जीने के लिए सड़कों की खाक छानते है परिवार
जीवन जीना कितना मुश्किल सीखाते है मजमे वाले
जीवन जीना कला है, लेकिन यह तभी साकार दीखता है जब संसाधन व साधन उपलब्ध हो| अन्यथा जीवन जीना कितना मुश्किल है यह कोइ
मजमे वाले से सीखे| सड़क पर मजमा लगाने वाले बताते है कि जीवन में संतुलन कितना आवश्यक है| जब संतुलन बिगड़ता है तो अच्छे अच्छे मानसिक संतुलन खो देते है| नन्ही ‘जान’ भी मजमा लगाती है| आपके मनोरंजन से अधिक उनकी चिंता अपनी पेट की होती है| उसके मजमा बन जाने के पीछे उसके जीवन जीने की उत्कंठा, जीजीविषा और उपार्जन के उपाय की ताप है|
चाहे गांव की गलिया हो या फिर शहर का चौराहा| हर जगह ऐसे मजमे वाले मिल जाते है| दो जून की रोटी के लिए वे सड़कों के खाक छानते फिरते है। कभी जादुई खेल तो कभी नन्ही सी जान रस्सी पर करतब दिखाती है। लोग स्तब्ध तब रह जाते है जब उस बच्ची की जीभ या गर्दन काटने का करिश्मा दिखाया जाता है| मदारी के खेल का सच रोटी से जुड़ा है लेकिन इसे प्रस्तुत करने का तरीका मनोवैज्ञानिक है। करतब दिखाने वाले भीड़ को मनोवैज्ञानिक तरीके से अपनी ओर बाते बना कर किया आजाता है| कुछ मजमे वाले खेल दिखाकर दवा और दुआ (तावीज) बेचने का भी काम करते है। मदारी वाला कुन्जबिहारी ने बताया कि ये सारे काम हम पेट के खातिर करते है। खेल दिखाकर दोनों समय का भोजन की व्यवस्था करते है। नन्ही सी जान के बारे में बताया कि लोग बच्चे का खेल तमाशा ज्यादा देखना चाहते है। करतब दिखा कर लोगो को मनोवैज्ञानिक रुप से सोचने पर मजबूर करना अपड़ता है| जिससे न चाह कर भी ज्यादा पैसे खुशी -खुशी दे देते है। बच्चे के प्रति ममता उमड़ जाती है।
स्कूलों तक ले जाए –सुनील बाबी
पेट के लिए धर्म युद्ध करते हुए बच्चो को देख कर, उन पर तरस खाकर लोग उन्हें पैसे देते है| लेकिन कभी उनके जीवन शैली के संबंध में जानने की कोशिश कोइ नही करता है। आज सरकारी योजनाएं बहुत संचालित हो रही है लेकिन इनकी ओर सार्थक पहल करने की जरूरत है। बुद्धिजीवी वर्ग को आगे बढकर वैसे नन्हे जान को करतब सड़कों पर नही बल्कि विधालय में कलम से दिखाने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है| तब उनका विकास संभव है ।
जीवन जीना कितना मुश्किल सीखाते है मजमे वाले
जीवन जीना कला है, लेकिन यह तभी साकार दीखता है जब संसाधन व साधन उपलब्ध हो| अन्यथा जीवन जीना कितना मुश्किल है यह कोइ
मजमे वाले से सीखे| सड़क पर मजमा लगाने वाले बताते है कि जीवन में संतुलन कितना आवश्यक है| जब संतुलन बिगड़ता है तो अच्छे अच्छे मानसिक संतुलन खो देते है| नन्ही ‘जान’ भी मजमा लगाती है| आपके मनोरंजन से अधिक उनकी चिंता अपनी पेट की होती है| उसके मजमा बन जाने के पीछे उसके जीवन जीने की उत्कंठा, जीजीविषा और उपार्जन के उपाय की ताप है|
चाहे गांव की गलिया हो या फिर शहर का चौराहा| हर जगह ऐसे मजमे वाले मिल जाते है| दो जून की रोटी के लिए वे सड़कों के खाक छानते फिरते है। कभी जादुई खेल तो कभी नन्ही सी जान रस्सी पर करतब दिखाती है। लोग स्तब्ध तब रह जाते है जब उस बच्ची की जीभ या गर्दन काटने का करिश्मा दिखाया जाता है| मदारी के खेल का सच रोटी से जुड़ा है लेकिन इसे प्रस्तुत करने का तरीका मनोवैज्ञानिक है। करतब दिखाने वाले भीड़ को मनोवैज्ञानिक तरीके से अपनी ओर बाते बना कर किया आजाता है| कुछ मजमे वाले खेल दिखाकर दवा और दुआ (तावीज) बेचने का भी काम करते है। मदारी वाला कुन्जबिहारी ने बताया कि ये सारे काम हम पेट के खातिर करते है। खेल दिखाकर दोनों समय का भोजन की व्यवस्था करते है। नन्ही सी जान के बारे में बताया कि लोग बच्चे का खेल तमाशा ज्यादा देखना चाहते है। करतब दिखा कर लोगो को मनोवैज्ञानिक रुप से सोचने पर मजबूर करना अपड़ता है| जिससे न चाह कर भी ज्यादा पैसे खुशी -खुशी दे देते है। बच्चे के प्रति ममता उमड़ जाती है।
स्कूलों तक ले जाए –सुनील बाबी
पेट के लिए धर्म युद्ध करते हुए बच्चो को देख कर, उन पर तरस खाकर लोग उन्हें पैसे देते है| लेकिन कभी उनके जीवन शैली के संबंध में जानने की कोशिश कोइ नही करता है। आज सरकारी योजनाएं बहुत संचालित हो रही है लेकिन इनकी ओर सार्थक पहल करने की जरूरत है। बुद्धिजीवी वर्ग को आगे बढकर वैसे नन्हे जान को करतब सड़कों पर नही बल्कि विधालय में कलम से दिखाने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है| तब उनका विकास संभव है ।
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