पंचायत,
राजनीति और इतिहास-6
हुआ अपहरण,
आगजनी और गडा लालझंडा
उपेन्द्र
कश्यप
गोरडीहां पंचायत का इतिहास संघर्ष का रहा है। यहां किसानों
के खिलाफ जमकर संघर्ष हुआ है। इसका लीडर रहा है भाकपा माले। वह तब भूमिगत संगठन
हुआ करता था और आईपीएफ इसका फ्रंट मोर्चा था। जिसके बैनर तले 1995 के बिहार विधान
सभा चुनाव लड कर राजाराम सिंह विधायक बने थे। यहां 1997 में राघो सिंह की 22 बिगहा
जमीन पर लाल झंडा पहली बार गाडा गया था। 1998 में 30 बिगहा जमीन में लगी फसल
नक्सलियों ने काट लिया था। 1999 में इनके बल्हमा निवासी एक व्यक्ति का अपहरण कर
लिया गया था। साल 2000 में इस बडे जोतदार वाले किसान के सभी खेत को नक्सलियों ने
84 जोडा बैल लगाकर जोत दिया। अंजनी कुमार प्रसाद सिंह बताते हैं कि स्थिति इतनी
विकट आ गयी थी कि बडे किसानों को घर या
गांव छोडने की नौबत आ गयी। तभी यहां 1999 में यहां एलपी स्कूल में पुलिस पिकेट की
स्थापना की गयी। यह तब तक रहा जब तक यहां स्थिति नियंत्रण में आ कर शांत न हो गयी।
किसानों की अपनी जमीनों पर कब्जा हो गया और इसके साथ ही यहां से पिकेट चला गया। संभवत:
2001 तक यहां पिकेट स्थापित रहा। यह तनाव भरा क्षण सबके लिए था। लाल पताके की
गतिविधियां खूब होती थीं। इस संवाददाता ने जिला में पहली बार 2002 में नक्सलियों
के हथियारबन्द दस्ते की तस्वीरें दैनिक जागरण में इसी पंचायत की सार्वजनिक किया
था। इस दौर में लाल सलाम खूब सूने गये जब कि कभी यहां सामूहिकता और सार्वजनिक
कार्य के लिए सहभागिता आम बात थी। जब नहरें टूटती थी तो अमौना, गोरडीहां और नोनार
के किसान सभी एक साथ मजदूर लगाकर काम करते थे और अमौना के इसी किसान घराने का
ढाबा, दालान और खाद्यान काम आता था।
क्रांतिकारियों को मंदिर में मिला संरक्षण
ठाकुरबाडी में स्थापित भगवान की प्रतिमायें |
गुलाम भारत में क्रांतिकारियों ने
देव स्थलों को भी अपना शरणस्थली बनाया था। बाबू अमौना ठाकुरबाड़ी मंदिर (राम जानकी
मंदिर) भी ऐसी ही भूमिका में था। क्रांतिकारियों को अपना छांव देकर दुश्मन
अंग्रेजों से बचाया, उन्हें जीवन दान दिया। सन 1857 के गदर में बाबू वीर
कुंअर सिंह के सिपहसालार जीवधर सिंह ने अंग्रेजों से युद्ध के वक्त यहां शरण लिया
था। उन्हें अपनी जान की चिंता पड़ी थी। किंतु गददारों ने या भेदियों ने अंग्रेज
प्रशासन को इसकी सूचना दे दी। गया से पुलिस के मुखिया यहां चले आए। इसकी सूचना
जमींदार को मिल गयी और जीवधर सिंह बच निकले। 1942 की अगस्त
क्रांति के वक्त भी गया के नामचीन वकीलों ने यहां शरण लिया था। तब यहां टियां हुआ
करता था। यानि वह स्थान जहां यात्री विश्राम करते थे और उसे मीठा पानी गला तर करने
को प्राप्त होता था। यह गांव तब गया-देवहरा (पुनपुन नदी पार कर) बाबू अमौना-
महदेवा घाट (सोनपार) होते कुरमुरही पीयरो (भोजपुर के पास) होते रामरेखा घाट बक्सर
पहुंचने वाले पैदल मार्ग पर पड़ता था। कुंभ मेला जाने वाले यात्री साधु संयासी इसी
मार्ग से जाते और इस टियां पर ठहर कर तृप्त होते।
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