संस्कृत दिवस पर विशेष रिपोर्ट : दैनिक जागरण विशेष
- 1943 तक चला था यह संस्कृत विद्यालय
बिहारोत्कल
संस्कृत समिति पटना से था संबद्ध
उपेंद्र
कश्यप । दाउदनगर (औरंगाबाद)
आज
संस्कृत दिवस है। भारत में संस्कृत
को देवभाषा माना जाता है। पौराणिक इतिहास, ज्ञान सब संस्कृत में ही लिपिबद्ध हैं।
आज संस्कृत पढ़ने वालों की संख्या न्यूनतम है। जब भारत गुलाम था, तब यहाँ के
देवकुंड में एक संस्कृत विद्यालय हुआ करता था। इसका प्रारंभ कब हुआ यह ज्ञात
इतिहास में दर्ज नहीं है। हां, यह तय है कि वर्ष 1843 के बाद महंत रामेश्वर
पुरी के समय यह शुरू हुआ था।
रामेश्वर पूरी 400
वर्षों के महंत परंपरा के इतिहास में सर्वाधिक 70 वर्ष तक वर्ष 1843 से 1913 तक देवकुंड के महंत रहे हैं। वर्ष 1943 ईस्वी
तक पटना के परशुरामपुर निवासी पंडित शिव शंकर मिश्र ने इस विद्यालय को किसी तरह
जीवित रखा। इस विद्यालय को
बिहार उत्कल संस्कृत समिति पटना से संबद्धता मिली थी और शास्त्री तक की पढ़ाई होती
थी। मालुम हो कि बिहार उड़ीसा
का हिस्सा रहा है। अकरौंजा
निवासी पंडित विशेश्वर मिश्र (वृद्ध महाराज), करहरी निवासी शास्त्रार्थ महारथी
नंदलाल शास्त्री, बांसाटांड निवासी महापंडित रघुनाथ मिश्र इस विद्यालय के प्रधान
पंडित पद को अलंकृत किये थे। हठयोगी
पंडित बालमुकुन्द मिश्र जब विद्यालय से बोर्ड की संस्कृत पाठशाला में चले गए तब
कृष्णा दयालु पाठक ने विद्यालय संभाला। बिहारोत्कल संस्कृत समिति पटना से शास्त्री
परीक्षा तक की स्वीकृति के बाद 1933 ई. से 1938 तक बासांटांड के मोहन शरण मिश्र ने
इस विद्यालय को चंद्रशेखर संस्कृत विद्यालय के रूप में चलाया था। अब देवकुंड में
विद्यालय के होने का कोइ प्रमाण जमीन पर नहीं मिलता। अगर विद्यालय आज तक
जिंदा होता तो इलाके में संस्कृत की शिक्षा की स्थिति संभवत बिहार में सबसे मजबूत
होती।
भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने 1969 से संस्कृत भाषा के विकास के लिए इस दिवस की शुरूआत की थी। तभी से पूरे देश में संस्कृत दिवस मनाने की परंपरा शुरू हुई थी। ये भी मान्यता है कि इसी दिन से प्राचीन भारत में नया शिक्षण सत्र शुरू होता था। गुरुकुल में छात्र इसी दिन से वेदों का अध्ययन शुरू करते थे, जो पौष माह की पूर्णिमा तक चलता था। पौष माह की पूर्णिमा से सावन की पूर्णिमा तक अध्ययन बंद रहता था। आज भी देश में जो गुरुकुल हैं, वहां सावन माह की पूर्णिमा से ही वेदों का अध्ययन शुरू होता है।
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