पत्थर की प्राचीन प्रतिमाओं को सिंदूर-रोरी-तेल-घी से लेपना
खतरनाक
फोटो-सिंदूर-रोरी से रंगी प्रतिमा |
अंध विरोध होने की आशंका से लोगों को बताने कोइ सामने नहीं आता
लोगों को जागरुक नहीं किये तो कई धरोहर-विरासत होंगे ख़त्म
उपेंद्र कश्यप । डेहरी
विश्व विरासत सप्ताह में कोइ आयोजन जिले
में नहीं हुआ। जबकि विरासतों की लंबी श्रृंखला है। कैमूर की पहाड़ी से लेकर मैदानी
इलाके तक के क्षेत्र में कई विरासतें अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं। विरासतों को लेकर जागरूकता का घोर अभाव है। कैमूर की वादियों में या मैदानी इलाके में जो विरासतें
हैं, उनकी देखभाल के प्रति समाज और व्यवस्थापकों की जागरूकता की कमी दिखती है। कई
प्रतिमाओं पर सिंदूर-रोरी-गुड़-घी-तेल का लेप लगा दिया जाता है। पूजा की सामग्री से
प्रतिमाएं ढँक दी जाती है। कई बार मंदिर-किला की दीवारों पर लोग अपने और अपने
प्रेम की अभिव्यक्ति ईंट से लिख देते हैं, नाम-पता और मोबाइल नम्बर तक दीवारें
खुरच कर लिख देते हैं। कई बार तो शिलालेखों के साथ छेड़छाड़ कर दिया जाता है। यह सब
विरासतों को नुकसान पहुंचाता है, यह समझ विकसित करनी होगी। समस्या यह है कि जागरूक
कौन करे? जो आगे आयेगा उसे अंधभक्त धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप, आस्था का सवाल
खडा कर जागरूकता लाने वाले को ही अधार्मिक, नास्तिक और किसी वाद का विरोधी बताने
पर तुल पड़ते हैं। किन्तु वास्तविकता यह है कि जागरूकता के अभाव में विरासतें
संकटग्रस्त हैं। विरासत स्थलों पर सरकार द्वारा लगाई गयी सूचना पट पर भी कानूनी
आदेश लिखे होते हैं कि छेड़छाड़ न किया जाए, उसकी भी कोई नहीं सुनता, क्योंकि
कारर्वाई नहीं होती कभी भी।
होता है पहचान का संकट,
काल निर्धारण मुश्किल:-
बिहार विरासत संवर्धन अभियान के अध्यक्ष डॉ.अनंताशुतोष ने
बताया कि प्रतिमाओं के काल निर्धारण और पहचान में मुश्किल होता है जब कोइ लेप
लगाया जाता रहा हो। ऐसा करने से प्रतिमा की
चिकनाहट ख़त्म होती जाती है। वह खुरदरा हो जाता है। उसमें छोटे-छोटे गड्ढे हो जाते
हैं। प्रतिमा पर उकेरे गए गहने, प्रतिक चिन्ह को पहचानना कठिन या कभी कभी असंभव हो
जाता है, इतना बाहरी आवरण का क्षरण हो चुका होता है। बताया कि प्रतिमा किस पत्थर
की बनी है, किसकी है, कब की बनी है यह जानना मुश्किल हो जाता है। सैंड स्टोन की
प्रतिमा बैसाल्ट की और बैसाल्ट की प्रतिमा सैंड स्टोन की दिखने लगती है। प्रतिमा
का इस कारण काल निर्धारण मुश्किल हो जाता है। इस कारण सिंदूर-रोरी-घी-तेल नहीं
लगाना चाहिए। फुल-पत्ते समेत अन्य पूजा सामग्री से प्रतिमाओं को ढंकना नहीं चाहिए।
पत्थर भी लेते हैं सांस, लेप से बंद हो
जाते हैं छिद्र:-
रोहतास में शैलाश्रयों की खोज करने और
ऐतिहासिक स्थलों के शोधकर्ता डॉ.श्याम सुन्दर तिवारी ने कहा कि पत्थरों में छिद्र
होते हैं, वे भी सांस लेते हैं। लेप वगैरह से छिद्र बंद हो जाते हैं। प्रतिमा खराब
हो जाती है। पत्थरों को घर्षित किया जाता था। इस कारण उस पर ऐसे काम का प्रभाव
नहीं पड़ता है। जैसे पाल काल की प्रतिमाएं। अशोक स्तंभ भी घर्षित कर चिकना किये गए
होते हैं, इस कारण उस पर चढ़ावे का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता। बलुआ पत्थर से निर्मित
तुतला भवानी और रोहितेश्वर धाम के शिवलिंग लेप और चढ़ावा के कारण ही क्षरण के शिकार
हो रहे हैं। ये उदाहरण हैं। गुप्त काल और मध्य काल में जो प्रतिमाएं बनीं, उनको
घर्षित नहीं किया गया, नतीजा चढ़ावे से उनके छिद्र बंद हो जाते हैं, और उन पर
लेप-चढ़ावे का दुष्प्रभाव पड़ता है। लोगों को इसके लिए जागरुक किये जाने की जरुरत है।
भावी पीढ़ी के लिए अपराध न करें:-
बिहार विरासत संवर्धन अभियान के अध्यक्ष डॉ.अनंताशुतोष ने
बताया कि सिंदूर में केमिकल होता है। अन्य पूजा
सामग्री भी पुरी तरह प्राकृतिक सामग्री से बने नहीं होते हैं।
सिंदूर-रोरी-घी-तेल-गुड़ के लेप लगा देने से कई तरह की समस्या आती है। यह गुनाह है।
अपने विरासतों के प्रति लापरवाही है। प्रतिमा की गुणवत्ता और पहचान के चिन्ह का
क्षरण होता है। लोगों को इससे बचना चाहिए। अन्यथा भावी पीढ़ी को हम बहुत सी
विरासतों से वंचित करने का अपराध जाने-अनजाने कर चुके होंगे।
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