जिउतिया लोकोत्सव न्यूनतम 158 साल से मनाया जा रहा है। इसमें बिहार की प्रतिनिधि संस्कृति बनने की पूरी क्षमता है। सरकार संस्कृति को बढ़ावा देने की बात चाहे जितनी कर ले, वह बहुजनों के इस पुराने लोक उत्सव को भाव नहीं देती। जबकि वह इसे गंभीरता से ले तो इस संस्कृति को बहुत ऊंचाई दी जा सकती है। आश्रि्वन अंधरिया दूज रहे, संवत 1917 के साल रे जिउतिया। जिउतिया जे रोपे ले हरिचरण, तुलसी, दमड़ी, जुगुल, रंगलाल रे जिउतिया। अरे धन भाग रे जिउतिया.। स्पष्ट बताता है कि संवत 1917 यानी 1860 में पाच लोगों ने इसका प्रारंभ किया था। इतिहास के मुताबिक इससे पहले से यह आयोजन होता था, सिर्फ इमली तर मुहल्ला में। कारण प्लेग की महामारी को शात करने की तत्कालीन समाज की चेष्टा थी। इसमें कामयाबी भी मिली। लेकिन तब एक महीना तक जो जागरण हुआ वह निरंतरता प्राप्त कर संस्कृति बन गई। बाद में यह नौ दिन और अब मात्र तीन दिवसीय संस्कृति में सिमट गया। यह हर साल आश्रि्वन कृष्णपक्ष अष्टमी को मनाया जाता है। यहा लकड़ी या पीतल के बने डमरुनुमा ओखली रखा जाता है। हिंदी पट्टी में इस तरह सामूहिक जुटान पूजा के लिए कहीं नहीं होता। यहा शहर में बने जीमूतवाहन के मात्र चार चौको (जिउतिया चौक) पर ही तमाम व्रती महिलाएं पूजा करती हैं। इस संस्कृति में फोकलोट अर्थात लोकयान के सभी चार तत्व यथा लोक साहित्य, लोक कला, लोक विज्ञान और लोक व्यवहार प्रचुरता में उपलब्ध हैं। तीन दिन तक होने वाली प्रस्तुतियों में इसे देखा जा सकता है। इसे बिहार की प्रतिनिधि संस्कृति बनाने के लिए जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री थे तो सरकार को ज्ञापन सौंपा गया था। सरकार बहुजनों की इस लोक संस्कृति के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं कर रही है। सिर्फ प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। लोक अपने तंत्र (सरकार) से कुछ नहीं लेती। न सुरक्षा मागती है न साधन। न तनाव देती है न बवाल। लोग अपने में मस्त रहते हैं, मस्ती करते हैं और दूसरों को इतना मस्त कर देते हैं कि धन भाग रे जिउतिया, तोरा अइले जियरा नेहाल रे जिउतिया, जे अइले मन हुलसइले, नौ दिन कइले बेहाल, रे जिउतिया.और जब पर्व खत्म होने को होता है तो लोग विरह की वेदना महसूस करते हैं। देखे अइली जिउतिया, फटे लागल छतिया, नैना ढरे नदिया समान। जाने तोहे बिन घायल हूं पागल समान..।
https://www.google.co.in/amp/s/m.jagran.com/lite/bihar/aurangabad-representatives-of-the-state-to-create-culture-12963811.html
30 सितंबर 2015 को जागरण में प्रकाशित मेरा लेख।
No comments:
Post a Comment