श्रमण संस्कृति का वाहक : दाउदनगर’ किताब के लेखक एवं स्थानीय इतिहास के जानकार

यूं तो जिउतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत पुरे हिन्दी पट्टी क्षेत्र में मनाया जाता है। किन्तु बिहार के दाउदनगर में इसका अलग स्वरूप और अंदाज है। यहाँ यह नौ दिवसीय लोकोत्सव है, जो न्यूनतम वर्ष 1860 से आयोजित हो रहा है। यह अकेला ऐसा पर्व है जो लोक संस्कृति की संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए बने शब्द “फोकलोट” (इसे लोकायन या लोकयान भी कहते हैं) के सभी चार तत्वों की एक साथ प्रचुरता में प्रस्तुति देखने का अवसर हर वर्ष आश्विन कृष्ण पक्ष में उपलब्ध कराता है। यह पर्व आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को होता है। इस बार यह व्रत 21 सितंबर दिन शनिवार को है। डॉ. अनुज लुगुन- सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया ने इस उत्सव में स्त्री भागीदारी पर लिखा है-आमतौर पर हिंदी पट्टी में स्त्रियों की सार्वजनिक भागीदारी बहुत कम दिखती हैयहां तक कि प्रगतिशील संगठनों के कार्यक्रमों में भीयह हिंदी पट्टी का सामंती और पितृसत्तात्मक लक्षण हैलेकिन, दाउदनगर के जिउतिया त्योहार में स्त्रियों की बराबर की उपस्थिति विचार करने को विवश करती है

लोक और संस्कृति की व्यापक अभिव्यक्ति के लिए एक शब्द है-लोकायन या लोकयान या फोकलोट। नृतत्वशास्त्री लोकयानके अंतर्गत चार खंड बताते हैं। लोक-साहित्य, लोक-व्यवहार, लोक-कला या कलात्मक लोकयान, और चौथा लोक-विज्ञान व औद्योगिकी है। जिउतिया लोक संस्कृति में इन चारों की उपस्थिति प्रचुरता के साथ है। ऐसा बिहार की अन्य संस्कृतियों के साथ नहीं है।
० अपना मौलिक, समृद्ध व मौखिक (कुछ लिखित) लोक साहित्य है। इसमें लोक जीवन का दुख दर्द, हर्ष उल्लास का अनुभव तथा जीवन पर वैचारिक प्रतिक्रियायें मिलती हैं। पर्व-त्योहारों, देवी-देवताओं तथा प्रकृति के विविध रुपों का चित्र मिलता है। साहित्य वाचन परंपरा में झुमर, लावनी, मुहावरे या वीरता के गीत के रूप में जीवित है। चकड़दम्मा, झुमर में विविधता, रंगीनीयत और मधुरता होती है। सरस गीत हैं, जिसमें स्थानीय इतिहास, भूगोल और विशेषताओं को भी प्रयाप्त जगह मिली है।
० लोक-व्यवहार न तो साहित्य है न ही कला, इसमें विश्वास, प्रथा, अन्धविश्वास, कर्मकांड, लोकोत्सव, परिपाटी शामिल है। यहां का समाज इससे गहरे जुडाव रखता है। जिउतिया से जिउ के समान जुडे जमात में यह कुट-कुट कर भरा हुआ है।
० लोक-कला या कलात्मक लोकयान में लोक नृत्य, लोक-नाट्य, लोक-नटन, लोक चित्र, लोक- दस्तकारी, लोक वेषभूषा व लोक-अलंकरण शामिल हैं। यहाँ की मिट्टी के कण-कण में कला है तो हर शख्स कलाकार। उर्वरता इतनी कि भर जिउतिया समारोह सब कलाकार बन जाते हैं। ये अप्रशिक्षित लोक कलाकार मंझे हुए प्रशिक्षित व प्रोफेशनल कलाकारों को चुनौती देते दिखते हैं। बच्चे ही कलाकार, निर्देशक, पटकथा लेखक, स्त्री-पुरुष पात्र सब वही हैं।
० चौथा और अंतिम समावेश लोक-विज्ञान व औद्योगिकी का है, जिसमें लोकोपचार, लोकौषधियां, लोक नुस्खे, लोक भोजन खाद्य, लोक कृषि रुढियां, जादू टोने शामिल हैं। यहां जब लोक कलाकार अपनी खतरनाक प्रस्तुति देते हैं तो उसमें नुस्खे और लोकौषधियों की उपयोगिता होती है। शरीर में चाकू-छूरी घुसाना हो या फिर दममदाड, डाकिनी, ब्रह्म, काली, गर्म लौह पिंड या दहकते जंजीर को दूहने की प्रस्तुति।

1860 से पहले किन्तु, कब से यह परंपरा:- 
कसेरा टोली चौक पर प्रस्तुत होने वाले एक लोक गीत की पंक्ति है- आश्विन अंधरिया दूज रहेसंवत 1917 के साल रे जिउतिया, जिउतिया जे रोपे ले, हरिचरणतुलसी, दमड़ी, जुगुलरंगलाल रे जिउतियाअरे धन भाग रे जिउतिया। तोहरा अहले जिउरा नेहालजे अहले मन हुलसइलेनौ दिन कइले बेहाल... । इससे यह स्पष्ट होता है कि हरिचरण, तुलसी, दमड़ीजुगुल और रंगलाल ने इसका प्रारंभ संवत 1917 अर्थात 1860 .सन में किया था। क्या ऐसे किसी लोक संस्कृति का जन्म होता है? शायद नहीं! इस जाति विशेष के पूर्वज भी मानते हैं कि- इमली तल होने वाले जिउतिया लोकोत्सव का नकल किया गया था। इसी कारण इस उत्सव में ‘नकल’ (अर्थात देख कर उसकी नकल करना) खूब होता है। हालांकि इमली तल कब से हो रहा था, इसका कोइ प्रमाण लोक गीत में भी नहीं मिलता। करीब 60 हजार आबादी वाले नगर निकाय दाउदनगर में जीमूतवाहन भगवान के चार चौक बने हुए हैं और यहीं सार्वजनिक और सामूहिक रूप से स्त्रियाँ व्रत करती हैं। व्रत कथा सुनती हैं।

Wednesday, 11 September 2019

बाजार में 200 रुपये के नकली नोट आने से व्यवसायी और आम लोग परेशान

फोटो-200 रुपये का नकली नोट ऊपर और असली नीचे

सावधानी से देखने पर पकड़ में आ जाते हैं नकली नोट

लिखावट में उभार नहीं, हरे रंग की सुरक्षा रेखा अस्पष्ट

08 नवंबर 2016 की रात हुई नोटबंदी के बाद जारी 200 रुपये के अब नकली नोट बाजार में आ गया है। इससे बाजार, व्यवसाय और हर आमो-ख़ास व्यक्ति परेशान हो रहा है। जब व्यवसायी ऐसे नकली नोट लेकर बैंक जा रहे हैं तो उनको ज्ञात हो रहा है कि उनके पास 200 रुपये के एक या इससे अधिक नोट नकली हैं। आप थोड़ी सतर्कता बरत कर ऐसे नकली नोट लेने से बच सकते हैं। जो नकली नोट आप तस्वीर में देख रहे हैं, उसे पकड़ने के लिए उसके प्रमुख चिन्हों को अवश्य टटोलें। लिखावट में उभार नहीं हैं, हरे रंग के सुरक्षा धागे पर लिखा हुआ भारत व आरबीआई स्पष्ट नहीं है, बाईं व दायीं ओर अंधों के लिए जो रेखाएं व गोल विन्दु हैं, वे उभरी हुई नहीं हैं। ये तीन चिन्ह आप बहुत सावधानी से देख कर जान सकते हैं कि आपके हाथ में मिला नोट नकली है या असली।


सब कुछ हूबहू, प्रथम दृष्टया पहचानना मुश्किल:-

200 रुपये के नकली और असली नोट में बहुत फर्क नहीं दिखता। प्रथम दृष्टया कोइ भी नकली नोट लेकर रख लेगा। उसे समझ में नहीं आयेगा कि असली है या नकली। सब कुछ हुबहू है। यह जानने और इसे लेने से बचने के लिए नोट को हाथ में लेकर उसे टटोलना होगा। हाथ फेरने पर पता चलेगा कि जो लिखावटें असली नोट में उभरी हुई हैं, वे नकली नोट पर समतल हैं, उभरी हुई नहीं हैं। सबसे आसानी से हरा सुरक्षा धागा देख कर असली-नकली का फर्क जान सकते हैं। बाकी लिखावटें और प्रिंटिंग के रंग एक सा दिखते हैं। किन्तु प्रिंट में धुंधलापन दिखेगा।   


नकली नोट किसे कहते है?

नकली या जाली नोट उसे कहते हैं, जिसमें वास्तविक भारतीय करेंसी नोटों की विशेषताएँ नहीं मिले। ऐसा कोई भी संदिग्ध नोट, जाली नोट या नकली नोट माना जाता है। वास्तविक नोटों वाली विशेषताएँ नोट को देखने, स्पर्श करने और समतल से घुमाकर-हिलाकर आसानी से पहचान सकने योग्य होती हैं। किसी भी जाली नोट में बैंक नोटों में शामिल सभी सुरक्षा विशेषताओं की सफलतापूर्वक नकल सामान्यतः नहीं हो पाती है।     


जाली नोटों के बारे में क्या है कानूनी प्रावधान:-

भारतीय दंड संहिता की धारा 489 A से 489 E के अंतर्गत बैंकनोटों का जालीकरण/जाली या नकली नोटों का असली नोटों के रूप मे उपयोग करना/ जाली या नकली नोटों को अपने पास रखना/ बैंकनोटों के जालीकरण के लिए उपकरण तथा संबंधित सामग्री बनाना या उन्हें अपने पास रखना/बैंकनोटों की सादृश्य दस्तावेज बनाना तथा उनका उपयोग करना अपराध है। जिसके लिए न्यायालय जुर्माना, अथवा सात वर्ष से लेकर आजीवन कारावास अथवा दोनों सज़ाएं, अपराध के आधार पर, दे सकते हैं।

Monday, 9 September 2019

जुर्माना लीजिये हुजूर, लेकिन हर्जाना भी दीजिये


जुर्माना लगाने वाले सत्ता-तंत्र को भी हर्जाना भरने के लिए तैयार करो

यह तो संभव नहीं है लोकतंत्र में कि जनता को जबरन जुर्माना के लिए मजबूर किया जाए और सत्ता व तंत्र को छुट्टे सांड की तरह छोड़ दिया जाएउसको जिम्मेदारी मुक्त रखा जाए?
 0 उपेंद्र कश्यप 0
नए यातायात नियम को लेकर बवाल है। जायज भी लगता है। सड़क यातायात में सुधार और सड़क हादसों में कमी की उम्मीद इससे है। लेकिन सवाल यह भी है कि जनता जुर्माना तो भरने को मजबूर है, क्या जुर्माना लगाने वाले सत्ता-तंत्र को भी हर्जाना भरने के लिए तैयार नहीं किया जाना चाहिए? आखिर यह तो संभव नहीं है लोकतंत्र में कि जनता को जबरन जुर्माना के लिए मजबूर किया जाए और सत्ता व तंत्र को छुट्टे सांड की तरह छोड़ दिया जाए? उसको जिम्मेदारी मुक्त रखा जाए? नए यातायात जुर्माना दर का एक बेहतर साइड इफेक्ट अब सामने आने लगा है। जनता सड़क की बेहतरी की मांग करने लगी है।
सरकार को यह चाहिए कि जिम्मेदारी तय करे। लाइसेंस दो-चार दिन में मिले। इसके लिए यदि जिम्मेदार अधिकारी तंग करता है, रिश्वत लेता है तो उससे 50 हजार जुर्माना वसूला जाना चाहिए। इसके लिए जांच और सबूत देने/जुटाने का झंझट नहीं, सिर्फ लाइसेंस के लिए आवेदन देने वालों द्वारा एक तय समय में तीन या पांच शिकायत ही पर्याप्त आधार माना जाना चाहिए। ताकि डर का सिद्धांत यहां भी लागू हो। अधिक जुर्माना वसूली नियम के पीछे डर का ही तर्क दिया गया है। इसके अलावा, सड़क पर गड्ढा हो तो उसकी तस्वीर गूगल मैप और लोकेशन के साथ विभागीय एप (बनाया जाए) पर डाउन लोड करते ही सड़क बनाने वाली एजेंसी, मेंटेनेंस के लिए जिम्मेदार अधिकारी, राशि जिस जिस के हस्ताक्षर से जारी होती है, उसके खिलाफ एक लाख का जुर्माना और तस्वीर पोस्ट करने वाले के खाते में 25000 से 50000 का कैश गिफ्ट दिया जाना तय हो। इससे सड़क निर्माण की गुणावत्ता के साथ मेंटेनेंस की स्थिति भी सुधरेगी। क्योंकि सर्वाधिक सड़क हादसे इसी कारण संतुलन बिगड़ने से होते हैं। जहां तहां रोड ब्रेकर बनाने, सड़क का एलाइमेन्ट ठीक नहीं होने, दो बार सड़क बनाए जाने पर ज्वाइंट प्वाइंट पर तीखा उभार/गड्ढा के लिए जिम्मेदारी तय हो, और यह भी एकतरफा नहीं, कार्य एजेंसी के साथ संबद्ध अधिकारी से हर्जाना वसूली हो और फोटो एप पर लोड करने वाले के खाते में आधी रकम जाए। 
इसके अलावा- सड़क यातायात ही नहीं अतिक्रमण बड़ी समस्या है। सड़क अतिक्रमण से भी दुर्घटना घटती है। इसलिए जिस सड़क पर भी अतिक्रमण दिखे, जनता फोटो एप पर डाले तो सीधे वहां के थानाध्यक्ष, अंचल अधिकारी, एसडीपीओ, एसडीएम से जुर्माना वसूला जाए और फोटो डाउनलोड करने वाले के खाते में आधी रकम जाए। यह सब जुर्माना भी एक लाख से कम न हो। यह पक्का निर्माण वाले अतिक्रमण मामले में भी लागू हो, इसमें निर्माण की स्वीकृति देने वाले अधिकारी से भी जुर्माना वसूला जाना चाहिए। सड़क हादसे में मौत या घायल होने पर हत्या, हत्या का प्रयास करने की प्राथमिकी सड़क बनाने और बनवाने में लगे अधिकारियों के विरुद्ध होनी चाहिए। ताकि कोई जुर्रत न कर सके। क्या इतना होने के बाद आप कल्पना कर सकते हैं कि सड़क दुर्घटना होगी? हां, एकदम न्यूनतम हो जाएगी। 
इतना कुछ करने के बाद जनता को यातायात नियम मानने के लिए मजबूर करिये अन्यथा जब तक अधिकारियों की जिम्मेदारी तय नहीं होती तब तक जुर्माने की वसूली का नियम स्थगित रहे।
 एक और बात, नए नियम में लचीलापन होना चाहिए। तुरंत सुधारिये जनाब। तीन बार तक का चालान न भरने की आजादी हो, खास कर बाइक, ऑटो वालों के लिए। जो अपेक्षाकृत गरीब और कमजोर आर्थिक वर्ग के होते हैं, और किलो दो किलोमीटर की यात्रा दिन भर में दर्जनों बार करनी होती है उनको। तीन बार किसी का चालान एक निश्चित समय में (जो भी सरकार तय करे) काटे जाने के बाद चौथी बार चालान कटने पर आपको न सिर्फ जुर्माना भरना होगा बल्कि ड्राइवरी लाइसेंस भी रद्द किया जा सकता है। ऐसा प्रावधान हो। चौथी बार चालान का कटना मजबूरी नहीं बल्कि प्रभावित को कानून नियम न मानने का आदतन 'अपराधी' समझा जा सकता है।