अंछा गांव का विहंगम दृष्य |
पंचायत, राजनीति और
इतिहास-1
बदलाव : परगना से बन
गया पंचायत
बौद्धकालीन गांव
मुगलकाल में बना नामचीन
उपेन्द्र कश्यप,
दाउदनगर (औरंगाबाद)
अंछा ! मुगलकालीन कस्बा और गुलाम भारत का शहर दाउदनगर का पडोसी
पंचायत। पुराना परगना, जिसका एक हिस्सा भर कभी था-दाउदनगर। हां, बाद में चट्टी के
रुप में मशहुर हुआ दाउदनगर। अंछा की पहचान मुगलकाल में रही है। इतिहास में एक
लोकोक्ति दर्ज है- अंछा पार जब गये भदोही, तब जानो घर आये बटोही। इसी रास्ते वसूला
गया राजस्व दिल्ली सल्तनत के दरबार में जाता था। यह गांव मुगलकाल से काफी पूर्व
शायद बौद्धकाल का माना जा सकता है। यह खोज का विषय है कि भगवान बुद्ध जब बोधगया
में बुद्धत्व प्राप्त कर सारनाथ जा रहे थे तो क्या रास्ते में यह परगना पडा था?
माना जाता है कि मनौरा परगना निश्चित रुप से इस मार्ग में पडा था जिस कारण यह गांव
बौद्धस्थल बना। अंछा चूंकि सीमावर्ती था तो यह संभावना बनती है। मुगलकाल में यह
अंछा परगना रहा है। यहां अनुसूचित जाति की संख्या अधिक है। यह गुल्ली रविदास का
गांव है। इनके पास 100 बिगहा से अधिक की खेतिहर जमीन करीब डेढ सौ साल पहले थी।
उनकी इकलौती बेटी और खुद जब स्वर्ग सिधार गये, तो कथित तौर पर गांव के समृद्ध तबके
ने उस जमीन पर कब्जा कर लिया। इस भौतिक कब्जे के बावजूद समाज में गुल्ली रविदास की
छवि अंकित रही भले ही वह धुन्धली ही सही। इसी वजह से उस भूखंड को आज भी “गुलाही
वाला” शब्द से संबोधित किया जाता है। कुछ समृद्धों ने अंग्रेजी राज में इस जमीन के
कागजात अपने नाम करा लिए और घर धन-धान्य से भरने लगे। अभी इनकी संख्या अनुसूचित
जाति से काफी कम है। मुझे याद है जब बिहार विधान सभा चुनाव 2015 में मैं यहां गया
था तो एक ने मुझे से कहा था- सब माले के वोटर हैं। पूछा- देख रहे हैं कितनी भीड
है। यहां तो बस माले ही आगे है। यह बदलाव का चरमोत्कर्ष था। पहली बार अनारक्षित
वर्ग की समृद्ध बिरादरी सोन के पश्चिम से पुरब यहां जब आयी तो पुरली भुइयां (अंछा
का सीवान) में ठहरे। धीरे-धीरे उनका दबदबा कायम हो गया। वे बाहर से आ कर बसे और
समृद्ध बन बैठे। मालिक, मलिकार, हुजूर, माई-बाप बन गये और मूल निवासी दास, मजदूर
बन गये। मूल निवासी चर्मकार और मल्लाह यहां के हैं, जिन्होंने प्रताडना का हर रुप
देखा है। अंछा मूलत: कारा नवाब की कचहरी थी। जहां बसी अनुसूचित जाति का विस्तार
हुआ और साथ ही अन्य पिछडी, अतिपिछडी जातियां बसने लगी थीं। आज यहां रजवार, पासवान,
भुइयां, धोबी भी हैं। सामाजिक सौहार्द और व्यवहार बदल गये। अनुसूचित जाति के
परिवारों की जमीनें सतुआ, मडुआ, धन-चावल और रुपए-दो- रुपए पर कब्जा करने के किस्से
फिजां में हैं।
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