पंचायत,
राजनीति और इतिहास-10
लडाई को लक्ष्य तक
पहुंचाने के लिए काटा धान
लंबे संघर्ष के बाद
जनता को हटनी पडी
उपेन्द्र कश्यप
दाउदनगर (औरंगाबाद) लाल-वाम विचारधारा वालों ने बेलवां पंचायत के दूबे खैरा के
किसानों के खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से कारर्वाई की, किंतु कामयाबी नहीं मिली। एक
तरफ मजदूरी के सवाल पर एकजुट हुए गरीबों के साथ कम संख्या में हथियारबन्द दस्ता था
तो दूसरी तरफ संपन्न, समृद्ध किसानों का समूह, जिनका प्रेरणा स्त्रोत थे-पूर्वज।
जी, हां। सुनील दूबे कहते हैं-हमारे पूर्वज कह गये थे कि किसी के खिलाफ लडाई नहीं
करनी है किंतु संपत्ति और जान की रक्षा के लिए संघर्ष से पीछे भी नहीं हटना है।
बताया कि इसी कारण दूबे खैरा के किसान न कभी किसी को सताने में विश्वास करते हैं न
कभी लडाई करने वालों से पीछे हटने की नौबत आयी। यहां सवाल मौजू है कि फिर किसानों
के खिलाफ वाम संघर्ष क्यों हुआ? इसकी पृष्ठभूमि में गांव के ही एक व्यक्ति की
कोशिश थी जो बाद में सामने आ गयी। मजदूर आन्दोलन के अगुआ रहे सोनी के मजदूरों का
कहना है कि पार्टी ने कारर्वाई के लिए एक दूबे जी को चिन्हित किया था और इनके
बहाने दूसरे दूबे को निपटा देना लक्ष्य था। योजना बनी कि लडाई की शुरुआत चना काट
कर की जाय। रात्रि में 16 से 20 बिगहा जमीन पर लगा चना एक घंटा में काट लिया गया।
बेलाढी, अंछा, केशराडी समेत समीपवर्ती इलाके के करीब एक हजार मजदूर इसके लिए लगे।
इनकी सुरक्षा में सशस्त्र दस्ता दल के सुरक्षा प्रहरी भी थे। किसानों ने मुकदमा
किया। पार्टी का मानना था कि लडाई जहां ले जानी थी वहां नहीं पहुंच रही है। इस
लक्ष्य को साधने के लिए दिन में धान की फसल काट लेने की योजना बनी। अगहन में जब
धान की फसल लहलहा रही थी तो दिन में करीब 600 से 700 मजदूरों ने चढाई कर दी। कई के
पास हथियार थे। सशस्त्र दस्ता के 20 से अधिक सदस्य सुरक्षा के लिए मोर्चा लिये थे।
जवाब में किसान पुलिस के साथ कारर्वाई में उतरे। बेलवां में तब पुलिस पिकेट था,
इसके जवान लगे और बाद में दाउदनगर पुलिस भी आ गयी। मजदूरों के लिए चुनौती कडी थी तो
रणनीति बनी। दोपहर से शाम तक मुकाबला चला। जनता को इस दोतरफा गोलीबारी से बचाना
पहली प्राथमिकता बन गयी। हथियारबन्द दस्ता मोर्चा संभाले रही और मजदूरों को पीछे
सुरक्षित हटा दिया गया। शाम के धुन्धलके में दस्ता भी सुरक्षित वापस चली गयी।
लडाई मजदूरी की नहीं
बर्चस्व की- किसान
दूबे खैरा के किसानों का कहना है कि संघर्ष मजदूरी को लेकर नहीं था बल्कि बर्चस्व
के लिए था, जिसे किसानों ने बर्दास्त नहीं किया। मजदूरी तो जितना मांग जाता दे दिया
जाता था। तीन सेर की जगह तीन किलो की मांग थी। वह मिलता था। सरकारी दर तीन किलो
अनाज और 250 ग्राम सत्तु था। दूबे खैरा में सत्तु इससे अधिक दिया जाता था। आज भी
दर्जनों परिवार किसानों के दिये खेत के आसरे जीते हैं।
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