आज सोन नदी के तटों पर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ देंगे व्रती
दैनिक भास्कर रोहतास में प्रकाशित छठ-सोन पर विशेष रिपोर्ट |
सूर्य
को अर्घ्य देते समय
प्रदुषणमुक्त बनाने का लें प्रण
उपेन्द्र
कश्यप | डेहरी
आज
784 किलोमीटर लंबे सोन नद के दोनों बाएं-दायें तटों पर लाखों श्रद्धालु छठ व्रती
भगवान भास्कर को अर्घ्य देंगे| बुधवार को अस्ताचल और गुरूवार को उदयाचल सूर्य को
दूध या पानी से अर्घ्य देंगे| लाखों श्रद्धालु ऐसा करते हुए सोन नद के प्रति भी
अपनी श्रद्धा और समर्पण भाव प्रदर्शित करेंगे| आखिर सोन जो जीवनधारा, मात्र एक नद
ही नहीं है| सोन का पौराणिक महत्त्व अपनी जगह है, किन्तु इसका योगदान समीप के
निवासियों के लिए आत्मा के समान है| सोन का पानी अनेक प्रकार से गुणकारी है|
रूचिकर, संतापहारी, हितकर, जठराग्निवर्धक, बलदायक, क्षीण अंगों के लिए पुष्टीप्रद,
मधुर, कान्तिप्रद, पुष्टीकर, तुष्टीकर और बलवर्धक है। पूरे कार्तिक मॉस के अलावा
कार्तिक पूर्णिमा और मकर संक्राति को सोन में स्नान को प्राथमिकता वर्त्तमान में
भी दिया जाता है। इसे हिरण्यवाहु कहा गया है| अर्थात सोने के कण को अपने साथ बहाने
वाला नद| तीन हजार साल से भी पहले प्रागैतिहासिक-पुरैतिहासिक काल में भी यह सहायक
नदियों का जल प्राप्त कर निरंतर बहता रहा| आजकल इसके गुणों को मानवीय स्वार्थ ने
खा लिया है| अब इसमें विष बहता है, क्योंकि इसका जल भी प्रदूषित हो गया है| क्या
यह अच्छा नहीं होगा, जब हम सोन में खड़े होकर साक्षात देवता सूर्य को अर्घ्य दें तो
इसे प्रदुषण मुक्त बनाने का भी प्रण लें|
प्राचीन नाम है शोण नदी नहीं नद है
नवीं सदी में मिला पुलिंग नाम
सोन
का प्राचीन नाम शोण या शोणभद्र है। नवीं सदी के संस्कृत साहित्यकार राजशेखर ने
गंगा आदि को नदी की संज्ञा दी है| लेकिन ब्रह्मपुत्र की तरह सोन को नद ही कहा है| शोणलौहित्योनदौ।
सोन को हिरण्यवाह या हिरण्यवाहु भी कहते हैं| शोणो हिरण्यवाहः स्यात्। इसकी शोभा
का बखान करते हुए सांतवीं सदी के महान साहित्यकारए षोण तटवासी बाणभट्ट कहते हैं- वरुण
के हार जैसा चन्द्रपर्वत से झरते हुए अमृतनिर्झर की तरह, बिंध्य पर्वत से बहते हुए
चन्द्रकान्तमणि के समान, दण्डकारण्य के कर्पूर वृक्ष से बहते हुए कर्पूरी प्रवाह
की भाँति, दिशाओं के लावण्य रसवाले सोते के सदृष, आकाशलक्ष्मी के शयन के लिए गढ़े
हुए स्फटिक शिलपट्ट की नाई, स्वच्छ शिविर और स्वादिष्ट जल से पूर्ण भगवान पितामह
ब्रह्मा की संतान हिरण्याह महानद को लोग शोण भी कहते हैं।
कहाँ है सोन का उदगम स्थान
प्राचीन
भारतीय वाग्मय में कहीं कहीं सोन को मेकलसूत भी कहा गया है। नर्मदा तो मेकलकन्या
के रूप में प्रसिद्ध है ही। इससे सहज ही अनुमान होता है सोन का उद्गम भी मेकल
पर्वत ही है। इसी मेकल के पष्चिमी छोर पर बसा हुआ है अमरकंटक, समुद्र से साढ़े तीन
हजार फीट की ऊँचाई पर जहाँ से नर्मदा प्रवाहित होती है। नर्मदा और सोन नदियों का
उद्गम स्थल एक दूसरे के निकट है, इसका संकेत महाभारत में भी मिलता है। कई कहानियां
हैं| अमरकंटक के कूण्ड से सोन के प्रस्त्रिवत होने की एक लोक कथा कैमूर क्षेत्र
में भी प्रचलित रही है। किन्तु –सोन के
पानी का रंग- पुस्तक के अनुसार तथ्य यह भी है कि सोन का उद्गम अमरकंटक में नहीं, अमरकंटक
धाटी में पेठडरा के पास सोनकूण्ड में है| बिलासपुर जिले के उचरांचल में। उपरोक्त
तथ्य और तात्कालिक भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए सहज ही अनुमान किया जा
सकता है कि अमरकंटक के सोनमुड़ा का पड़ोस पौराणिक काल में सोन का उद्गम रहा है जो
वर्त्तमान सोनकछार और मलिनिया नालों से होकर पूर्वोत्तर रूख लेता सोनकूण्ड होता
हुआ आगे बढ़ता था। कहने का मतलब यह है कि सोनमुड़ा, अमरकंटक और उसके पड़ोस को सोन का
उद्गम मानने का आधार पौराणिक भूगोल से सम्बन्धित है और वह हमें सोनकुण्ड, सोनबचरवार
से भी पश्चिम की ओर इंगित करता है|
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