गोपालदास
नीरज याद आ रहे हैं| इंदिरा गांधी के समय लिखा था-
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे,
और
हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे। हो सका न कुछ मगर
शाम बन गई सहर| वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर| और हम डरे-डरे नीर नैन में
भरे| ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे। और
हम खड़े-खड़े...
भारतीय
लोकतंत्र में स्थिति यही हो गयी है कि हम बस खड़े, खड़े देखने को विवश हो गये हैं|
पंचकुला से लेकर पाटलीपुत्रा तक और फिर दाउदनगर व औरंगाबाद तक| एक बड़ी आबादी खड़े,
खड़े सब कुछ देखने के लिए मजबूर हो गयी है| वह कुछ नहीं कर सकती है, क्योंकि उसके
वश में नहीं है| हालांकि ऐसा कहना खुद को आरोपित होने से बचाने की कोशिश अधिक है|
जब कुछ भी असंभव नहीं है तो फिर खड़े खड़े देखने की जगह कुछ करा गुजरना किसी के वश
में क्यों नहीं है? दरअसल मामला नियत से अधिक भय का है| कौन यह खतरा ले? कुछ करने
में ही ख़तरा है| कुछ भी न करने में ख़तरा कम है| सरकार हो या राजनीतिक दल, देश व
समाज के लिए कुछ करने वालों के साथ कहाँ खडी होती है भला? वह तो अपने वोट बैंक के
साथ खड़ी होती है| नायक फिल्म में मुख्यमंत्री (अमरीश पुरी) साफ़ कहता है, जलती है
तो जल जाने दो कुछ बसें, कुछ लोग| इससे क्या फर्क पड़ता है| कुछ करोगे तो वोट बिगड़
जाएगा| यही तो सभी कर रहे हैं| वोट बैंक पोलटिक्स| सड़कों पर भीड़ है| सरकार
समर्थकों की संख्या बल से प्रभावित होती है क्योंकि सरकारें भी संख्या बल से बंटी
बिगड़ती हैं| प्रशासन राजनीतिक नेतृत्व के हिसाब से चलता है| वह पहले भीड़ जमा होने
देती है और फिर जब एक बार भीड़ जमा हो जाती है तो वह अनियंत्रित हो जाती है| किसी
के रोके नहीं रुकती|
जिला
में भीड़ की राजनीति देखिए, जनप्रतिनिधि महोदय हार गये| अन्य के खेमे की अपेक्षा
उनके खेमे से भीड़ गायब, गाड़ियों का काफिला गायब| दूसरे बड़ी संख्या में वाहन ले गए|
एक तरफ सन्नाटा और शिकायत, दूसरी ओर गहमागहमी और प्रशंसा| शक्ति कहीं, टिकट कहीं और|
और
अंत में डीएम कँवल तनुज
अंत
भला तो सब भला-ऐसा मानने वाले गलत हैं| अंत हमेशा भला ही होता है| यदि बुरा हुआ है
तो वह अंत नहीं है| वहां से दूर कहीं आगे भला अंत आपकी प्रतीक्षा में है| प्रयास
करिए, अंत कभी बुरा नहीं होगा, भला ही होगा|