*कोई छू कर तो दिखाए पैर*
(यह
‘अछूतोद्धार’ प्रतीकात्मक ही होता है)
चुनावी
चक्कलस और 'जनटिप्पणी'--01
०उपेन्द्र
कश्यप०
चाय
की दुकान हमेशा राजनीति पर अजब-गजब टिप्पणी देती है। भर चुनाव इसे मैं जनटिप्पणी
कहूंगा और चुनावी चक्कलस का आप आनन्द ले सकेंगे। यह प्रयास है।
अखबार
हाथों में थे। कई अखबार। पाठक अखबार का असली मालिक होता है। खबरों पर, उसकी प्रस्तुति पर और उसके प्रभाव पर उसकी टिप्पणी मायने रखती है। हम बैठे
थे। कई थे। एक ने कहा-देखे, कोई मुकाबला नहीं। मोदी ने ऐसा
मास्टर स्ट्रोक मारा है कि सब चित पड़ गए। हरिजनों के हित की राजनीति करने वाले स्वयंभू
पार्टियां और नेता ऐसे सफाईकर्मियों से छुआते तक नहीं
हैं। दूर भागते हैं। अब पीएम ने उनको स्वच्छताग्राही कहा और उनके चरण रज लिए तो
मिर्ची तो लगेगी ही। कारण साफ है। नकलचियों को अब मुश्किल आएगी। वे छुएंगे पैर
किसी के? पियेंगे चरण रज? नहीं कर सकते
ऐसा क्योंकि सामन्ती मानसिकता उनको ऐसा करने से रोकती है। श्रेष्ठी भाव हमेशा उनको
ऐसा करने से रोकती है। चाहे समाजवादी हों, लोहियावादी हों, या अम्बेडकरवादी हों,
या मध्यमार्गी हों, वाममार्गी हों या दक्षिणमार्गी हों। जो अपने सीएम को कुत्ते से
कमतर भाव देता है, उसके शुभ चिंतक क्या कहेंगे भला? आप देखा देखी मंदिर भेजते हो अब देखा देखी अछूतों के पैर छुओगे? ऐसी उम्मीद किसी को नहीं है। न समाजवादियों से न ही वामवादियों से,
न ही मध्यवादियों से?
देश
में अछूत को लेकर कई धारणाएं हैं। कोइ इसे प्राकृतिक और धार्मिक बताता है, कोइ इसे
अमानवीय बताता है। कोइ इसे उचित ठहराता है, कोइ इसे हिन्दू धर्म का कलंक बताता है।
कोइ इसे मनुवादी बताता है। लिखित इतिहास के कालखंड प्रारंभ होने से पहले से भारतीय
समाज में अछूत एक महत्वपूर्ण सामाजिक बुराई और मुद्दा बना हुआ है। क्या कभी
सत्त्ताधारियों की ओर से इसको समाप्त करने की सार्थक और दृढ कोशिश की गयी? एक्ट
बना देना और एक्शन लेना दोनों दो अलग-अलग बातें हैं। हरिजन की संज्ञा देकर नाम बदल
देना और हरिजनों को सामाजिक मान्यता दिलाना / देना अलग बात है। हमने तो यह भी देखा
ही है कि हरिजनों के वोट से दशकों सत्ता की मलाई खाने वाले उप प्रधानमंत्री जगजीवन
राम द्वारा पूजा किये जाने के बाद प्रतिमा को दूध से धुलाया था। हद है, उनके भगवान
भी अछूत के छूने से अछूत हो गए थे। आज ऐसे लोग, ऐसी विचारधारा वाले
स्वच्च्ताग्राहियों के पैर धोने को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं। प्रतीकों की ऐसी
राजनीति ही कुछ बदलाव ला सकती है, यह भी तो कोइ किया करे। करने वाले को खारिज करने
से बेहतर है कुछ तो करिए, प्रतीकात्मक ही सही। बदलाव मानसिकता बदले जाने से ही
होती है, ध्यान रखियेगा।
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