Monday, 28 August 2017

कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे, और हम खड़े-खड़े...


गोपालदास नीरज याद आ रहे हैं| इंदिरा गांधी के समय लिखा था- कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे। हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर| वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर| और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे| ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे। और हम खड़े-खड़े...
भारतीय लोकतंत्र में स्थिति यही हो गयी है कि हम बस खड़े, खड़े देखने को विवश हो गये हैं| पंचकुला से लेकर पाटलीपुत्रा तक और फिर दाउदनगर व औरंगाबाद तक| एक बड़ी आबादी खड़े, खड़े सब कुछ देखने के लिए मजबूर हो गयी है| वह कुछ नहीं कर सकती है, क्योंकि उसके वश में नहीं है| हालांकि ऐसा कहना खुद को आरोपित होने से बचाने की कोशिश अधिक है| जब कुछ भी असंभव नहीं है तो फिर खड़े खड़े देखने की जगह कुछ करा गुजरना किसी के वश में क्यों नहीं है? दरअसल मामला नियत से अधिक भय का है| कौन यह खतरा ले? कुछ करने में ही ख़तरा है| कुछ भी न करने में ख़तरा कम है| सरकार हो या राजनीतिक दल, देश व समाज के लिए कुछ करने वालों के साथ कहाँ खडी होती है भला? वह तो अपने वोट बैंक के साथ खड़ी होती है| नायक फिल्म में मुख्यमंत्री (अमरीश पुरी) साफ़ कहता है, जलती है तो जल जाने दो कुछ बसें, कुछ लोग| इससे क्या फर्क पड़ता है| कुछ करोगे तो वोट बिगड़ जाएगा| यही तो सभी कर रहे हैं| वोट बैंक पोलटिक्स| सड़कों पर भीड़ है| सरकार समर्थकों की संख्या बल से प्रभावित होती है क्योंकि सरकारें भी संख्या बल से बंटी बिगड़ती हैं| प्रशासन राजनीतिक नेतृत्व के हिसाब से चलता है| वह पहले भीड़ जमा होने देती है और फिर जब एक बार भीड़ जमा हो जाती है तो वह अनियंत्रित हो जाती है| किसी के रोके नहीं रुकती|
जिला में भीड़ की राजनीति देखिए, जनप्रतिनिधि महोदय हार गये| अन्य के खेमे की अपेक्षा उनके खेमे से भीड़ गायब, गाड़ियों का काफिला गायब| दूसरे बड़ी संख्या में वाहन ले गए| एक तरफ सन्नाटा और शिकायत, दूसरी ओर गहमागहमी और प्रशंसा| शक्ति कहीं, टिकट कहीं और|

और अंत में डीएम कँवल तनुज
अंत भला तो सब भला-ऐसा मानने वाले गलत हैं| अंत हमेशा भला ही होता है| यदि बुरा हुआ है तो वह अंत नहीं है| वहां से दूर कहीं आगे भला अंत आपकी प्रतीक्षा में है| प्रयास करिए, अंत कभी बुरा नहीं होगा, भला ही होगा|

  

Sunday, 20 August 2017

बरात ही क्यों, राजनीतिक आयोजनों पर भी लगे पाबंदी





यहाँ जब भी कुछ होता है, हंगामा खडा हो जाता है| एक हंगामा ख़त्म नहीं हुआ कि गाँव हो या शहर स्कूल में बारात टिकाने पर पाबंदी के मुद्दे को लेकर बवाल शुरू हो गया| कोढ़ में खाज, नेता जी को मौका मिला तो वे भी कूद पड़े। एक फ़ैसला, जो पुराना था उसे सामने लाया गया। नेता जी विपक्षी बन कर निंदा करने फेसबुक पर आए तो साहब भी चुप नहीं रहे। उन्होंने भी जवाब इसी मंच पर दिया और वर्चुअल दुनिया में जंग छिड़ गई। दोनों के समर्थक, विचारों से सहमत लोग अपनी बात कहने लिखने लगे। पूरे मामले में एक कहावत बार-बार याद आती रही-अबरा के मउगी सबके भौजी। जेकर मन में जे आवे सो कही। यही हो रहा है। गरीब आदमी हो या गरीबी, इसे दूर करने या उसकी समस्या समाप्त करने में किसी को रुचि नहीं है। बस मुद्दे को अपने फायदे के लिए अपने अनुसार उछालते रो। गरीब और गरीबी क्या है, इसे सोने के चम्मच लेकर पैदा होने वाले जान भी नहीं सकेंगे। ऐसी उम्मीद आज की राजनीति में करना ही व्यर्थ है। बारह हजार रुपए का महत्व करोड़ो कमाने वाले नहीं जान सकते। स्कूल में बारात टिकने न देने के असर को भी न अधिकारी समझ सकते हैं, न ही करोड़पति नेता, या बयानवीर समर्थकगण। कहते है-प्रेम व घृणा व्यक्ति की दृष्टि धुंधली कर देती है। यह अब हर मामले में दिख रहा है। लोग विचार या निर्णय के पक्ष-विपक्ष में नहीं व्यक्ति के साथ या विरोध में खड़े हो रहे हैं। सवाल है कि ऐसे किसी समस्या का समाधान हो सकता है क्या भला। गांव नहीं शहर में भी यदि शत प्रतिशत यह व्यवस्था लागू कर दी जाए कि सरकारी या नीजि स्कूलों में बारात नहीं टिकाई जा सकती है तो समस्या जो दिख रही या बताई जा रही है उससे अधिक बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। अभी सार्वजनिक सुविधाएं आवश्यकता के अनुरूप नहीं बल्कि काफी कम उपलब्ध हैं। समाज इतना सक्षम नहीं है कि होटल या लॉज किराए पर ले सके। और न ही होटल, लॉज या धर्मशालाओं की संख्या उतनी है कि वे सबकी जरूरत पूरी कर सकें। फैसके के पक्ष में तर्क दे देना और इसकी खिलाफत करने वालों की आलोचना करना अलग बात है और फैसले के असर को जानना समझना अलग बात है। समाज में यह एक बीमारी की तरह फैल रहा है कि निर्णय या विचार की निंदा या समर्थन व्यक्ति से संबंध पर निर्भर हो चला है। इससे समाज का भला नहीं होने वाला है। और यदि गंदगी छोड़ चले जाते हैं बाराती-सराती के तर्क पर स्कूल में बाराती टिकाना पाबंदी लायक है तो क्या स्कूलों में राजनीतिक आयोजन होने चाहिए? राजनीति तो और भी बच्चों के भविष्य को खराब कर रही है, उनके मस्तिष्क को दुष्प्रभावित कर रही है। तो क्या सरकार, साहब या नेता में यह साहस है कि स्कूलों में राजनीतिक आयोजन होने पर पाबंदी लगा दे? जनाब ऐसा करने का साहस किसी में नहीं है। इसलिए कि न राजनीति और न ही राजनीतिज्ञ गरीब हैं। उनकी भौजाई अबरा की नहीं है। देखा न कि नेता धर्मबदर तो हो गया किन्तु हलाला से बच गया क्योंकि वह भी गरीब नहीं है। गरीब आदमी नहीं होता, वह है ही ऐसी शै कि कोई भी इस्तेमाल करता है। भाई, गरीब व गरीबी का मजाक उड़ाना बन्द करो, बड़े होंगे किन्तु बड़प्पन भी दिखाओ।

और अंत में कबीरदास--
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर |
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ||

Saturday, 19 August 2017

132 साल में दूसरी श्रेणी का शहर बना दाउदनगर

नगर पंचायत से नगर परिषद बना

1885 में नगरपालिका बना था शहर
उपेन्द्र कश्यप
सतरहवीं सदी के उत्तरार्ध में बसा कस्बा दाउदनगर 1885 में नगर पालिका बना| उसके बाद 2002 में नगर पंचायत और फिर 132 वर्ष बाद नगर परिषद बना| अब यह शहर द्वितीय श्रेणी का दर्जा प्राप्त कर लिया है| अब इसके बाद नगर निगम बनना शेष है, जो शहरों के स्तर में प्रथम दर्जे का होता है| करीब सवा दो सौ साल में कस्बा से यह नगर बना था| शहरीकरण की यात्रा में इतना समय लगा| जब 1885 में यह नगर पालिका गठित हुआ तो तृतीय श्रेणी का शहर बना था| अब द्वितीय श्रेणी का शहर बनने के बाद प्रथम दर्जे का शहर बनने की नयी यात्रा प्रारंभ हो गयी है|

अधिसूचना जारी, चुनाव पर नजर
राज्यपाल के आदेश से नगर विकास एवं आवास विभाग बिहार सरकार के प्रधान सचिव चैतन्य प्रसाद ने गत 27 जुलाई को नगर परिषद गठित किए जाने की अधिसूचना जारी की है| दाउदनगर नगर पंचायत की वर्त्तमान परिधि में पड़ने वाले क्षेत्र एवं उसकी वर्त्तमान चौहद्दी को ही नगर परिषद् दाउदनगर कहा जाएगा| इससे साफ़ है कि नगर परिषद का इलाका विस्तार नहीं होने जा रहा है| अब सबकी नजर इस बात पर टिकी हुई है कि यहां नगर परिषद चुनाव के लिए कब परिसीमन का आदेश आता है| कैसे परिसीमन होगा| कितने वार्ड बनेंगे| कब चुनाव होगा| गत नौ जून को बोर्ड का कार्यकाल समाप्त हुआ था| 10 जून से एसडीओ को प्रशासक बना दिया गया| नियामत: छ: माह के अन्दर चुनाव हो जाने चाहिए| अभी तक कोइ आदेश प्राप्त न होने से चुनाव के समय को ले अटकलबाजी होती रह रही है|

एक नजर में नगर परिषद -
8184 कुल होल्डिंग, 52340 कुल जनगणना, 27487 पुरूष, 24853 महिला, 17468 साक्षर पुरूष, 12450 साक्षर महिला, 10019 निरक्षर पुरूष, 12403 निरक्षर महिला|

कार्यालय में मानव संसाधन
नगर विकास एवं आवास विभाग बिहार पटना के पत्रांक 3728 दिनांक-30.06.1975 द्वारा पदसृजन की स्वीकृति प्राप्त है। इसके अनुसार –
93 कुल स्वीकृत पद| 18 कुल कार्यरत बल और 75 कुल रिक्तियां|

नप के लिए किया था चार ने सफल संघर्ष

दाउद खान के बसाये कसबे को 1885 में नगर पालिका बनाया गया था| ज्ञात इतिहास के अनुसार इसके लिए चार लोगों ने संघर्ष किया था| तब बिहार संयुक्त प्रांत (बिहार, बंगाल व उड़ीसा) का हिस्सा था| दाउद खां के वंशजों से यहां की आबादी तंग-ओ-तबाह थी| जब पीडा असहनीय हो गई तो चार बहादूर आगे आये। नगर पालिका के प्रधान सहायक पद से 1991 में सेवा निवृत देवभूषण लाल दास के हवाले से ‘श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर’ ने लिखा है कि चावल बाजार के कसौन्धन बनिया जाति के पुरुषोत्तम दास, बजाजा रोड के कसौन्धन बनिया रामचरण साव, केशरी जाति के हुसैनी साव व अग्रवाल जाति के बाबु जवाहिर मल ने इसके लिए तब अथक प्रयास किया था| नगरपालिका गठन के बाद प्रथम उपाध्यक्ष जवाहिर मल को ही बनाया गया था| तब कोइ अधिकारी ही अध्यक्ष हुआ करता था| श्री मल का नाम बतौर साहित्यकार भी पुराना गया जिला में प्रतिष्ठित था| 

Sunday, 13 August 2017

आइये जश्न मनाइए, संकीर्णता का त्याग करिए....


शहरनामा-उपेन्द्र कश्यप
कल सूरज जब उदय होगा तो कोइ पहली बार नहीं होगा| किन्तु उत्सव के लिए यह ख़ास है| आजाद हुए 70 साल हो जायेंगे| अर्थात हम देश के रूप में प्रौढ़ हो गये हैं| देश में आजादी के नारे लगेंगे| आजादी के दीवानों का स्मरण किया जा रहा है| आज भी आजादी के दीवाने कहीं कहीं देश में दीखते हैं| आवाज बुलंद करते हैं| इनकी आजादी के मायने अलग है| वैयक्तिक व सामुदायिक आजादी इनकी चाहत है| जबकि हमारे पुरखों ने देश की आजादी माँगी थी| देश की खातिर अपना जीवन बलिदान किया था| जातिवाद, वर्गवाद, क्षेत्रवाद तब भी था आज भी है| सघनता कम या अधिक हुई है| अन्यथा जगतपति उपेक्षित न रह गये होते| उनके वंशजों ने, परिजनों ने देश को तो दिया किन्तु स्वयं के लिए कुछ नहीं लिया| आज के दीवाने सब कुछ अपने लिए मांग रहे हैं| वे देश को कुछ दें या न दें, उन्हें देश से अपने लिए सब कुछ चाहिए| आजादी की मांग से बाहर निकलिए तो व्यक्ति की सोच वैयक्तिक हो गयी दिखती है| समष्टि में कोइ देख ही नहीं रहा| चाहे वह जातिवाद हो या भ्रष्टाचार हो| राजनीतिक भागीदारी हो या सामाजिक बराबरी हो| ऐसे दीवाने स्वयं से आगे नहीं देखते| अगर कभी देखा भी तो परिवार के भीतर तक ही नजर सीमित रखा| आज ख़तरा विदेशियों से अधिक अपने घर के लोगों से, पड़ोसियों से है| अगर मान सिंह न होता तो मेवाड़ ख़त्म नहीं होता और मीर जाफर न होता तो अंग्रेज व्यवसाय चलाते रहते, हुकुमत न कर गए होते| आज देश के लिए त्यागने वाले कितने हैं? फ़ौज पर ही विश्वास है, खद्दर पहनने वालों पर कितना भरोसा करिएगा? वे सब तो दूसरे के सफ़ेद कुरते पर दाग देखते हैं, अपने कुरते पर दाग उन्हें नहीं दिखता| क्योंकि प्रेम व नफरत की वजह से दृष्टि धुंधली हो जाती है| वही अच्छा दिखता है जो अनुकूल हो, प्रतिकूल वाला सिर्फ खराब ही खराब दिखता है| सभी इस बीमारी के शिकार हैं|

अंत में सवाल कि, आजाद के कहे पर कौन चल रहा-
अभी शमशीर कातिल ने, न ली थी अपने हाथों में।
हजारों सिर पुकार उठे, कहो दरकार कितने हैं।
     

Friday, 11 August 2017

शहीद जगतपति के परिजनों ने नहीं लिया कोइ लाभ

माँ ने किया था प्रस्ताव मानने से इनकार
उपेन्द्र कश्यप
 स्वतंत्रता आन्दोलन के कई सेनानियों या उनके परिजनों ने आजाद हिन्दुस्तान में सरकार से लाभ लिया है, किन्तु शहीद जगतपति सा उदाहरण विरले ही मिलता है, जिनके परिजनों ने सरकारी लाभ लेने से इनकार कर दिया| इनके परिजनों ने अपनी ही जमीन पर स्मारक तक बनवाया| जिला में ही ऐसे कई उदाहरण हैं कि स्वतंत्रता सेनानियों के परिजनों ने लाभ लिया है| जबकि जागो की मां देवरानी कुअँर ने पेंशन समेत तमाम प्रस्तावित सुविधाएं लेने से इंकार कर दिया था। कहा था-बेटा देश के लिए शहीद हुआ है, लाभ के लिए नहीं| उनको भी अन्य शहीदों के परिजनों की तरह सुख सुविधा लेने का प्रस्ताव सरकार ने भेजा था| किन्तु परिवार ने कोई लाभ नहीं लिया| हालांकि यह उपेक्षापूर्ण ही लगता है कि देश के विभिन्न हिस्सों में बसे उनके वंशज साल में एक दिन भी यहां नहीं आते|

कौन थे शहीद जगतपति?
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में सन् 1942 को विषिष्ट स्थान प्राप्त है। 11 अगस्त को जब पटना सचिवालय पर तिरंगा झंडा फहराने के प्रयास में लगे जुलूस पर जिला पदाधिकारी डब्ल्युजी आर्चर ने गोली चलवाया था| एक-एक कर सात सपूत षहिद हो गये। इनकी स्मृति में पटना सचिवालय के पूर्वी गेट पर षहिद स्मारक की स्थापना की गई है। इस स्मारक की कांस्य प्रतिमाओं में चौथी प्रतिमा खराटी गांव के जगतपति कुमार की है। षहीद जगतपति पर कम ही लेखनी लिखी गई है।

जमींदार परिवार में हुआ था जन्म
षहीद जगतपति कुमार का जन्म सन् 19230 के मई माह में जमींदार परिवार सुखराज बहादुर के घर हुआ था। माँ का नाम देवरानी कुअँर था| अपने तीन भाईयों में सबसे छोटे थे। इनकी पांच छोटी बहनें थी। इनके साथ पढ़े सहपाठी इन्हे जागो कह कर पुकारा करते थे। इनकी षिक्षा बीएन कालेजियट स्कूल पटना में पुरी हुई थी| तब इस स्कूल में प्रधानाध्यापक खराटी के ही रायबहादुर सूर्यभूषण लाल जी थे। सन् 32 में ही अपनी प्रारंभिक षिक्षा अध्ययन के समय ही इन्होने अपने गांव में दीनबंधु पुस्तकालय की स्थापना कि थी। षहादत के समय जगतपति कुमार बीएन काॅलेज पटना में प्रथम वर्ष के छात्र थे। और अपने अंग्रेज के स्थान कदम कुआ स्थित अवास में रहा करते थे।

पैर में नहीं सीने में मारो गोली

सचिवालय पर तिरंगा फहराते समय गोली जगतपति के पैर में लगी और वे गिर गये। फिर उठ खड़े हुए और सीना खोलकर सामने करते हुए कहा ‘‘अगर गोली मारनी है तो सीने पर मारो, पैर पर क्यों मारते हो’’| परन्तु दुसरी गोली सीने को चीरती हुई निकल गई और जागो वही षहीद हो गये।

कुछ नयी परंपराएं, जिसने मान बढ़ाया
गत 15 अगस्त 2016 को नयी परंपरा का आगाज एसडीओ राकेश कुमार व एसडीपीओ संजय कुमार ने किया था| जगतपति के स्मारक पर माल्यार्पण किया। झंडोतोलन किया| दाउदनगर को अनुमंडल बने 25 साल हो गए थे, किंतु ऐसी पहल किसी ने नहीं की थी। दैनिक जागरण ने हमेशा इनकी उपेक्षा का सवाल उठाया है| कई बार लिखा है कि- जातीय खांचे में दबा दिए गये शहीद जगतपति कुमार- और यह भी कि जिला मुख्यालत में एक नगर भवन का इन्हें “द्वारपाल” बना दिया गया है।

वामपंथियों ने दिया सम्मान
क्रांतिकारी गंवई कवि (स्व.) रामेश्वर मुनी वामपंथी होते हुए भी जगतपति के सम्मान के लिए काफी काम किया| गोह में इनका बना स्मारक उन्हीं की देन है। भाकपा माले ने यहां शहीद स्मारक का सौन्दर्यीकरण का काम किया किंतु यह दुखद है कि जिस (तत्कालीन विधायक) राजाराम ने यह काम किया उन्होंने यह अधूरा किया। उन्हें जागरण याद दिलाना चाहेगा कि उन्होंने यहां आदमकद प्रतिमा लगाने का वादा किया था। चन्दा भी वसूले गए थे। यह वादा अभी अधूरा है।

कांग्रेसियों ने जगतपति के लिए क्या किया ?
अगर परिवार जमींदार नहीं होता, पूर्वजों की जमीन नहीं होती तो शायद स्मारक स्थलभी नहीं बना होता। 1992 में माले ने जागोको जिंदा करने के लिए कार्यक्रम किया। तब इनके भतीजे धर्मराज बहादुर ने कहा था - कांग्रेसियों ने जगतपति के लिए क्या किया? टेलीविजन पर प्रसारित स्वतंत्रता ज्योतिकार्यक्रम में उनकी तस्वीर तक नहीं दिखाई गयी। धर्मराज का सीधा आरोप रहा है कि जातिवादी स्थानीय राजनीति के कारण ऐसी उपेक्षा होती रही है।

Monday, 7 August 2017

बेचने को कुछ नहीं है साहब, कहने को है बहुत कुछ


शहरनामा-उपेन्द्र कश्यप

बेचने की चर्चा खूब हो रही है| जिला इस शब्द से परेशान है| बहुत कुछ बेचने की बात हो रही है| बीबी बेचने की बात से विवाद शुरू हुआ था| राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियाँ बनी| मुद्दा खूब उछला| पूरे प्रकरण में यह बात समझ से परे रही कि बेचने के मुद्दे में इमानदारी कैसे घुस गयी| क्यों घुस गयी| भाई मेरे, किसी को समझाने के लिए ही सही कहा तो यही गया था न कि शौचालय के लिए बीबी बेच दो| अब इसमें कहने वाले की इमानदारी और सच्चरित्रता का मामला कैसे पैबंद हो गया| बोलना अलग है और इमानदार होना अलग है| यह इमानदार शब्द बहुत व्यापक है| इसका अर्थ सीमित नहीं होता| इमानदार होना मतलब सिर्फ घुस नहीं लेना नहीं होता| कोइ व्यक्ति काम कैसे करता है, कितना करता है, सामाजिक दायित्वों का निर्वहन कितना करता है? अपने पद के साथ कितना न्याय करता है, यह भी और इससे भी अधिक व्यापक दायरा है इस शब्द का| याद है, दारोगा भी इमानदार ही बताये गए थे और चुनाव जीत गए| कोइ इमानदार है या नहीं, यह सर्टिफिकेट देना कहाँ तक उचित है? किसे अधिकार है कि वह इमानदार होने का सर्टिफिकेट बांटे| इमानदार नहीं होना बेईमान होना भी नहीं है| इसलिए कि किसी को बेईमान कहने का हक भी किसी को नहीं है, जब तक कि प्रमाण न हो| खलने वाली बात यही है कि बोल वचन के मामले में गलत या सही पर बहस होनी चाहिए थी कि जो बोला गया वह कितना गलत है या कितना सही? कई भाई लोग एक तय रेखा से अधिक दूर तक समर्थन में गए और इमानदार होने का राग अलापने लगे| उन्हें भी भला बुरा कहा गया|
बेचने की बात बोलने का मामला तो लेखक की जात वाले का भी है| भाई खूब गरज रहे हैं-अब नहीं बिकेगी, नहीं रोकी जायेगी खबर| अकड अच्छी नहीं होती| कलम का अहंकार मत करो मित्र| एक से एक कलमकार भरे पड़े हैं| तुम्हारी सोच से आगे की नजर रखने वाले बहुत हैं भाई| इसलिए बड़ बोलापन अच्छा नहीं होता| बच्चे हो, बड़े बनो, बड़े दिखने की कोशिश मत करों|

और अंत में –

पर उपदेश कुशल बहुतेरे| दूसरों को उपदेश देने में बहुत लोग कुशल होते हैं| बात अब इससे आगे निकल गयी है| उपदेश से अधिक कुशलता लोगों ने आरोप लगाने की हासिल कर ली है| उपदेश देने से अधिक सहज है आरोप लगाना| क्यों कि इसके लिए पढने की भी जरुरत नहीं होती|